भारत समेत दुनिया के कई देशों में विवादास्पद हो चुके दार्शनिक ओशो ने भूकंप के बारे में एक दिलचस्प किस्सा बखान किया है.  उन्होंने अपने एक प्रवचन में कहा था कि एक जर्मन विचारक हेरिगेल ने अपना संस्मरण लिखा है कि वह एक झेन-गुरु के पास वर्षों तक रहा.  जापान के एक तीन मंजिल मकान में, तीसरी मंजिल पर उसकी विदाई समारोह का आयोजन किया गया था. चूंकि हेरिगेल वापस अपने देश लौट रहा था, सो उसके बहुत मित्र, साथी, परिचित, सहयात्री, गुरु के अन्य शिष्य, जिन सबसे वह निकट हो गया था, सभी बुलाये गये थे.  गुरु को भी उसने आमंत्रित किया था. 


लेकिन संयोग की बात ! जब भोजन चल रहा था, तभी अचानक भूकंप आ गया.  जापान में भूकंप आना आसान है.  लकड़ी का मकान भयानक रूप से कंपने लगा.  किसी भी क्षण गिरा. . . गिरा.  लोग भागे.  हेरिगेल भी भागा और सीढ़ियों पर भीड़ हो गई.  उसे खयाल आया गुरु का.  उसने लौट कर देखा कि गुरु तो आंख बंद किए अपनी जगह पर बैठा है. हेरिगेल का एक मन तो हुआ कि भाग जाये और एक मन हुआ कि गुरु को निमंत्रित किया है मैंने, मैं ही उन्हें छोड़कर भाग जाऊं, ये शोभायुक्त नहीं.


फिर जो गुरु का होगा वही मेरा होगा और जब वे इतने अकंप और निश्चिंत बैठे हैं, तो मुझे इतना भयभीत होने की क्या जरूरत ! वह भी रुक गया, गुरु के पास बैठ गया. हाथ पैर कंपते रहे, जब तक कि कंपन समाप्त न हो गया. बड़ा भयंकर उत्पात हो गया था. अनेक मकान गिर गये थे. सड़क पर कोलाहाल था, और  लोग अपनी जान बचाने के लिये पागल थे. 


जैसे ही भूकंप रुक गया, तो हेरिगेल ने उनसे कहा कि अब तो मैं कुछ और ही पूछना चाहता हूं. यह जो भूकंप हुआ इस संबंध में कुछ कहें. ' तो गुरु ने कहा, 'वह सदा बाहर ही बाहर है और जो भीतर न हो उसका कोई भी मूल्य नहीं है. बाहर सब कंप गया. मैं वहां सरक गया भीतर, जहां कोई कंपन कभी नहीं जाता. '


इस किस्से का जिक्र इसलिए किया गया कि आज भी भारत समेत दुनिया में बौद्ध धर्म को मानने वाले कुछ योगियों के पास वो हुनर है, जो जलजला आने से पहले उसकी आवाज़ सुन भी लेते हैं और अपने साथ बैठे लोगों को बचाने की अलौकिक ताकत भी रखते हैं. यही ताकत पीरों-फकीरों के पास भी रही है और हमारे देश में हर शाम दरगाहों और मजारों पर रोशन होने वाले उन चिरागों से वैसी ही ताकत हासिल करने के लिए बहुत सारे लोग हर तरह का जतन भी करते हैं. 


इसे भला कौन झुठलायेगा कि किसी भी देश में आने वाला भूंकप बहुत बड़ी तबाही लाता है और मानव-विनाश का सबसे बड़ा कारण भी बनता है. तुर्किये और सीरिया में आये भीषण भूकंप ने तकरीबन 20 हजार लोगों को मौत की नींद में सुला दिया. लेकिन कुदरत की आई ऐसी मार का भी कुछ अपना ही तरीका होता है. जिसे बचाना होता है,उसे छह-सात मंजिला इमारत के नीचे दबे मलबे से तीन दिन बाद भी वो जिंदा बाहर निकलवा ही देती है. तुर्किये में ऐसी बहुत सारी घटनाएं सामने आई हैं, जो बताती हैं कि तबाही वही लाती है लेकिन उसमें किसे बचाना है, ये भी कुदरत ही तय करती है. 


लेकिन ये भी कड़वा सच है कि भारत ने "ऑपेरशन दोस्त" मिशन के तहत तुर्किए में जितनी मदद भेजी है,वो भी उस आबादी के लिये कम पड़ रही है. माइनस 6-7 डिग्री की ठंड को झेलने वाले और अपनों को खो चुके लोगों के दर्द को वहां हो रही बर्फबारी ने और भी गहरा कर दिया है. भारत समेत दुनिया के कई देश इस संकटग्रस्त देश की भरपूर मदद करने में जुटे हैं लेकिन इसकी गारंटी तो न कोई ले सकता है और न ही दे सकता है कि हर जरूरतमंद इंसान को वह मदद मिल ही जायेगी. 


इसके बावजूद वहां पहुंची भारतीय टीम ने सबसे पहला काम ये किया है कि जो मलबे के नीचे दबे हुए जिंदा लोग हैं, उन्हें सबसे पहले बाहर निकाला जाये.  प्रभावित इलाकों में भारतीय रेस्‍क्‍यू टीमों ने लोगों को बचाने के लिए वहां दिन-रात एक कर दिया है. भारत की एनडीआरएफ टीम कई खोजी कुत्तों के साथ ग्राउंड जीरो पर बचाव और राहत अभियान चला रही है. गुरुवार को एनडीआरएफ ने वहां 6 साल की बच्ची को मलबे से निकालकर बचाया. इस घटना का वीडियो सामने आया है. 


इस वीडियो में देखा जा सकता है कि एक बच्‍ची कंबल में लिपटी हुई है. उसे एक खास उपकरण के साथ मजबूती से सुरक्षा प्रदान की गई, वहीं एक डॉक्टर बच्‍ची की तबियत जांच रहा है. पीले हेलमेट में लोग उस बच्ची को धीरे से स्ट्रेचर पर ले जाते हैं.  


इस ऑपरेशन का वीडियो भारतीय गृह मंत्रालय के ट्विटर हैंडल पर भी शेयर किया गया.  वीडियो के कैप्शन के मुताबिक, तुर्किए में एनडीआरएफ की टीम द्वारा छह साल की बच्ची को एक ढही हुई इमारत के मलबे से निकाला गया था. टीम उसे सुरक्षित बाहर निकालने में सफल रही. यह सब उस देश में हुआ, जहां 6 फरवरी को भूकंप के तीव्र झटकों ने व्यापक तबाही मचाई थी.  


हालांकि वहां से इस विनाश लीला की जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक देश के कुछ हिस्से ऐसे भी हैं, जहां लोगों को खाने के लाले पड़ गए हैं क्योंकि विदेशों से आई राहत सामग्री उन तक पहुंच ही नही पाई है. जिनके पास पैसे थे, वे तो सीरिया की तरफ पलायन कर गए लेकिन भूकंप से हुए विनाश से प्रभावित ऐसे कई इलाके हैं, जहां लोगों को एक वक्त का खाना भी नहीं मिल पा रहा है. 


सच ये भी है कि तुर्किए जैसे छोटे-से मुल्क ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसके यहां 7. 8 की तीव्रता वाला ऐसा खतरनाक जलजला आएगा और इतनी बड़ी तबाही मचा देगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO ने कहा है कि मौतों का आंकड़ा अभी और बढ़ सकता है. इस आपदा में हज़ारों इमारतों को नुकसान पहुंचा है और दो करोड़ 30 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं. 


कड़ाके की ठंड के बीच राहत और बचावकर्मी तेज़ी से मलबे में फंसे लोगों की तलाश कर रहे हैं.  लेकिन उनके हाथ से वक्त फिसलता जा रहा है. वहीं भूकंप के बाद सड़कों पर रहने को मजबूर हुए लोगों के सामने अब चुनौती ठंड झेलने की है. तुर्की के कुछ शहरों में आम नागरिक भी मलबे में फंसे लोगों को बचाने में बचाव कर्मियों की मदद कर रहे हैं. 


हालांकि तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप अर्दोआन ने भूकंप से सबसे अधिक प्रभावित दस प्रांतों में तीन महीने का आपातकाल लगा दिया है. भारत, अमेरिका, इजरायल समेत दुनिया के दर्जनों देश तुर्की और सीरिया के लिए राहत सामग्री के साथ-साथ बचाव कार्य में हाथ बंटाने के लिए विशेषज्ञों के दल भेज रहे हैं. 


लेकिन इस प्राकृतिक आपदा के बाद सरकार की कार्रवाई को लेकर लोगों के बढ़ते गुस्से पर तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैय्यप अर्दोआन ने निंदा की. आलोचकों का कहना है कि इमरजेंसी सेवाएं बहुत धीमी है और उनकी सरकार की ओर से इस भूकंप संभावित इलाके में तैयारियों को लेकर कुछ भी नहीं किया गया. 
लेकिन एर्दोगन ने कहा, "इतने बड़े पैमाने के विनाश को लेकर तैयारी करना संभव ही नहीं है."


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)