मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और कुछ हद तक राजस्थान में किसान आंदोलन कर रहे हैं. तीनों ही राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं.बीजेपी किसानों को अन्नदाता कहती रही है. प्रधानमंत्री मोदी 2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी करने का वायदा कर रहे हैं. तमिलनाडु के किसान जंतर-मंतर पर धऱना प्रदर्शन कर चुके हैं. कर्नाटक के किसानों में भी आक्रोश है. हरियाणा में भी किसान बड़ा आंदोलन शुरु करने की बात कर रहे हैं.



मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के जिन इलाकों में किसान सड़क पर हैं वहां उन्हें धनी माना जाता है. नासिक से लेकर मंदसौर तक में किसान अंगूर की खेती करते हैं. धनिया, जीरा, अश्वगंधा उगाते हैं. यह ऐसी फसलें हैं जो पैसा देकर जाती है. इसके बावजूद अगर अमीर और पढ़ा लिखा किसान सड़क पर आ रहा है तो साफ है कि उसके दुख का घड़ा भर चुका है. इस आंदोलन की दो बड़ी वजह नजर आती हैं. एक, न्यूनतम समर्थन मूल्य की राजनीति और दो, कर्ज माफी के बहाने किसान वोट बैंक पर सेंध लगाने की फौरी कोशिश. ऐसी कोशिश 2008 में तब की मनमोहनसिंह सरकार ने की थी और 65 हजार करोड़ का कर्ज माफ किया था और अगले ही साल सत्ता में उसकी वापसी हो गयी. बीजेपी ने यूपी चुनाव से पहले वहां के किसानों का कर्ज माफ करने का चुनाव दांव खेला और सत्ता पर काबिज हो गयी.



सबसे पहले बात करते हैं न्यूनतम समर्थन मूल्य की राजनीति की. 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान बीजेपी ने किसान यानि अन्नदाता की दुर्दशा का जमकर रोना रोया था. उसने अपने घोषणा पत्र में कहा था कि सत्ता में आने पर स्वामीनाथन कमेटी की सिफारेशें लागू कर दी जाएंगी.कमेटी ने किसानों को लागत से उपर पचास फीसद मुनाफा देने की बात कही गयी थी. 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार अपने हर चुनावी भाषण में किसान और जवान की बात करते थे. किसान को एमएसपी पर पचास फीसद का मुनाफा देना और जवान के लिए वन रैंक, वन पैंशन योजना लागू करना लेकिन सत्ता संभालने के साथ ही यह वायदा ताक पर रख दिया गया.



चुनावी वायदा पूरा नहीं करने के खिलाफ मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हल्फनामा दायर कर कहा कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य से पचास फीसद ज्यादा पैसा किसानों को नहीं दे सकती है. इस वादाखिलाफी को लेकर विपक्ष मोदी सरकार की खिंचाई करता रहा है. यह वायदा किसानों को तब याद आता है जब प्याज , आलू, टमाटर के उचित दाम नहीं मिलने पर उसे सड़कों पर फैंकना पड़ता है. जब खेत में खड़ी फसल को किसान खुद ही आग लगाने को मजबूर हो जाते हैं.जब दाल के दाम नहीं मिलने पर किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है.सत्ता पक्ष से जवाब नहीं मिलता तो किसान सड़क पर उतरता है.



एक सर्वे के अनुसार 1970 से लेकर 2015 के बीच गेहूं का एमएसपी सिर्फ 19 बार बढ़ा है जबकि इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह 120 से 150 गुना, कॉलेज शिक्षकों की तनख्वाह 150 से 170 गुना और स्कूल टीचर की तनख्वाह 280 से 320 गुना बढ़ी है.वैसे एमएसपी भी नाम के लिए रह गयी है. शांता कुमार समिति की रिपोर्ट भी कहती है कि एमएसपी से सिर्फ छह प्रतिशत किसानों को ही फायदा होता है. गेंहू हो या धान सरकारें अपने हिसाब से एमएसपी पर खरीद करती हैं. किसानों की जरुरतों को देखते हुए नहीं. न्यूनतम समर्थन मूल्य का भी जिस तरह से मजाक उड़ाया जाता है उसका ताजा उदाहरण महाराष्ट्र में तुअर दाल की खरीद है. वहां एमएसपी 5050 रुपये प्रति टन था लेकिन किसानों को 3500 में अपनी फसल बेचने को मजबूर होना पड़ा.



हैरत की बात है कि एक नेता का भी नाम आया जिसने किसानों से सस्ते दाम पर दाल खरीदी और अपने रसूख का इस्तेमाल कर सरकारी रेट पर दाल सरकार को बेचकर लाखों रुपये एक झटके से कमा लिए. मीडिया में ऐसी खबरें छपती रही जिसमें बताया गया कि कैसे व्यापारियों ने भी किसानों की मजबूरी का लाभ उठाकर उनसे तीन से साढ़े तीन हजार रुपए प्रति टन की दर से दाल खरीदी और सरकार को 5050 रुपये प्रति टन के हिसाब से बेच दी. उधर किसान मंडी के बाहर अपनी दाल लिए कई दिनों तक खड़े रहे लेकिन उनका नंबर ही नहीं आ पाया.



किसानों की माली हालत खराब है.खेती करना घाटे का सौदा होता जा रहा है.आम किसान की औसत सालाना आय 20 हजार रुपये हैं.करीब 53 फीसद किसान गरीबी की सीमा रेखा के नीचे आते हैं.ऐसे में जानकारों के अनुसार राज्य सरकारों के लिए उन सभी 24 जिंसों की खरीद करनी चाहिए जिसपर एमएसपी घोषित की जाती है.जानकारों के अनुसार राज्य सरकारों को किसान आमदनी आयोग का गठन करना चाहिए और हर महीने एक निश्चित राशि किसानों को देनी चाहिए जो 18 से 20 हजार रुपये के बीच हो सकती है.



अब बात करते हैं कर्ज माफी की राजनीति की.बैंक ऑफ अमेरिका की एक रिपोर्ट कहती है कि 2019 के आम चुनावों के समय राज्य सरकारें कुल मिलाकर दो लाख 57 हजार करोड़ रुपयों का किसानों की कर्ज माफ करने को मजबूर होंगी. कर्ज माफी की कहानी शुरु होती है 2008 में.तबकी मनमोहन सिंह सरकार ने 65 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ किया था. इससे तीन करोड़ लघु और सीमांत किसानों को फायदा हुआ था.कहा जाता है कि अगले साल हुए आम चुनावों में मनमोहनसिंह सरकार की वापसी के पीछे कर्ज माफी की योजना थी. इसके बाद के 9 सालों में छह राज्यों ने अपनी तरफ से किसानों के कर्ज माफ किये हैं, ताजा उदाहरण यूपी का है.



प्रधानमंत्री ने अपनी हर चुनावी रैली में कहा कि 11 मार्च को दोपहर तक नतीजे आ जाएंगे, बीजेपी भारी मतों से चुनाव जीत चुकी होगी और उसके बाद होने वाली मंत्रीमंडल की पहली बैठक में ही लघु और सीमांत किसानों के कर्ज माफ कर दिए जाएंगे.यूपी विधानसभा चुनावों के नतीजे आए.बीजेपी को बंपर जीत मिली. योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.करीब एक पखवाड़े बाद मंत्रिमंडल की बैठक हुई.उसमें 36 हजार 359 करोड़ रुपये का कर्ज माफी का एलान हुआ. दावा किया गया कि इससे 94 लाख लघु और सीमांत किसानों को लाभ होगा.इसमें सात लाख किसानों का 5630 करोड का कर्ज भी माफ कर दिया गया जिनका कर्ज बैंक डूबत खाते में डाल चुके थे. लेकिन हकीकत तो यह है कि आज भी यूपी के 94 लाख किसानों को कर्ज माफी की चिटठी मिलने का इंतजार है. यूपी सरकार ने बॉंन्ड जारी रखने का फैसला किया था लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि रिजर्व ने ऐसे बॉन्ड जारी करने की प्रकिया पर एतराज किया है.इसके बाद से ही योगी सरकार के मंत्री इस मुद्दे पर बगले झांकते फिर रहे हैं.



राजनीतिक दल और नेता किसानों को अन्नादाता कह कर पुकारते हैं लेकिन अन्नदाताओं को वोट बैंक के रुप में ही इस्तेमाल करते रहे हैं.पिछले कुछ समय से महाराष्ट्र के किसान सड़कों पर हैं. विपक्ष में रहते हुए देवेन्द्र फड़नवीस ने सोयाबीन और कपास का एसएसपी भी बढ़ाने की बात की थी लेकिन अब इस मुद्दे पर उनकी सरकार खामोश हैं. उल्टे अब उन्होंने किसानों की रिझाने के लिए 31 अक्टुबर तक तीस हजार करोड़ की कर्ज माफी का एलान किया है लेकिन किसानों के एक बड़े वर्ग को ऐसी घोषणाओं पर यकीन नहीं और वह आंदोलन जारी रखे हैं.



हाल में संपन्न हुए संसद के बजट सत्र के दौरान दिल्ली के जंतर मंतर पर कुछ इस तरह का नजारा था. तमिलनाडु के किसान अपने साथ आत्महत्या करने वाले किसानों के नर मुंड लेकर आए थे. इन किसानों से मिलने सत्ता पक्ष का एक भी बड़ा नेता नहीं गया था. दरअसल तमिननाडू में जयललिता सरकार ने पांच एकड़ से कम की जमीन रखने वाले करीब 17 लाख किसानों के 5780 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया था लेकिन इस छूट सीमा से बाहर रहे गये किसान आंदोलन पर उतर आए थे जो जंतर मंतर पर भी नजर आए थे.



आंन्ध्र प्रदेश की टीडीपी सरकार के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने पिछले लोकसभा चुनावों से पहले किसानों का डेढ़ लाख करोड़ का कर्ज माफ करने का वायदा किया था लेकिन अभी तक ये वायदा निभाया नहीं गया है. तेलंगाना में जरुर टीएसआर सरकार के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने अपना चुनावी वायदा निभाते हुए 17 हजार करोड़ रुपये के किसानों के कर्ज माफ किये हैं. वैसे कर्ज माफी समस्या का स्थाई समाधान नहीं है. 2008 में 65 हजार करोड़ की कर्ज माफी के बाद देश में एक लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं.



सच्चाई तो यह है कि किसान अपने उत्पाद की कीमत तय नहीं करता. जब साबुन से लेकर कार बनाने वाली कंपनियां साबुन और कार के दाम तय करती हैं तो किसान को यह छूट क्यों हासिल नहीं है. जब तक खेती लाभ का सौदा नहीं बनेगी , जब तक कि किसान को खेती से फायदा नहीं होगा तब तक हालात सुधरने वाले नहीं हैं.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)