उत्तर प्रदेश की सरकार ने प्रदेश में हलाल सर्टिफिकेट वाले उत्पादों को प्रतिबंधित कर दिया है. यह पूरा मामला एक एफआईआर से शुरू हुआ, जिसमें शिकायतकर्ता ने कहा कि इस सर्टिफिकेशन के जरिए समाज को न केवल बांटा जा रहा है, बल्कि इस पैसे के गलत इस्तेमाल का भी अंदेशा है. सरकार के बैन करने के बाद से यह पूरा मामला तूल पकड़ता जा रहा है, जहां एक बार फिर से बात मजहब के इर्द-गिर्द होने लगी है. बात इस पर भी हो रही है कि मांस के अलावा तेल, चावल जैसे उत्पादों को हलाल कहना कितने हद तक जायज है और यह कितना संवैधानिक है?

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अब मांस के अलावा भी बहुत कुछ हलाल

ये भारत देश है, जहां 140 करोड़ लोग एक साथ रहते हैं. ये लोग अलग-अलग पंथों और मजहबों को मानते हैं, जिनको बराबर का अधिकार है. जब हलाल की बात आती है, तो देखना होगा कि इसका मूल कहां है, उद्गम क्या है? कुरान और इस्लाम की व्याख्या करनेवाले कहते हैं कि हलाल का मतलब 'स्वीकार्य' है, जो 'एक्सेप्टेड है.' पहले जब यह बहस होती थी तो कहा जाता था कि जानवरों को मार कर खाने का जो एक खास तरीका है, वह हलाल होता है. जैसे, जानवर की गरदन धीरे-धीरे रेत कर जब आप कुरानिक टेक्स्ट या कलमा पढ़ेंगे, तभी वह एक्सेप्टेबल होगा, तभी वह खाने लायक होगा. दूसरे धर्मों के पास उसी की तुलना में देखें तो यहूदियों के पास 'कोशर' मांस है, तो हिंदू और सिख समुदाय 'झटका' मांस प्रेफर करते हैं. 

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यह पहले केवल नॉन-वेज की बात होती थी. हालिया दिनों में, न केवल नॉन-वेज, बल्कि वैसी चीजें भी जिनका इनसे या जानवरों की हत्या से कोई संबंध नहीं है, जैसे आटा, चावल, तेल यहां तक कि वैक्सीन भी में 'हलाल' की बात हो रही है. अब समस्या ये है कि क्या कोई ऐसी सेंट्रल एजेंसी है, जो यह सर्टिफिकेट देती है. जवाब होगा-नहीं. पूरे देश में कुकुरमुत्तों की तरह इतने समूह उग आए हैं, जो हलाल का सर्टिफिकेट बांटते रहते हैं, उसको बेचते हैं. दिक्कत ये है कि जैसे ही आप हलाल लिखते हैं, वैसे ही आप यह कह देते हैं कि यह इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक एक्सेप्टेड है. अब भारत जो एक सेकुलर देश है, जहां सेंट्र्ल फूड अथॉरिटी है, जो सामानों को सर्टिफिकेट देता है, तो वहां अगर आप हलाल सर्टिफिकेट देते हैं, तो एक तो आप डिविजन कर रहे हैं, दूजे फूड अथॉरिटी ऑफ इंडिया, जिसकी हरेक राज्य में शाखा है, उसे भी कमतर आंक रहे हैं. इसको लीगल कैसे कहा जा सकता है? 

नहीं है हलाल बनानेवाली कोई केंद्रीय एजेंसी

समझने की बात यह है कि हलाल सर्टिफिकेट दिक्कतें कहां ला रही हैं? जैसे, आप नॉन-वेज की बात लें. तो, जो बड़ी संस्थाएं हैं जैसे केएफसी, डॉमिनोज, मैकडॉनल्ड्स इत्यादि, जिसमें नॉन-वेज का प्रयोग होता है, वे भी अपने प्रोडक्ट्स में लिखना शुरू कर चुके हैं- हलाल सर्टिफाइड. ये जैसे ही आप लिखते हैं, तो यह तय हो जाता है कि उन जानवरों को मारने में इस्लामिक तरीका इस्तेमाल हुआ है, कुरानिक वर्स पढ़े गए हैं और ऐसा करनेवाले मुसलमान ही हो सकते हैं. यानी, आपने उस सर्टिफिकेट के जरिए ऐसा माहौल तैयार कर दिया कि केवल 14 फीसदी को ही आपने बना दिया, व्यापार करने लायक, बाकी को आपने अलग छांट दिया, एक्सक्लूड कर दिया. यह आपके राइट टू लिव, राइट टू बिजनेस, राइट टू इक्वलिटी जैसे आर्टिकल 14 से 19 तक जो मौलिक अधिकार हैं, उनके खिलाफ है, इसलिए स्टेट को बीच में आना पड़ता है, वरना सर्टिफिकेट तो लोग बांटते ही रहते हैं. दूसरी दिक्कत ये है कि यह अब नॉन-वेज से आगे बढ़कर दवाइयों, तेल और आटा-दाल में भी ये आ रहा है. यह तो मैन-पावर दिखाने की बात है.

एक तरह से आपने माना है कि यह इस्लाम के आधार पर एक्सेप्टेबल है, तो उससे नुकसान ये है कि जिसने भी वो पूरा प्रॉसेस नहीं अपनाया, कुरानिक वर्स नहीं पढ़े, उसका माल फिर नहीं बिकेगा. एक बार फिर से यह विभेदकारी बात हो गयी. भारत जैसा सेकुलर राष्ट्र, जहां 80 फीसदी हिंदू हैं, वहां इस तरह का जजिया कानून नहीं लग सकता. शायद मुगलों के समय में यह संभव हो. अभी उत्तर प्रदेश सरकार ने जो किया है, वह नया नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में कई बार इस तरह की याचिकाएं आयी हैं, जिनमें इस मुद्दे को उठाया गया है और कोर्ट ने कहा है कि इस तरह के छोटे-छोटे संगठन जो पैसा लेकर सर्टिफिकेट देते हैं, वे भारत सरकार और फूड अथॉरिटी ऑफ इंडिया को ही कमतर करते हैं. यूपी के इस कदम को सभी राज्यों में अपनाना चाहिए. किसी भी निजी संस्थान या मस्जिद को यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए कि कौन सा प्रोडक्ट बेचा जा सकता है या नहीं, यह तो बैन करने लायक ही बात है. 

सरकार का काम नहीं हलाल बनाना

अगर आप बड़े-बड़े देशों में जाएं, चाहे पूरब हो या पश्चिम हो, कहीं भी इस तरह की एजेंसी नहीं है, जो कहे कि इसी तरह का खाना हलाल है, या यही उत्पाद हलाल है. जैसे ही आपने हलाल का हवाला दिया, तो आप 80 या 90 फीसदी लोगों के साथ तो आप भेद करते हैं न. आप हलाल देते हैं, तो साथ में झटका का भी विकल्प दीजिए फिर. जहां तक एक सेंट्रल एजेंसी बनाने की बात है, तो किसी जानवर को आप काटेंगे कैसे, इस तरीके का अंतर तो आप पैदा कर सकते हैं, लेकिन आटा, तेल, वैक्सीन वगैरह में यह अंतर क्या और कैसे होगा? सब्जियां हलाल कैसे होंगी और नहीं होंगी, ये तो बहुत ही अजीब सी बात है.

अगर आप केंद्रीय एजेंसी बना भी देंगे, तो उसका कोई मतलब नहीं रहेगा. एक गलती वक्फ बोर्ड बनाकर हो चुकी है. अभी जैसे वह अपना एक पैरलल लीगल तंत्र बना चुका है, उसी तरह अगर फूड अथॉरिटी ऑफ इंडिया वैसा ही कोई काम करती है, तो फिर इसके भी बहुत दिनों बाद एक समानांतर व्यवस्था बनने का खतरा रहेगा. हां, आप नॉन-वेज में यह ऑप्शन जरूर दें, बशर्ते आप वहीं पर झटका भी उपलब्ध करवाएं. अलग से केंद्र को शायद इस पर कानून बनाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि कानून तो पहले से मौजूद है. हां, कार्यान्वयन पर जोर देने की जरूरत है, यह मान सकते हैं.  

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.