प्रधानमंत्री मोदी ने मंगलवार 27 जून को भोपाल में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए बड़ा बयान दिया है. यह बयान समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर उन्होंने दिया और कहा कि जब परिवार में दो भाइयों के लिए अलग कानून नहीं हो सकते हैं, तो देश में अलग कानून कैसे हो सकते हैं? इसके बाद विपक्षी नेताओं ने पीएम मोदी पर हमला बोला. एआईएमआईएम (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहाद-मुसलमीन) चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि पीएम मोदी ओबामा की नसीहत ठीक से समझ नहीं पाए हैं और उन्होंने तीन तलाक, पसमांदा मुसलमान और यूसीसी का जिक्र किया है. इसके तुरंत बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपनी आपातकालीन बैठक बुलाई और अब वे विधि आयोग से संपर्क करेंगे. देश में यूसीसी के पक्ष और विपक्ष में बहसें होने लगी हैं, मुद्दा गरम हो चुका है. 


यह मसला नागरिक समाज का


पीएम नरेंद्र मोदी ने जो सवाल किया है कि इस देश में दो कानून कैसे चल सकता है तो सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इस देश में रहनेवाले जो लोग हैं, उनके घरों में आज से नहीं सदियों से दो कानून चलता आया है. उदाहरण के लिए, भारत को गांवों का देश कहा जाता है, जहां आप अगर घर में देखिएगा तो दो कानून ऐसे चलता है कि अगर दो या तीन बेटे हैं तो किसी को कुछ खाने में पसंद होता है, किसी को कुछ और. मांएं अपने बच्चों के टेस्ट के मुताबिक खाना बनाती है. गांवों में अगर कोई औरत कम अवस्था में विधवा हो जाती है, तो उसके खाने को थोड़ा अलग कर देते हैं. थोड़ा सात्विक बना देते हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड तो नागरिक समाज का है और इसीलिए इसको सिविल (नागरिक) कहते भी हैं.



बाकी, क्रिमिनल लॉ तो पूरे देश में एक ही है. जहां तक इसका सवाल है, तो संविधान का आर्टिकल 25 हरेक धर्म को उसके मुताबिक रहने का अधिकार देता है और जो अनुच्छेद 19 है, उसके मुताबिक अलग-अलग और विविध जो संस्कृतियां हैं, उनको वैसे ही रहने का अधिकार भी देता है. 2016 में नागालैंड के ट्राइबल समाज ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाकर प्रोटेक्शन मांगा था कि उसकी जो प्रथाएं और संस्कृति पर जो खतरा है, यूनिफॉर्म सिविल कोड के लागू होने से, उसको बचाया जाए. 



क्रिमिनल लॉ भी बिल्कुल यूनिफॉर्म नहीं 


इस देश में कई समूह हैं. हिंदू हैं, मुस्लिम हैं और भी दीगर समुदाय हैं. उनके अपने सिविल लॉ हैं, रिवाज हैं. वैसे, तो सीआरपीसी या आइपीसी, जो क्रिमिनल लॉ है, वो भी पूरे देश में एक ही कानून फॉलो नहीं करता है. जैसे, एंटिसिपेटरी बेल के अलग-अलग प्रावधान हैं अलग राज्यों में. सिविल कानूनों को लेकर तो कई सारे मसले हैं. अभी जैसे मुस्लिमों में ट्रिपल तलाक है, उत्तराधिकार है, संपत्ति का अधिकार है. अब तीन तलाक को खत्म कर दिया, वह तो ठीक है. वह शरीयत या कुरान में भी नहीं था, बाद का विकास था. हालांकि, तलाक को क्रिमिनल बनाना भी पहली बार हुआ है. तलाक देने पर कोई मुस्लिम जेल जा सकता है, लेकिन किसी और समुदाय का व्यक्ति नहीं. वह जेल अगर चला जाएगा तो अपनी पूर्व पत्नी को कैसे देगा, गुजारा भत्ता? ऐसे बहुतेरे मसले हैं, जिन पर विचार किया चाहिए. अब जैसे उत्तराखंड है. वह यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करनेवाला पहला राज्य बनने को तैयार है.


हालांकि, दूसरे राज्यों में तो अलग कानून है. जैसे, गोआ सिविल कोड इस बात की हिंदू पुरुषों को आजादी देता है कि अगर उनकी पत्नी 30 साल की उम्र तक मां नहीं बनीं तो वह दूसरी शादी कर सकता है. अब मान लीजिए कि गोआ के मूल निवासी किसी पुरुष ने उत्तराखंड में दूसरी शादी कर ली, तो फिर उस पुरुष पर कहां का कानून चलेगा? गोआ तो उसके काम को अपराध मानता ही नहीं. इसी तरह बहुतेरे मसले हैं, जैसे नागालैंड के राष्ट्रीय आदिवासी एकता परिषद ने जो सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी थी कि उनके रीति-रिवाज और संस्कृति को यूसीसी से बचाया जाए, ऐसे कई मामले उठ जाएंगे. 


अलग संस्कृति, रिवाज और प्रथाओं का है देश 


अब आप दक्षिण भारत के ही राज्यों को ले लीजिए. जैसे, तमिलनाडु, केरल या आंध्र प्रदेश वगैरह की बात लें तो वहां हिंदुओं में फर्स्ट कजिन या फिर खुद मामा-भांजी में ही शादी होती है. इसको आप यूनिफॉर्म सिविल कोड में अगर यह आपराधिक हो गया, तो फिर दक्षिण में नया बखेड़ा खड़ा होगा. यह हमारी पर्सनल जानकारी में है, खुद देखी हुई बात है. जब मैं नॉर्थ एवेन्यू में रहता था, तो टीडीपी के एक एमपी वहीं रहते थे. नीचे उनके भाई की फैमिली रहती थी. मेरी मां शाम में टहल रही थी, तो बातचीत भी हो जाती थी. तो, मां ने उनको कहा कि आपके यहां तो मामा-भांजी में शादी होती है, तो करवा दीजिए. इस पर उन्होंने कहा कि उनके भाई बहुत पैसे वाले हैं, वे नहीं करेंगे. तो, उन्होंने बहुत आम तरीके से लिया, जैसे मुस्लिमों में फर्स्ट कजिन में शादी आम बात है.


यूनिफॉर्म सिविल कोड में इसको छोड़ दिया जाएगा या इस पर क्या करेंगे? यूसीसी का विरोध मुस्लिम कम्युनिटी के बीच से हो सकता है और यह बात शाहबानो मामले के बाद की है, यानी 1985 ईस्वी की. तब 71-71 साल की बूढ़ी औरत थीं शाहबानो और उन्होंने गुजारा भत्ता मांगा था. उनके पति ने 1978 में पांच बच्चों की मां इस 65 वर्षीया बूढ़ी को उसकी मर्जी के खिलाफ तलाक दे दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने जब इस पर शाहबानो के हक में फैसला दिया तो पूरे देश में मुसलमानों ने सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया. फिर, सरकार ने संसद में प्रस्ताव पारित कर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलट दिया.


विरोध तो होगा, फायदा भी मोदी को होगा


यूसीसी के बाद जैसा असदुद्दीन ओवैसी और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लोगों के बयान आए हैं, तो जाहिर है कि वे विरोध करेंगे, इसके अलावा साउथ के हिंदू या गोआ सिविल कोड वाले हिंदू या नागालैंड के आदिवासी, ऐसे जितने समूह हैं वे भी विरोध करेंगे. जाहिर है कि प्रोटेस्ट होगा, तो, बेहतर है कि इसको राजनीति का औजार न बनाया जाए. मामला तो वही है कि 2024 का चुनाव है, तो सरकार इसको लागू करना चाहेगी. ध्रुवीकरण भी होगा और वह लगभग हो चुका है. बीजेपी के साथ और विरोध में 20-25 फीसदी वोट तो तैयार हो चुका है. तो, यह एक समर्पित वोट बैंक है. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने के बाद और तेज ध्रुवीकरण होगा. उसका फायदा नरेंद्र मोदी और बीजेपी को मिलने के साथ ही विपक्ष को भी मिलेगा. विपक्ष अगर एक हो जाता है, जो पटना में मीटिंग हुई, तो उसका फायदा वह भी उठाएगी. यह एक तरह का मैंडेट भी होगा कि जनता यूसीसी के पक्ष में है या विपक्ष में. 


बेशक, यह 2024 के चुनाव का एक लिटमस टेस्ट होगा. पीएम मोदी का जिस तरह का बयान आ रहा है, वह बताता है कि सरकार ने इसे लागू करने का मन बना लिया है. लॉ कमीशन ने जिस तरह स्टेकहोल्डर्स से राय मांगी है, भारतीय नागरिक यानी आम जनता भी उनमें से एक है. सरकार अगर अध्यादेश ले आती है या बिल पेश करती है, तो बुनियादी मुद्दों से ध्यान हट सकता है, तो सरकार इसका पॉलिटिकल टूल के तौर पर इस्तेमाल कर सकती है. इसका राजनीतिक कारण ही होगा, कोई जेनुइन सामाजिक कारण नहीं होगा, क्योंकि इस देश में 70 वर्षों से पर्सनल लॉ भी है, और यह केवल मुस्लिमों के लिए नहीं है, आदिवासियों के लिए भी है, और संविधान ने यह व्यवस्था दी है कि वे अपने कल्चर को बचा सकें.


पहाड़ पर रहनेवाली बुद्धिस्ट कौम जो है, वह नेपाल तक में है. यूसीसी काफी दूर तक असर डालेगा और यह पैंडोरा बॉक्स खोलने जैसा होगा. सरकार को ध्यान देना चाहिए कि 70 वर्षों तक जिस बात पर बवाल नहीं हुआ, उसको छेड़ने की जरूरत नहीं है. मुद्दा ये है कि अब इस पर बात जितनी अधिक होगी, उतने मसले उठेंगे. जैसे, हिंदू कोड बिल, गोआ पर बात होगी, साउथ में फर्स्ट कजिन में हिंदुओं में शादी होती है, मामा-भांजी में शादी होती है, तो यह तो कल्चर की बात है. दक्षिण वाले हों या मुस्लिम हों, गोरखा हों या पहाड़ी हिंदू हों, वे सभी इस देश से उतना ही प्यार करते हैं, फिर उनके कल्चर को छेड़ने की तो जरूरत ही नहीं है. अब पहाड़ी हिंदू जो हैं, वे सूरज की रोशनी में शादी करते हैं, लेकिन नॉर्थ में देखिए तो शादियां रात में ही होती हैं. 


सिविल कोड को लेकर अगर आप मुसलमानों को सवालों के घेरे में खड़ा कर रहे हैं, तो समझना चाहिए कि यह धर्म की बात नहीं है, कल्चर की बात है. संविधान ने ही आजादी दी है कि विविध संस्कृतियों को सुरक्षित रखा जाए. यूसीसी के मार्फत तो आप वही कह रहे हैं कि इस बाग में बस एक ही तरह के फूल खिलेंगे. 



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