उत्तराखंड की जनता ने देवभूमि में दोबारा भगवा लहराने का इतिहास रच दिया, तो खुद हारकर भी बीजेपी को जीत दिलाने वाले पुष्कर सिंह धामी पर  पुनः भरोसा करके पार्टी ने भी सियासी इतिहास की नई इबारत लिख दी. अपने आठ महीने के छोटे-से कार्यकाल में सत्ता विरोधी लहर को बीजेपी के पक्ष में करने और सबको साथ लेकर चलने की उनकी लो प्रोफ़ाइल शैली ने धामी को राजनीति का बाजीगर बना दिया. बीजेपी के इतिहास में शायद ये पहली बार हुआ है, जबकि पार्टी ने हारे हुए मुख्यमंत्री को ही दोबारा राज्य की कमान सौंपी है. जाहिर है कि संघ की मर्जी के बगैर संगठन ये फैसला नहीं ले सकता था, लिहाज़ा कहना गलत नहीं होगा कि धामी ने अपनी ईमानदार छवि और कामकाज के तरीके से संघ प्रमुख मोहन भागवत का विश्वास हासिल करने में भी सफलता पाई है.


धामी भले ही अपनी परंपरागत सीट खटीमा से चुनाव हार गए लेकिन उन्होंने पहाड़ के लोगों का दिल जीत लिया और बीजेपी को 47 सीटें दिलवाकर इस मिथक को तोड़ दिया कि यहां हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज है. आरएसएस की पृष्ठभूमि से राजनीति में आने वाले लोगों की एक बड़ी खूबी ये होती है कि वे हवा में उड़ने की बजाय जमीन से जुड़े रहकर बेहद लो प्रोफ़ाइल में अपने लक्ष्य को अंजाम देते हैं. धामी को अपने इसी अनुभव का फायदा मिला और जिस पहाड़ी राज्य में महज छह महीने के भीतर दो मुख्यमंत्री बदलने को लेकर बीजेपी के प्रति लोगों में जबरदस्त गुस्सा था,उसी हारी हुई बाजी को धामी ने जीत में पलटकर रख दिया.


यहां तक कि चुनावी नतीजे आने से पहले तक दिल्ली में बैठे पार्टी के बड़े नेता भी इस एकतरफ़ा जीत को लेकर उतने आश्वस्त नहीं थे. संगठन को लग रहा था कि दोबारा सता में वापसी के लिए जोड़तोड़ की राजनीति का सहारा लेना पड़ेगा क्योंकि अधिकांश एग्जिट पोल में बीजेपी और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर होने का अनुमान जताया गया था. यहां तक कि नतीजे आने से पहले पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल को ये जिम्मेदारी भी सौंप दी गई थी कि जरूरत पड़ने पर वे छोट दलों और निर्दलीय जीतने वाले विधायकों का समर्थन जुटाने की तैयारी रखें. लेकिन धामी ने ये नौबत ही नहीं आने दी.पिछले साल 4 जुलाई को जब तीरथ सिंह रावत को हटाकर बीजेपी ने धामी को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया था,तब उनके सामने चुनौतियों का पहाड़ था.पार्टी के भीतर की अंदरुनी कलह से निपटना था,तो बाहर लोगों के गुस्से को शांत करते हुए उन्हें बीजेपी के पक्ष में करने के लिए हर तरह का तरीका अपनाने पर जोर देना था.


चुनाव से 8 महीने पहले जब धामी को कमान मिली तब बीजेपी उत्तराखंड में दो मुख्यमंत्री बदलने के लिए आलोचना झेल रही थी. पूर्व सीएम तीरथ सिंह रावत के विवादास्पद बयान भी पार्टी के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे. ऐसे में धामी ने विवादित बयानों के पचड़े में पड़ने से न सिर्फ खुद को बचाये रखा बल्कि जनता के बीच बीजेपी सरकार के कामों को ज्यादा से ज्यादा पहुंचाने में कामयाबी भी हासिल की .युवा नेता होने के साथ ही अपनी साफ सुथरी छवि को पार्टी के पक्ष में भुनाने में भी वे सफल हुए.अक्सर किसी भी राज्य के चुनाव में सत्ता विरोधी लहर का फायदा विपक्ष को ही मिलता है लेकिन उत्तराखंड अकेली ऐसी मिसाल है,जहां धामी ने उस लहर की दिशा ही बदल डाली.


धामी की उम्र महज़ 46 साल है,लिहाज़ा मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने युवाओं पर खास फोकस रखते हुए पूरे राज्य में धुआंदार दौरे करके राज्य में अपनी अलग पहचान बना ली.देवभूमि के युवाओं के बीच बहुत जल्द लोकप्रियता हासिल करने में भी वे कामयाब हुए.सीएम बनते ही उन्होने कई बड़ी योजनाओं का एलान किया,जिसका फायदा भी बीजेपी को चुनाव में मिला. सीएम बनने के महीने भर बाद ही स्वतंत्रता दिवस पर धामी ने कई योजनाओं का ऐलान कर दिया. 10वीं-12वीं पास छात्रों को मुफ्त टैबलेट, खिलाड़ियों के लिए अलग से खेल नीति बनाने, जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने, पौड़ी और अल्मोड़ा को रेल लाइन से जोड़ने जैसी योजनाओं के ऐलान से आम लोगों के बीच इसका सकारात्मक असर पड़ा.


धामी की एक और बड़ी खूबी ये भी रही कि वे पुराने और युवा नेताओं के बीच तालमेल बनाने में सफल रहे.मुख्यमंत्री बनने के बाद भी धामी ने उत्तराखंड बीजेपी के पुराने और वरिष्ठ नेताओं का पूरा ख्याल रखा.अन्यथा सीएम की कुर्सी पर बैठते ही अहंकार इतना हावी हो जाता है कि व्यक्ति संगठन के पुराने,अनुभवी नेताओं की परवाह नहीं करता.लेकिन धामी ने सरकार का हर बड़ा फैसला लेने से पहले  तीरथ सिंह रावत, त्रिवेंद्र सिंह रावत और रमेश पोखरियाल निशंक जैसे पूर्व मुख्यमंत्रियों की सलाह अवश्य ली.पार्टी और सरकार के बीच तालमेल बनाने के लिए वरिष्ठ नेताओं से भी सुझाव मांगे,जिसका नतीजा ये हुआ कि वे पुरानी व नई पीढ़ी के बीच प्रभावी तालमेल बनाने में सफल हुए.


साल 2000 में उत्तराखंड का गठन होने के बाद से अब तक प्रदेश को 11 मुख्यमंत्री मिले हैं.भाजपा ने सात मुख्यमंत्री दिए हैं, तो कांग्रेस पार्टी ने प्रदेश को तीन मुख्यमंत्री दिए हैं.लेकिन खास बात यह है कि  कांग्रेस के पूर्व सीएम नारायण दत्त तिवारी को छोड़कर कोई भी मुख्यमंत्री पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया.धामी पहले ऐसे सीएम हैं,जिन्हें दोबारा ये कुर्सी नसीब हुई है.देखना ये है कि क्या वे पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा कर पाएंगे?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)