एक शेर याद आ रहा है. वो बात जिसका पूरे फसाने में जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है. इस शेर को कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के बयान के मद्देनजर देखा जाए तो कहा जा सकता है कि वो बात जो फसाना बन चुकी है, वो बात कांग्रेस आलाकमान को नागवार गुजरी है. कपिल सिब्बल पेशे से वकील हैं. बीच-बीच में राजनीति भी कर लेते हैं.


वकील हैं तो तर्क करना बहस करना बेहतर ढंग से जानते हैं लेकिन उनकी चिंता क्या एक उस आम कांग्रेसी के दिल से अलग है जो पूरी तरह राजनीति को समर्पित हैं. कपिल सिब्बल ने आखिर ऐसा क्या कह दिया कि अशोक गहलोत समेत कांग्रेस के दिग्गज नेता उछल पड़े. कपिल सिब्बल वही बात कह रहे हैं या यूं कहा जाए कि दोहरा रहे हैं जो 23 नेता पहले कह चुके हैं. कई महीने पहले कह चुके हैं लेकिन उसपर कोई काम नहीं हुआ, आश्वासन देने के अलावा. इन नेताओं में भी कपिल सिब्बल शामिल थे. यही तो कह जा रहा है कि कांग्रेस हारती जा रही है, बार बार हारती जा रही है, छह सालों से सिर्फ चिंतन ही हो रहा है और अब चिंतन का समय नहीं है अब एक्शन का समय है. यह समय हाथ से निकल गया तो कांग्रेस का हाथ थामने वाला कोई नहीं मिलेगा.


कपिल अपनी बातों के साथ सबूत भी पेश कर रहे हैं. बता रहे हैं कि गुजरात में पार्टी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाती है, यूपी में पार्टी उम्मीदवारों को दो फीसद वोट भी नहीं मिलता है, बिहार में गठबंधन ज्यादा सीटें देता है लेकिन पार्टी उम्मीद पर खरा नहीं उतरती है. जो कुछ यह सब कहा गया है वह गलत क्या है? अशोक गहलोत का कहना है कि मीडिया में यह सब नहीं आना चाहिए, पार्टी के मंच पर यह बात रखी जानी चाहिए क्योंकि मीडिया में आता है तो कार्यकर्ता की भावनाएं आहत होती है.


अशोक गहलोत से पूछा जाना चाहिए कि जब लगातार चुनाव हारती है पार्टी तो क्या उससे भावनाएं आहत नहीं होती, जब गलत लोगों को टिकट दे दिया जाता है तब क्या भावनाएं आहत नहीं होती, जब टिकट बेचने के आरोप लगते हैं तब क्या भावनाएं आहत नहीं होती, जब विधायक बिक जाते हैं तब भावनाएं आहत नहीं होती, जब अनुशासनहीनता करने वालों की वापसी हो जाती है तब भावनाएं क्या आहत नहीं होती? आखिर मीडिया में बयान छपने के बाद ही भावनाएं आहत क्यों होती हैं? सवाल उठता है कि लाखों कार्यकर्ता राहुल गांधी से अध्यक्ष पद पर अंतिम फैसला लेने को कह रहा है और फैसला ले कर भी उस पर अमल टाला जा रहा है तब क्या भावनाएं आहत नहीं होती?


दरअसल, कांग्रेस की हालत उस शुतुरमुर्ग की तरह हो गयी है जो तूफान आने पर रेत में सिर घुसा लेता है और सोचता है कि ऐसा करने से तूफान गुजर जाएगा और वह बचा रहेगा. तूफान को तो गुजरना ही है गुजर ही जाता है लेकिन शुतुरमुर्ग बचा रहेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है. कांग्रेस सियासी कोरोना की शिकार है जहां पार्टी को सियासी रुप से वायरस ग्रस्त करने वाले कई सुपरस्प्रेडर घूम रहे हैं. पार्टी अध्यक्ष पद खाली पड़ा है, कार्यकारी अध्यक्ष से काम चलाया जा रहा है, चुनाव पेंडिंग पड़े हैं, चुनाव किस तरह से हो इस पर फैसला हो नहीं रहा है.


कपिल सिब्बल कहते हैं कि नामित सदस्य अगर सीडब्लूसी में होंगे तो दिल की बात नहीं कर पाएंगे लिहाजा वोटिंग होनी चाहिए, चुनाव होना चाहिए. इसमें भी कोई गलत बात नहीं है. जब 23 वरिष्ठ नेताओं ने खत लिखा था तब सोनिया गांधी की तरफ से भी मोटे तौर पर सहमति व्यक्त की गयी थी कि लोकतांत्रिक पार्टी में पारदर्शिता होनी चाहिए, जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और उसके हिसाब से हिसाब भी तय होना चाहिए. लेकिन कुछ दिनों तक टीवी चैनलों पर बहस होती रहीं, अखबारों में लेख आते रहे और उसके बाद सब कुछ तालाब के पानी की तरह ठहर गया.


वैसे यह विचित्र संयोग हैं कि एक तरफ बिहार और अन्य राज्यों में उपचुनाव के नतीजे आते हैं जिसमें कांग्रेस पिटती है और राहुल गांधी की काबिलियत पर सवाल उठते हैं तो उसी समय अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब आती है जिसमें कहा जाता है कि राहुल गांधी परिपक्व नेता नहीं हैं. फैसले नहीं ले पाते हैं. विचित्र संयोग है कि इसी समय कपिल सिब्बल जैसे नेता फिर से कांग्रेस आलाकमान के सामने वह हकीकत रख देते हैं जिसे सुनने से आलाकमान गुरेज करता रहा है.


अब कायदे से होना तो यह चाहिये कि कांग्रेस अपना नया अध्यक्ष चुने, सीडब्लूसी के चुनाव हों, राज्यों में झगड़े खत्म किये जाएं, मुख्यमंत्रियों को काम करने की आजादी दी जाए और कार्यकर्ता के मरते उत्साह को पूरी तरह से मरने से बचाया जाए. कांग्रेस को इधर उधर राज्यों में रीजनल पार्टियों की पिछलग्गू बनने से अच्छा है कि खुद के दम पर चुनाव लड़े, संगठन को फिर से खड़ा करने की कोशिश करे. भले ही इसमें दस साल लग जाए यानि अगले दो चुनाव कांग्रेस को भूल जाने चाहिए जहां-जहां वह रसातल में पहुंच गयी है. सड़क पर उतरना है और फिर सड़क पर ही रहना है. सड़क से उतर नहीं जाना है, विदेश नहीं चले जाना है. जनता से जुड़े मुद्दों को उठाना है. जब आन्ध्र प्रदेश में जगन मोहन यह काम कर सकते हैं, जब बिहार में तेजस्वी यादव यह काम कर सकते हैं तब राहुल गांधी क्यों यह काम नहीं कर सकते? अगर नहीं कर सकते तो सियासत से दो हाथ की दूरी बना लो ताकि कांग्रेस के हाथ का वजूद बच सके.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)