देश की सबसे पुरानी पार्टी और सबसे ज्यादा वक्त तक राज करने वाली कांग्रेस में अगर आज जो बगावत दिखाई दे रही है, तो उसके लिए इतिहास टटोलने की जरुरत नहीं है. सिर्फ सात साल पहले के वो हालात याद कीजिए, जब लगातार 10 साल तक दुनिया के एक मशहूर अर्थशास्त्री के हाथ में देश की बागडोर सौंपने वाली कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई थी. कुछ अनुभवी नेताओं को तो तभी ये अहसास हो गया था कि अब आगे इस पार्टी का हश्र क्या हो सकता है. क्योंकि उन्हें भी ये इल्म उनसे भी ज्यादा बड़े नेताओं से मिला था कि जब भी कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बाहर होती है, तो पार्टी नेतृत्व अगर अनुभवहीन नेता के हाथ में है, तो वो इतना बौखला जायेगा कि राज्यों की सत्ता को भी तरतीब से संभाल पाना, उसके बूते से बाहर हो जायेगा.


क्यों आई ऐसी नौबत?
पंजाब इसकी ताजा मिसाल है लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी इसी मिसाल को आगे बढ़ाने के लिए तैयार बैठे हैं. पर, बड़ा सवाल ये है कि आखिर ऐसी नौबत ही क्यों आई और उसके लिए सिर्फ गांधी परिवार की 'तिकड़ी' जिम्मेदार है या फिर पिछले एक दशक में उभरे उनके नये सलाहकार? अहमद पटेल अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उन्हें सियासी-दुनिया में कांग्रेस का सबसे बड़ा संकटमोचक और चाणक्य माना जाता रहा है, फिर चाहे पार्टी सत्ता में हो या उससे बाहर. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के वे सालों तक राजनीतिक सचिव रहे लेकिन उन्होंने अपने जीते-जी कभी नहीं चाहा कि वरिष्ठ व अनुभवी नेताओं को दरकिनार करके पार्टी की कमान ऐसे युवा नेता को सौंप दी जाये, जिन्होंने अभी सियासत की सीढ़ियां चढ़ना ही सीखा है और जिनमें ऊपरी सीढ़ी से गिरकर लगने वाली चोट का दर्द बर्दाश्त करने की ताकत तक भी नहीं है. लेकिन दुनिया का दस्तूर है कि एक मां का पुत्र-मोह उससे कभी कोई नहीं छीन सकता. सो, सोनिया गांधी ने भी वही किया. पहले राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया और फिर कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर सारे फैसले लेने का हक उन्हें दे दिया.


इसमें कोई शक नहीं कि राहुल राजनीति में एक ऐसे शख्स हैं जो शालीन होने के साथ ही अपनी भाव-भंगिमा से काफी हद तक मासूम होने की छाप भी छोड़ते हैं. लेकिन कहते हैं कि राजनीति वो बला है, जहां अपनी मासूमियत से आप लोगों को रिझाने के लिए भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हो लेकिन ये दावा नहीं कर सकते कि वो वोटों में भी तब्दील हो जायेगी.


कैप्टन 52 साल से राजनीति में
हो सकता है कि गांधी परिवार से जुड़े नजदीकी नेता इस आकलन को गलत ठहराएं लेकिन राहुल ने पिछले कुछ सालों में अपनी चौकड़ी की मार्फत जिस तरीके से फैसले लिए हैं, वे उन सब नेताओं की उपेक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण है, जब राहुल पैदा भी नहीं हुए थे और वो उससे पहले से कांग्रेस के वफादार सिपाही बन चुके थे. इनमें सबसे बड़ा नाम कैप्टन अमरिंदर सिंह का है, इसलिये कि वे दून स्कूल मे राजीव गांधी के सहपाठी तो थे ही और बाद में, राजीव के कहने पर ही कैप्टन ने कांग्रेस ज्वॉइन की, जबकि तब राजीव गांधी का राजनीति से दूर-दूर तक कोई लेना देना ही नहीं था. राजीव-सोनिया की शादी के बाद उन्हें पहली दावत भी कैप्टन ने ही अपने पुरखों के बनाये पटियाला वाले आलीशान महल में दी थी. कैप्टन को राजनीति में आये 52 साल हो गए. हालांकि बीच में उन्होंने कुछ समय के लिए अकाली दल का दामन थामा था, जो उन्हें रास नहीं आया और वे दोबारा कांग्रेसी जहाज पर लौट आये.


अचानक ऐसा क्या हुआ?
लिहाज़ा, सवाल ये उठता है कि जिस कैप्टन को पिछले कई सालों से सोनिया गांधी अपना सबसे विश्वस्त सिपहसालार मानती आईं, उनमें अचानक ऐसा कौन-सा खोट आ गया था, जो सिर्फ राहुल गांधी और उनकी 'चापलूस-चौकड़ी' को दिखाई दे गया कि उनसे चुनाव से ऐन पहले इस्तीफा दिलवाकर कांग्रेस को गड्ढे में धकेलने की ऐसी करतूत की गई?


पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह तो कैप्टन से भी पहले के कांग्रेसी नेता हैं. उन्होंने कल एक न्यूज चैनल की डिबेट में बेहद रिमार्केबल बात कही है, जिस पर पार्टी के फैसले पर्दे से पीछे ले रहे नेताओं को गंभीरता से गौर करना चाहिए. उन्होंने कहा है कि "अगर मैं सोनिया गांधी का सलाहकार होता, तो सबसे पहले कैप्टन को बुलवाता, ये समझने के लिए कि आखिर माजरा क्या है. उसके बाद कैप्टन और सिद्धू, दोनों को आमने-सामने बैठाकर सुलह का कोई रास्ता निकालता. ये काम उन बच्चों का नहीं है, जिन्हें आकर एक शख्स ने अपनी पट्टी पड़ा दी और आपने पार्टी के इतने मजबूत स्तंभ से इस्तीफा मांग लिया." बेशक, कांग्रेस में कैप्टन विरोधी खेमे के नेता यही दलील देंगे कि नटवर सिंह से तो कैप्टन की रिश्तेदारी है, लिहाज़ा वे तो उनका ही पक्ष लेंगे. 


'CWC की बैठकी बुलाने की मांग'
तो फिर सवाल उठता है कि गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा और मनीष तिवारी जैसे ग्रुप 23 के नेताओं से आखिर कैप्टन की क्या रिश्तेदारी है, जो चिट्ठी लिखकर लगातार ये मांग कर रहे हैं कि CWC की बैठक बुलाई जाए और पार्टी के नए अध्यक्ष का चुनाव करवाया जाए. लेकिन वरिष्ठ व अनुभवी नेताओं की इस आवाज़ को अनसुना करने का ही ये नतीजा है कि पंजाब के बाद अब बाकी राज्यों से बगावत के जो सुर उठ रहे हैं, उसे थामना न तो इतना आसान है और न ही वहां दोबारा अपना परचम लहराने की कांग्रेस को कोई उम्मीद ही पालना चाहिए.


'सिब्बल की डिनर पॉलिटिक्स' 
गांधी परिवार को ये अहसास दिलाने के लिए कि कांग्रेस सिर्फ उनकी बपौती ही नहीं है, सिब्बल ने अगस्त महीने में अपने जन्मदिन के एक दिन बाद 'डिनर पॉलिटिक्स' का प्रयोग भी किया था लेकिन तब भी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अपने अहंकार में ही डूबा रहा. उस डिनर में तकरीबन 15 विपक्षी दलों के नेताओं को इकठ्ठा करने के गहरे सियासी मायने भी थे. वह इसलिये कि सिब्बल भी सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले उस ग्रुप-23 के अगुआओं में से थे, जिन्होंने पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन के साथ ही पूरी ओव्हारोइलिंग करने की आवाज़ उठाई थी.


सिब्बल की इस डिनर पॉलिटिक्स के अगले दिन एक अंग्रेजी अखबार ने ये छापा था कि G-23 के एक नेता का कहना है, 'सभी विपक्षी दलों को उत्तर प्रदेश पर धावा बोल देना चाहिए और अखिलेश यादव को सपोर्ट करना चाहिए. अखिलेश यादव ही बीजेपी को चैलेंज कर रहे हैं क्योंकि कांग्रेस चुनाव जीतने की स्थिति में तो है नहीं.'उसी कांग्रेस नेता ने कहा," 'हम सबको समाजवादी पार्टी का सहयोग करना चाहिए और चुनाव जीतने का यही एक तरीका है.' निश्चित तौर पर ये सलाह तो कांग्रेस नेतृत्व के लिए ही है, उनके मुताबिक 'लक्ष्य बीजेपी को हराने का होना चाहिए. हमें वोटों को बंटने नहीं देना चाहिए.'


'गांधी परिवार के बाहर कमान से क्यों है डर'
अब जबकि पंजाब का किला छिनता हुआ दिखाई दे रहा है, तब पार्टी नेतृत्व कहता है कि जल्द ही CWC की बैठक बुलाई जाएगी. लेकिन सोचने वाली बात ये है कि जयपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के दौरान जब राहुल गांधी की उपाध्यक्ष पद पर ताजपोशी हो रही थी, तब उन्होंने अपने भाषण में एक बेहद मार्मिक बात कही थी. उन्होंने कहा था,"कल रात मेरी मां मेरे कमरे में आईं और गले लगकर खूब रोईं और बोलीं कि बेटा, सत्ता एक ज़हर है, इससे बचकर रहना है." अब सवाल ये उठता है कि जब सत्ता अगर जहर है, तो फिर पार्टी से इतना मोह क्यों और इसकी कमान गांधी परिवार से बाहर के किसी नेता को सौंपने में भला इतना डर क्यों होना चाहिए?


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