चुनाव उत्तर प्रदेश का है, लेकिन ये सिर्फ एक प्रदेश का चुनाव नहीं. देश के सबसे बड़े सूबे के चुनावी नतीजों का असर लोकसभा चुनावों में भी पड़ना तय है. ऐसा सिर्फ विश्लेषक नहीं, बल्कि देश और प्रदेश की सत्ता में विराजमान बीजेपी खुद ही मान रही है. यूपी के नतीजे देश की सियासी दशा-दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाएंगे. इस कड़ी में बीजेपी के सामने गैर कांग्रेस तीसरे मोर्चे की झलक भी स्पष्ट रूप से दिखने लगेगी. चुनावी नतीजे इस तीसरे मोर्चे के रूप और भविष्य को तय कर देंगे. राज की बात ये है कि भले ही यूपी में बीजेपी के खिलाफ चुनाव अखिलेश लड़ रहे हों, लेकिन दूसरे राज्यों के बड़े छत्रप भी देश के सबसे बड़े सूबे में पूरी रुचि बनाए हुए हैं.


मोदी-शाह की जोड़ी का तिलस्म तोड़ने के लिए स्थानीय छत्रपों ने राज्यों से बीजेपी को घेरने की रणनीति बनाई है. पश्चिम बंगाल में जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस ने ये किया, उसके बाद हौसला और बढ़ा है. उस समय तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी के साथ-साथ मराठा छत्रप एनसपी सुप्रीमो शरद पवार लगातार उनके साथ खड़े रहे. अब यूपी में भी शरद पवार और ममता की वो जोड़ी जिसने अपने-अपने राज्यों में बीजेपी को पटखनी दी, वह अखिलेश के पीछे खुलकर खड़ी हो गई है.


राज की बात में हमने पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद ही आपको बताया था कि ममता बनर्जी ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का हर तरह से समर्थन करने का वादा किया है. इस कड़ी में वह अखिलेश के समर्थन में खुलकर चुनाव प्रचार भी यूपी में करेंगी. खास बात ये है कि ममता बनर्जी यहां पर सीटों की कोई अनिवार्य शर्त भी नहीं रखने जा रही हैं. हालांकि, प्रतीकात्मक तौर पर एक सीट पर समझौता भी हो सकता है. अलबत्ता एनसीपी यानी राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ अखिलेश दो सीटों तक समझौता कर सकते हैं. ये समझौता वास्तव में नतीजों पर भले ही फर्क न डाले, लेकिन उद्देश्य 2022 के बाद 2024 के लोकसभा चुनावों का है.


राज की बात ये है कि पहले शरद पवार की पार्टी के नेता नवाब मलिक ने विपक्षी मोर्चे में कांग्रेस के भी रहने की बात की थी. इससे माना जा रहा था कि पवार भी चाहते हैं कि विपक्ष का जो भी स्वरूप बने, उसमें कांग्रेस भी हो. हालांकि, महाराष्ट्र में एनसपी ने शिवसेना और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनवाई है. ऐसे में कांग्रेस के लिए एक तरह से एनसीपी की तरफ से आए इस बयान से एक राहत की बात थी. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को लग रहा था कि सबसे बड़ा राष्ट्रीय दल होने के नाते वह केंद्र में रहेंगे और मोदी विरोधी मोर्चा तैयार होगा.


कांग्रेस के इस गुमान को प्रत्यक्ष तौर पर सबसे बड़ा झटका सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने ही दिया. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की भरसक कोशिशों के बावजूद अखिलेश ने कांग्रेस का हाथ नहीं थामा. दबाव की तमाम कोशिशें भी नाकाम गईं और झल्लाई प्रियंका ने अखिलेश पर प्रहार भी किए, लेकिन सपा अध्यक्ष टस से मस नहीं हुए और बिना कांग्रेस के ही यूपी के समर में छोटे दलों के साथ डटे हैं. जयंत चौधरी की रालोद, ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव पार्टी समेत अब चाचा शिवपाल यादव की प्रसपा से भी समझौते की बात लगभग तय मानी जा रही है.


राज की बात ये है कि क्षेत्रीय दलों ने देश की सियासत का मिजाज भांपते हुए फिलहाल कांग्रेस से रणनीतिक तौर पर किनारा कर लिया है. मतलब ये कि कांग्रेस जो अपने आप में मानकर चल रही थी कि एंटी मोदी न्यूक्लियस में वह केंद्र में रहेगी, उसे छत्रप बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं. इसीलिए, पहले तृणमूल ने कांग्रेस को जगह-जगह तोड़ना शुरू किया. एनसीपी ने इस पर मौन धारण कर लिया. एनसीपी और तृणमूल के खास प्रशांत किशोर पीके जो कुछ दिनों पहले तक कांग्रेस के खेवनहार बनने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने भी कांग्रेस पर सीधा प्रहार कर विपक्ष का मुख्य चेहरा बनने की उसकी कोशिशों को पलीता लगा दिया.


खास बात ये है कि एनसीपी, तृणमूल ही नहीं, बल्कि तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला रही डीएमके यानी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने भी पीके के सुर में सुर मिलाया. उन्होंने भी कहा कि कांग्रेस ही विपक्ष की अगुवाई करे ये जरूरी नहीं. जाहिर है कि स्थानीय छत्रप अपने स्तर पर एक बार फिर तीसरे मोर्चे की कोशिशों को धार देने लग गए हैं. हालांकि, ये कोशिशें तभी परवान चढ़ सकती हैं, जबकि यूपी में कोई चमत्कार हो और बीजेपी सत्ता में न आ पाए.


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