आज यानी 14 अप्रैल को बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती है. पूरा राष्ट्र कृतज्ञता के साथ उनको याद कर रहा है. किसी भी महान व्यक्ति का जीवन ही उसकी शिक्षा होती है, जैसा कि महात्मा गांधी ने अपने बारे में भी कहा था. हमारा देश विशालता के साथ-साथ कई तरह की विविधता और विभिन्नताओं को भी समेटे हुए है. दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या होने के साथ हम सबसे बड़े लोकतंत्र भी हैं. हमारी खूबियां अनेक हैं, तो कुछ खामियां भी. समस्याएं भी हैं, परेशानियां भी और इन सबसे निकलने के लिए जरूरी है कि 'अनेकता में एकता' का भाव बना रहे. इस एकता को बनाए रखने के लिए जो सबसे जरूरी टूल है, वह संविधान है और उस संविधान के निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर आज सबसे अधिक प्रासंगिक हैं. बाबा साहब ने संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में तीन महत्वपूर्ण बातें कही थी. उसे बार-बार पढा जाना चाहिए. उनको देखकर ऐसा लगता है मानो अंबेडकर भविष्य बिल्कुल साफ-साफ देख रहे थे और हमें अपने भविष्य के लिए चेता रहे थे. इसको उनकी तीन चेतावनियों की तरह लेना चाहिए. 



स्वतंत्रता है सर्वोपरि


अंबेडकर ने कहा था, "हम भारतीयों को एक महान व्यक्ति के पैरों में अपनी स्वतंत्रता गिरवी नहीं रखनी चाहिए और तमाम शक्तियों से लैस उस महान व्यक्ति पर भी ज्यादा विश्वाास नहीं करना चाहिए, जिससे कि वह हमारी संस्थाओं का नाश करने में सक्षम हो जाए. इसमें कुछ भी गलत नहीं है कि हम उन लोगों के प्रति आभारी बनें, जिन्होंने देश के लिए जीवन भर सेवाएं दीं, लेकिन कृतज्ञता की भी एक सीमा होनी चाहिए. भक्ति (किसी व्यक्ति की) या नायक पूजा लोकतंत्र के क्षरण और संभावित तानाशाही के लिए एक मार्ग प्रशस्त करती है".


-अंबेडकर का यह वक्तव्य बताता है कि वह लोकतंत्र को लेकर कितने दूरदर्शी और सजग थे. वह मानते थे कि महान से महान व्यक्ति पर भी अपनी सारी आस्था नहीं सौंप देनी चाहिए. वह मानते थे कि सत्ता का विकेंद्रीकरण और सभी संस्थानों की स्वायत्तता और स्वतंत्रता सबसे अधिक आवश्यक है. 


देश की एकता सर्वोपरि


बाबासाहेब ने कहा था, "क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? यह बात मुझे चिंतित करती है. मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि जात-पात, पंथ जैसे अपने पुराने शत्रु के अलावा, आगे हमारे पास विविध एवं विरोधी मानसिकता के राजनीतिक दल होंगे. क्या भारतीय लोग उनके मत के ऊपर देश को जगह देंगे या वे लोग देश से ऊपर अपने मत को जगह देंगे? मुझे यह नहीं मालूम, लेकिन इतना तय है कि अगर ये राजनीतिक दल देश के ऊपर अपने मत को रखते हैं, तो निश्चि त ही हमारी स्वतंत्रता ख़तरे में दूसरी बार पहुंच जाएगी और शायद हम हमेशा के लिए इसे खो दें. इस स्थिति से बचने के लिए हम सबको सख्ती से उठ खड़ा होना होगा".


-स्वतंत्रता हासिल करने से अधिक उसे कायम रखने की जरूरत को अंबेडकर समझते थे. वह जानते थे कि भारत में इतनी विभिन्नता है, इतने भेद हैं कि कभी भी वह हावी हो सकते हैं. उनकी चिंता यही थी कि भारतीयों पर उनके भेद हावी न हो जाएं, स्वाधीनता जो बड़ी मुश्किलों से मिली है, वह खतरे में न पड़ जाए. 


समाज में समानता का लक्ष्य सर्वोपरि


बाबा साहेब ने आजन्म सामाजिक असमानता के खिलाफ संघर्ष किया. वंचितों और शोषितों को पढ़ने और जाग्रत होने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने कहा था, "सामाजिक स्तर पर हमारे पास भारत में असमानता के सिद्धांत पर आधारित एक समाज है, जिसका अर्थ है, कुछ के लिए विकास और कुछ का क्षरण. आर्थिक दृष्टि से, हमारे पास एक ऐसा समाज है, जहां कुछ लोगों के पास बहुत धन है, वहीं कुछ लोग घोर ग़रीबी में रहने को विवश हैं. 26 जनवरी 1950 को एक लोकतांत्रिक  संविधान अपनाकर, भारत एक आदमी-एक वोट और एक वोट-एक मूल्य के सिद्धांत को सही ठहराएगा, हालांकि,  कब तक हम एक व्यक्ति-एक मूल्य का सिद्धांत खारिज करते हुए चल सकेंगे? कब तक हम सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में समानता से इंकार करते रहेंगे? अगर हम लंबे समय के लिए इंकार करते रहे, तो ऐसा हम स़िर्फ अपने राजनीतिक लोकतंत्र को ख़तरे में डालकर ही करेंगे. जल्द से जल्द संभव समय में इस विरोधाभास को दूर करना होगा, अन्यथा जो इस असमानता से पीड़ित है, वह उस राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को ख़त्म कर देगा, जिसे इस असेंबली (संविधान सभा) ने इतनी मुश्किल से बनाया है".


-अंबेडकर समाज में समानता और बराबरी को सबसे जरूरी मानते हैं. वह शोषितों और वंचितों एवम् समाज के उच्च वर्ग के बीच की खाई को लगातार कम करते हुए खत्म करने के पक्षधर हैं. वह मानते थे कि जब तक सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता नहीं आएगी, तब तक लोकतांत्रिक मूल्यों के जड़ें पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता. 


अब इन तीनों चेतावनियों को बार-बार पढ़ना और समझना चाहिए कि बाबा साहब की बातों का अर्थ क्या है....
“बाबा साहब को श्रद्धांजलि”


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