Supreme Court: गोपनीयता के नाम पर केंद्र और राज्यों की सरकारें अक्सर हर किसी मामले में सीलबंद लिफाफे में अदालतों को अपना जवाब देती हैं और पिछले कुछ सालों में इसका चलन कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट इस पर सख्त हो गया है और उसने केंद्र सरकार को फटकार लगाते हुए कहा है कि ये खतरनाक प्रवृत्ति बंद होनी चाहिए क्योंकि ये न्याय की निष्पक्ष और पारदर्शी प्रकिया के सिद्धान्त के ख़िलाफ़ है. 


अब सवाल उठता है कि ये Sealed Cover कल्चर खत्म हो जाने से क्या इंसाफ मिलना ज्यादा साफ-सुथरा हो जाएगा? कानून के जानकार इसका जवाब हां में देते हुए कहते हैं कि देश की शीर्ष अदालत की इस पहल की तारीफ इसलिए होनी चाहिए कि गोपनीयता की दलील देकर सरकारें अब तक जो जानकारी आम जनता से छुपाती आई हैं, उस पर अंकुश लगेगा और सब कुछ आईने की तरह साफ होगा.


कोर्ट दलील से सहमत नहीं 


दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को ‘वन रैंक वन पेंशन’ (OROP) योजना के तहत पूर्व सैनिकों को पेंशन देने के सिलसिले में केंद्र सरकार के सीलबंद कवर नोट को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और साफ लहज़े में कहा कि 'अदालत में गोपनीयता नहीं हो सकती है. इसे दूसरे पक्ष के साथ साझा किया जाना चाहिए.' इस पर अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने कहा कि चूंकि नोट ‘गोपनीय’ था, इसलिए सीलबंद लिफाफे में पेश करना पड़ा, लेकिन कोर्ट उनकी दलील से सहमत नहीं हुई.



व्यक्तिगत रूप से सीलबंद लिफाफों के खिलाफ- CJI


चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘मैं व्यक्तिगत रूप से सीलबंद लिफाफों के खिलाफ हूं. होता ये है कि हम वो देखते हैं, जो मामले से जुड़ा दूसरा पक्ष नहीं देख पाता और हम उसे दिखाए बिना मामले का फैसला करते हैं. यह मूल रूप से न्यायिक प्रक्रिया के उलट है. अदालत में गोपनीयता नहीं हो सकती. कोर्ट को पारदर्शी होना चाहिए. केस डायरी में गोपनीयता समझ में आती है क्योंकि अभियुक्त इसका हकदार नहीं है, या ऐसा कुछ जो सूचना के स्रोत को प्रभावित करता है या किसी के जीवन को प्रभावित करता है लेकिन यह हमारे फैसले के निर्देशों के अनुसार पेंशन का भुगतान है. इसमें आखिर बड़ी गोपनीयता क्या हो सकती है?’


सीजेआई चंद्रचूड़ ने तल्ख़ी के साथ कहा...


जब महाधिवक्ता ने फिर दोहराया कि कुछ ‘संवेदनशीलता के मुद्दे’ हैं तब सीजेआई चंद्रचूड़ को थोड़ी तल्ख़ी के साथ कहना पड़ा, ‘जब आप विशेषाधिकार का दावा करते हैं, तो फिर हमें उस दावे का भी फैसला करना होगा.’ उन्होंने कहा, ‘हमें इस सीलबंद कवर प्रक्रिया को खत्म करने की जरूरत है जिसका पालन सुप्रीम कोर्ट में किया जा रहा है क्योंकि तब हाई कोर्ट भी पालन करना शुरू कर देंगे. यह कल्चर मूल रूप से निष्पक्ष न्याय की मूल प्रक्रिया के विपरीत है.’


अटॉर्नी जनरल ने कोर्ट रूम में जवाब पढ़कर सुनाया


चीफ जस्टिस के इनकार के बाद अटॉर्नी जनरल को आखिरकार कोर्ट रूम में ही सरकार का वह जवाब पढ़कर सुनाना पड़ा, जिसके गोपनीय होने का दावा किया गया था. बता दें कि ओआरओपी बकाया भुगतान के लिए समयसीमा का पालन नहीं करने को लेकर पिछली सुनवाई पर भी सुप्रीम कोर्ट ने रक्षा मंत्रालय की जमकर आलोचना की थी. बकाया राशि 28 हज़ार करोड़ रुपये के दायरे में है और पेंशनभोगियों की संख्या लगभग 25 लाख है. सरकार द्वारा दिए गए नोट में कहा गया है कि रक्षा मंत्रालय ने इस मामले को वित्त मंत्रालय के साथ उठाया था, जिसने एक बार में बकाया राशि का भुगतान करने के बजाय अलग-अलग भुगतान का सुझाव दिया था.


पूर्व सैनिकों की तरफ से अहमदी पेश हुए


पूर्व सैनिकों की तरफ से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता हुजेफ़ा अहमदी ने कहा कि किस्तें मार्च 2019 में आनी थीं, लेकिन अब वे कह रहे हैं कि अप्रैल 2024 में भुगतान करेंगे. यह बिल्कुल अनुचित है. जिन सैनिकों ने अपने जीवन के सबसे अच्छे वर्षों में देश की सेवा की है लेकिन ऐसा क्यों है कि वे सरकार की अंतिम प्राथमिकता में हैं.


चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली बेंच ने उनकी दलील से सहमति जताते हुए कई दिशानिर्देश जारी किए. इनमें सबसे अहम है कि केंद्र को 30 अप्रैल, 2023 तक या उससे पहले पारिवारिक पेंशनरों और वीरता पुरस्कार विजेताओं को एक बार में ही भुगतान करने का निर्देश दिया गया है.


अडानी केस में सीलबंद लिफाफे में नाम दिया


गौरतलब है कि हाल ही में हिंडनबर्ग-अडानी केस में सेबी की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए बनने वाली एक्सपर्ट कमेटी के लिए भी सरकार ने प्रस्तावित नामों को सीलबंद लिफाफे में ही दिया था. पिछले साल केरल के एक न्यूज चैनल पर प्रतिबंध लगाने के मामले में कोर्ट ने कहा था कि दूसरे पक्ष को जानकारी दिए बिना सीलबंद लिफाफे में जानकारी देने का आखिर औचित्य क्या है? तब राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए सरकार ने चैनल का लाइसेंस रिन्यू करने से मना कर दिया था. 


जस्टिस चंद्रचूड़ ने आपत्ति जताते हुए कहा...


वजह समझाने के लिए सरकार ने एक बंद लिफाफे में इंटरनल फाइल कोर्ट के साथ साझा करनी चाही थी. लेकिन तब भी जस्टिस चंद्रचूड़ ने आपत्ति जताते हुए कहा था कि सरकार इस फाइल को चैनल के साथ साझा करना क्यों नहीं चाहती है? उन्होंने कहा था कि बच्चों के यौन शोषण जैसे कुछ अपवाद वाले मामलों में ही कोर्ट सीलबंद लिफाफे में मटेरियल स्वीकार करता है.


जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट का ताजा रुख सरकारों के लिए किसी झटके से कम नहीं है लेकिन देश की जनता के लिए इसलिए अच्छा है कि ये न्याय के उस प्राकृतिक सिद्धान्त को और भी ज्यादा मजबूत करेगा कि इंसाफ सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए.