जम्मू-कश्मीर के बड़े नेता गुलाम नबी (Ghulam Nabi Azad) आखिरकार कांग्रेस से 'आज़ाद' हो गये हैं और अब वे नई पार्टी बनाकर प्रदेश में सियासी पारी खेलेंगे. चूंकि सूबे में जल्द ही विधानसभा चुनाव कराए जाने की संभावना है, उस लिहाज से आज़ाद का कांग्रेस (Congress) छोड़ना और नई पार्टी के जरिये चुनावी-मैदान में कूदने का फैसला लेना एक नए सियासी समीकरण का तानाबाना बुनने की तरफ इशारा करता है. घाटी के आठ दलों का गुपकार अलायंस भी टूटना शुरू हो चुका है, लिहाजा कश्मीर वादी की सियासत में आज़ाद का रोल पहले से ज्यादा अहम हो जायेगा.


अगर उनकी नई पार्टी घाटी में कुछेक सीटें लाने में भी कामयाब हो जाती है, तो बेशक वे सीएम भले ही न बन पायें, लेकिन वहां पहली बार बीजेपी की सरकार बनवाने में आजाद 'किंगमेकर' की भूमिका में आ जायेंगे. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कश्मीर में आज़ाद का अपना अलग सियासी वज़ूद है और उसकी बानगी आज ही देखने को भी मिल गई, जब उनके समर्थन में प्रदेश के 6 पूर्व विधायकों ने भी कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से अपना इस्तीफा देकर आज़ाद का दामन थाम लिया.


इनके अलावा राज्य के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री आरएस चिब ने भी कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है. दावा किया जा रहा है कि है कि जम्मू-कश्मीर के और भी कई कांग्रेसी नेता जल्द ही आज़ाद के समर्थन में पार्टी को अलविदा कहने वाले हैं. इसलिये जो लोग ये सोच रहे हैं कि गुलाम नबी कश्मीर की सियासत में पिटे हुए मोहरे साबित होने वाले हैं, तो उनका ये आंकलन गलत साबित हो सकता है और इसकी कई वजह हैं.  


प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने अपना जो जनाधार तैयार किया था और पार्टी में जिन विश्वासपात्र कार्यकर्ताओं की फौज इकट्ठा की थी वही अब उनकी नई पार्टी को इतना तो मजबूत करेगी कि उन्हें कुछ सीटें आसानी से मिल जायें. वैसे तो आज़ाद की जन्मस्थली जम्मू डिवीजन का डोडा इलाका है, लेकिन उनकी पहचान कश्मीर घाटी के एक सुलझे हुए नेता के रूप में ही रही है. आज़ाद के नजदीकी लोगों की बातों पर भरोसा करें, तो वे चुनाव से पहले बीजेपी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे बल्कि अकेले दम पर चुनाव मैदान में उतरकर लोगों को ये अहसास कराएंगे कि प्रदेश की बेहतरी और अमन चैन की बहाली के मकसद से ही वह दिल्ली की सियासत छोड़कर अपनी जड़ों की तरफ लौटे हैं.


दरससल, आज़ाद के लिए नई पार्टी बनाकर चुनाव में कूदना इसलिये भी फायदे का सौदा है क्योंकि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाए जाने के बाद जो गुपकार अलायंस बना था वह अब टूटना शुरू हो चुका है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने हाल ही में ये ऐलान कर दिया है कि राज्य में भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर उनकी पार्टी अकेले ही चुनाव लड़ेगी. ऐसे में अब गुपकार अलायंस का कोई अस्तित्व ही नहीं बचा है.


घाटी के सात दलों के अलग-अलग चुनाव लड़ने से आज़ाद को जहां अपनी सियासी जमीन मजबूत करने का मौका मिलेगा, तो वहीं बीजेपी को इसका दोहरा लाभ होगा. गुपकार अलायंस अगर एकजुट होकर चुनाव लड़ता, तो बीजेपी के लिए घाटी में कोई गुंजाइश नहीं बचती, लेकिन अब आज़ाद की पार्टी को घाटी में जितनी भी सीटें मिलेंगीं, वो बीजेपी के लिए सत्ता तक पहुंचने की राह आसान ही करेंगी. कश्मीर घाटी में फारुक अब्दुल्ला और मुफ्ती मोहम्मद सईद के परिवार का जलवा भी अब पहले जैसा नहीं रहा और सूबे पर सिर्फ इन दो परिवारों का ही कब्ज़ा रहने से लोग भी आज़िज़ आ चुके हैं.


इसमें कोई शक नहीं कि जम्मू डिवीजन में बीजेपी काफी मजबूत है और यहां से ही उसे अधिकांश सीटें मिलने की आस है. घाटी में बीजेपी (BJP) को जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई के लिये चुनाव के बाद बीजेपी आज़ाद से हाथ मिलाने में कोई परहेज नहीं करेगी. दोनों के लिए ये फायदे का सौदा होगा क्योंकि बीजेपी को जहां घाटी की नुमाइंदगी के लिए सरकार में किसी पार्टी की जरूरत होगी, तो वहीं आज़ाद (Ghulam Nabi Azad) उस सरकार के 'किंगमेकर' की भूमिका में आ जाएंगे. 


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