महाराष्‍ट्र में 2019 विधानसभा चुनाव बीजेपी और शिवसेना ने साथ मिलकर लड़ा. चुनाव नतीजे आए- बीजेपी को 105 और शिवसेना को 55 सीटों पर जीत मिली. सरकार बनाने का समय आया तो उद्धव ठाकरे की ओर से ढाई-ढाई साल दोनों पार्टियों का सीएम बनाए जाने की मांग रख दी. उद्धव ठाकरे ने दावा किया कि अमित शाह ने उनके साथ बाल ठाकरे के कमरे में हुई मुलाकात के दौरान 50-50 यानी ढाई-ढाई साल दोनों दलों का सीएम बनाए जाने पर हामी भरी थी. दूसरी तरफ अमित शाह ने ऐसे किसी वादे से साफ इनकार किया. 


अमित शाह और उद्धव ठाकरे में किसने सच बोला और किसने झूठ? यह बात तो सही-सही इन दोनों को ही पता है पर एक बात जो पूरी दुनिया ने देखी वो थी- उद्धव और अमित शाह की अदावत. एक तरफ अमित शाह ने शिवसेना को सबक सिखाने और धोखा देने की सजा... जैसी बातें कहीं तो दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे ने पिता बाल ठाकरे की सियासत को 360 डिग्री घुमाकर शिवसेना के कट्टर सियासी दुश्‍मन शरद पवार से हाथ मिला लिया. इस तरह महाराष्‍ट्र में महाविकास अघाड़ी का जन्‍म हुआ और उद्धव ठाकरे महाराष्‍ट्र के सीएम बने.    


उद्धव को सीएम की कुर्सी पर बैठा देख बीजेपी से बर्दाश्त तो नहीं किया जा रहा था. सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी वह सत्‍ता से बाहर थी और जिस सहयोगी दल के साथ बीजेपी ने चुनाव लड़ा, उसने विरोधी खेमे से हाथ मिलाकर उसे जोर का झटका दे दिया था. अब झटका देने की बारी बीजेपी की थी. एनसीपी-कांग्रेस-शिवसेना गठबंधन की सरकार थोड़ी बहुत खटपट के साथ रही. लेकिन तूफान कहीं महाविकास अघाड़ी नहीं बल्कि खुद शिवसेना के अंदर ही उठ रहा था. बीजेपी को शिवसेना का तुरुप का इक्‍का मिल चुका था. सही मौका पाते ही बगावत का बिगुज बजा और एकनाथ शिंदे के नेतृत्‍व में शिवसेना दो हिस्‍सों में टूट गई.               


उद्धव ठाकरे ने सीएम पद से इस्‍तीफा दिया और एकनाथ शिंदे बीजेपी के समर्थन से महाराष्‍ट्र के सीएम बने. इसके बाद असली शिवसेना कौन, तीर का निशान किसका समेत कई कानूनी पचड़े सामने आए और अब तीर का निशान एकनाथ शिंदे खेमे को सौंप दिया गया. अब उद्धव सुप्रीम कोर्ट जा रहे हैं. यहां सबसे अहम अब एक ही सवाल बचता है- उद्धव ठाकरे ने जो तीर का निशान खो दिया उसका मतलब आखिर है क्‍या? उद्धव गुट के पास अब विकल्‍प क्‍या बचता है? तीर का निशान तो गया, पार्टी भी टूटकर बिखर गई, पार्टी की पहचान यानी हिंदुत्‍व... यह तो अब बीजेपी की पहचान है. तो बाल ठाकरे के बिरासत के नाम पर उद्धव ठाकरे के पास क्‍या अब सिर्फ मातोश्री ही बचा है? ऐसे उद्धव के पास अब क्‍या विकल्‍प हैं? वह अब कौन सी सियासी नैया पर बैठकर भंवर से निकलेंगे?                    


उद्धव ठाकरे के पास अब कितने सांसद?  


2019 लोकसभा चुनाव में शिवसेना के टिकट पर 18 सांसद जीते, जबकि बीजेपी को 23 सीटों पर जीत प्राप्‍त हुई. मौजूदा वक्‍त में उद्धव गुट ने छह सांसदों के समर्थन का दावा किया, लेकिन चुनाव आयोग के दस्‍तावेजों में यह संख्‍या केवल चार ही है. ऐसे में दो सांसद कहां हैं, यह सवाल बना हुआ है? उधर एकनाथ शिंदे गुट के पास 13 सांसद हैं. उद्धव ठाकरे गुट के पास इस समय 15 विधायक हैं, जबकि विधान परिषद में उसके पास पूरे के पूरे 12 विधायक हैं. 2019 विधानसभा चुनाव में शिवसेना के 55 विधायक जीतकर आए थे उनमें से 40 शिंदे गुट के साथ हैं.        


अब पार्टी का सिंबल, विधायक और कई सांसद खो चुके उद्धव ठाकरे के पास विकल्‍प क्‍या हैं? पहले जानते हैं उद्धव ठाकरे की समस्‍या क्‍या है:  


2004 के बाद बाल ठाकरे से कमान राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के हाथों में आई. इससे पहले शिवसेना और बीजेपी के बीच सीटों का अंतर 7 से 10 रहता था. मतलब शिवसेना इतनी सीटों पर बीजेपी की तुलना ज्‍यादा जीतती रही. लेकिन 2009 से महाराष्‍ट्र में बीजेपी पहले शिवसेना की बराबरी पर आई और 2014, 2019 में तो वह शिवसेना से दोगुनी सीटों पर जीती. 2014 में बीजेपी 122 जीती तो शिवसेना 63 पर रही. इसी तरह 2019 में बीजेपी 105 और शिवसेना 56 पर रही. देखा जाए तो शिवसेना की सीटें ज्‍यादा नहीं गिरीं, 1990 से 2019 तक शिवसेना 45 से 73 के बीच ही सीटें जीतती रही है. शिवसेना ने सबसे ज्‍यादा 73 सीटें 1995 में जीतीं. बाल ठाकरे की उम्र बढ़ने के साथ, उद्धव के पास कमान आने के बाद और राज ठाकरे के जाने के बाद बीजेपी ने हिंदुत्‍व की पिच पर ब्रैंड मोदी के सहारे उस विस्‍तार को प्राप्‍त कर लिया, जिसकी ख्‍वाहिश शिवसेना देखा करती थी. 


2009 के बाद से सीटों के मामले में पिछड़ती चली गई शिवसेना  


2009 के बाद देखते ही देखते शिवसेना बड़े भाई से छोटे भाई की भूमिका में आ गई. यही बात उद्धव को कचोटती रही और इसी के परिणामस्‍वरूप 2019 में बराबरी की बात हुई. सीटें बीजेपी से 50 प्रतिशत कम थीं तो सियासत का तकाजा बिल्‍कुल साफ था. बराबरी का हक नहीं मिला और उद्धव ठाकरे ने शरद पवार यानी विपरीत विचारधारा के साथ जाने का निर्णय ले लिया. ये गलती और भारी पड़ी, विपरीत विचारधारा के नाम शिवसेना टूट गई और शिंदे 40 विधायकों को हिंदुत्‍व के नाम ले उड़े. हिंदुत्‍व ही शिवसेना का कोर था, बाल ठाकरे के जमाने में शिवसेना का हिंदुत्‍व बीजेपी के हिंदुत्‍व से अग्रेसिव था. लेकिन उद्धव ने उसी हिंदुत्‍व के विचार से तब समझौता किया जब मोदी के जमाने में हिंदुत्‍व सियासत का सबसे सफल फॉर्मूला बन चुका था. उद्धव को इसकी कीमत कई तरह से चुकानी पड़ी.   


अब उद्धव के पास क्‍या हैं विकल्‍प?  


अब उद्धव ठाकरे क्‍या करेंगे? पार्टी टूट चुकी है, शिवसेना का सिंबल तीर का निशान भी चला गया. हालांकि उद्धव ठाकरे अब भी कह रहे हैं हमने हिंदुत्‍व नहीं छोड़ा है, लेकिन इस बात में दम कितना है? क्‍या मोदी के हिंदुत्‍व के सामने सेक्‍युलर पार्टियों के साथ गठजोड़ करके सीएम बनने वाला हिंदुत्‍व टिक पाएगा? क्‍या उद्धव वाकई हिंदुत्‍व के विचार को बचाकर रखने की हालत में हैं? एक नजर में तो यह संभव नहीं लगता, उद्धव का हिंदुत्‍व अब सिर्फ फेस सेविंग के लिए ही बचा है? तो उद्धव के पास अब बचा क्‍या है? उद्धव की शिवसेना का विचार जमीनी स्‍तर पर क्‍या होगा? क्‍या वह बाल ठाकरे की तैयार की गई जमीन खोने के बाद ऐसी स्थिति में हैं कि नए जमाने के हिसाब से नया विचार गढ़ सकें और पार्टी में नई जान फूंककर कम से कम मातोश्री का कद ही बचा लें? जवाब बड़ा मुश्किल है, हिंदुत्‍व की उद्धव ठाकरे ने इतिश्री कर डाली और सेक्‍युलर इनको अब कोई मानेगा नहीं? 


24 में जनता बताएगी बाल ठाकरे का असली सियासी बारिस कौन 


असल में अब उद्धव ठाकरे के पास एक ही विकल्‍प सहानुभूति की लहर और हिंदुत्‍व के हाई-वे पर बेहद तेज रफ्तार, जो कि आज के सियासी हालात में बड़ा मुश्किल नजर आता है. वैसे राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं, पर एक बात तय है कि यहां आसानी से कुछ मिलना भी आसान नहीं है. उद्धव ठाकरे के सामने चुनौती बेहद कठिन है, अब यह तो वक्‍त बताएगा कि उद्धव ठाकरे और अमित शाह की ये अदावत कौन सा नया मोड़ लेती है. इंतजार 24 के चुनाव का है, जिनमें जनता एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे में से किसी एक चुनकर यह बताएगी कि बाल ठाकरे की सियासत का असली तीरअंदाज कौन है, उनका बेटा या उनका शिष्‍य?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)