राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस सिर्फ भारत का ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा स्वयंसेवी संगठन है, जो सांस्कृतिक-सामाजिक होने के साथ ही गैर राजनीतिक है लेकिन उसके बावजूद वो देश की सत्ता की दशा देखकर उसे दिशा देने का काम बेहद खामोशी से करता रहता है. संघ की स्थापना हुए 96 साल हो गए हैं लेकिन खूबी ये है कि उसकी कमान अब तक सिर्फ पांच लोगों ने ही संभाली है और डॉ  मोहनराव मधुकर राव भागवत छठे ऐसे सर संघचालक हैं, जो साल 2009 से इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं.


जाहिर है कि देश में ऐसे बहुतेरे लोग होंगे जो न तो संघ की कार्यशैली से वाकिफ होंगे और न ही वे इस संगठन के प्रमुख की सांकेतिक भाषा का अर्थ समझ पाने की सिरदर्दी अपने मोल लेना चाहेंगे. लेकिन अहम बात ये है कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के लिए 1925 में संघ की स्थापना करने वाले डॉ  केशवराम बलिराम हेडगेवार से लेकर अब तक के सारे सर संघ चालक अपना संदेश संकेतों की भाषा में ही देते आये हैं. उन्होंने कभी इसकी फिक्र नहीं कि केंद्र मैं सरकार कांग्रेस की है, खिचड़ी दलों की है या फिर उसकी विचारधारा के रास्ते पर चलने वाली बीजेपी की है. क्योंकि, उनका एकमात्र मकसद देशभर में फैले अपने लाखों स्वयंसेवकों तक उस संदेश को पहुंचाना होता है और जिसमें वे अक्सर नहीं बल्कि हमेशा सफल ही होते रहे हैं.


संघ प्रमुख मोहन भागवत कल यानि रविवार को दिल्ली के विज्ञान भवन के एक समारोह में मुख्य अतिथि थे. उन्होंने जब अपने भाषण की शुरुआत की तो पूरा हॉल चंद मिनट तक 'जय श्री राम' के नारों से गूंजता रहा और आखिरकार उन्हें ही भावावेश से सराबोर भीड़ के आगे अनुरोध करना पड़ा कि अब मैं भी कुछ बोलूं या नहीं. तब उन्होंने बोलना शुरु किया. बहुत सारी बातें कहीं लेकिन देश के मौजूदा राजीनीतिक माहौल में उनकी एक बात का बहुत गहरा मर्म था, जो महत्वपूर्ण भी है. भागवत ने कहा कि "सिर्फ जय श्री राम की जयकार करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि हमें उनके जैसा बनना भी होगा और वैसे ही काम भी करके दिखाने होंगे."


हो सकता है कि कई लोग इस बात की गहराई को न समझ पाये हों, लेकिन जो लोग संघ की शाखाओं से निकलकर आज सत्ता के शीर्ष पदों पर बैठकर जनसेवा का दायित्व निभा रहे हैं, उन्हें भलीभांति इसका अर्थ समझ आ गया होगा कि संघ प्रमुख ने ये बात क्यों कही है. भागवत ने ये भी कहा कि "सेवा में होश होता है, जोश नहीं." दरअसल, श्री राम के चरित्र के बहाने उन्होंने दो संदेश देने की कोशिश की है और ये खासकर उनके लिए है जो केंद्र से लेकर कई राज्यों की सत्ता में संघ के लाखों अनाम स्वयंसेवकों के अथक परिश्रम व त्याग की बदौलत ही उस कुर्सी तक पहुंचे हैं. इसके जरिये उनका पहला संदेश तो ये था कि अगर राजकाज आपके हाथ में है, तो उसे चलाने के लिए श्री राम जैसी वो मर्यादा भी रखनी होगी, ताकि आप भले ही मर्यादा पुरुषोत्तम की पदवी न हासिल कर पाएं लेकिन राष्ट्र की जनता को ये तो महसूस हो कि आप उनके पदचिन्हों पर चलने का ईमानदारी पूर्वक प्रयास कर रहे हैं.


उनकी बातों में छुपा दूसरा अहम संदेश ये भी था कि देश की सेवा सिर्फ जोश के साथ नहीं की जा सकती, उसके लिए होश रखना भी जरुरी है. हालांकि उन्होंने अपनी इस बात के लिए सरकार के किसी भी फैसले के संदर्भ का कोई जिक्र नहीं किया.


लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भागवत ने अपनी सांकेतिक भाषा में ये समझ दिया है कि तीन नए कृषि कानूनों को लाने का फैसला, जोश में लिया गया था और उन्हें वापस लेने का निर्णय देर से ही सही लेकिन होश में लिया गया है. वे कहते हैं कि तकरीबन साल भर से इन कानूनों के खिलाफ चल रहे किसानों के आंदोलन का संघ के किसी भी वरिष्ठ पदाधिकारी ने न तो कभी खुलकर विरोध किया और न ही इसका समर्थन किया. बल्कि जब संघ ने अपने स्तर पर कराये गए सर्वे से ये पता लगाया कि इस आंदोलन के चलते यूपी की सत्ता बीजेपी के हाथ से खिसक रही है, तभी संघ ने अपना आखरी फरमान सुना दिया कि या तो ये कानून वापस लो या फिर यूपी के सिंहासन को भूल जाओ. इससे आकलन में मतभेद हो सकते हैं लेकिन संघ से जुड़े कई लोग मानते हैं कि ये बेहद जल्दबाजी और बगैर सबको विश्वास में लिया गया ऐसा निर्णय था, जिसका खामियाजा इसे वापस लिए बगैर रोक ही नही जा सकता था. 


भागवत ने अपने भाषण में एक और महत्वपूर्ण बात पर भी जोर दिया और वो ये कि हिंदुओं को किसी का धर्म परिवर्तन कराने की कोई जरूरत नहीं है. जबकि डेढ़-दो दशक पहले तक संघ आदिवासी इलाकों में उन लोगों के धर्मान्तरण में जुटा हुआ था, जो किसी लालच में आकर हिंदू से ईसाई बन चुके थे. लिहाज़ा, भागवत का ये बयान मायने रखता है कि" हमारे समाज में बहुत विविधता है. कई देवी-देवताए हैं. सभी को एक साथ आगे बढ़ाना है, जो वर्षों से चला आ रहा है. हमारा धर्म हिंदू है. इसे दुनिया को देने की जरूरत है. हमें धर्म परिवर्तन कराने की जरूरत नहीं है."



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