नई दिल्लीः ठीक दस दिन बाद दुनिया में खेलों के महाकुंभ कहलाने वाले ओलंपिक का आगाज़ जापान की राजधानी टोक्यो में हो रहा है. जो 8 अगस्त तक भारत समेत दुनिया के 206 देशों के खेल-प्रेमियों की धड़कनें कुछ ऐसे बढ़ाता रहेगा, जिसे अस्पतालों के आईसीयू में लगी मशीनों के सिवा कोई औऱ माप भी नहीं सकता. भारत के लिये ये मौका कितना ज्यादा अहम है,उसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि इतिहास में पहली बार सबसे अधिक यानी 126 एथलीट खिलाड़ियों को हिस्सा लेने के लिए वहां भेजा जा रहा है. सिर्फ इस आस में कि ज्यादा से ज्यादा पदक लाकर वे दुनिया के खेल-जगत में भारत के ऐसे झंडाबरदार बन जाएं कि ताक़तवर मुल्क भी हमसे रंज करने लगें. 


ज़ाहिर-सी बात है कि पहले के मुकाबले  मौजूदा सरकार ने इस तरफ कुछ ज्यादा ध्यान दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार की शाम इन सभी खिलाड़ियों से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये संवाद करके उनकी हौंसला अफ़ज़ाई भी करेंगे. लेकिन इस मौके पर एक बड़ा सवाल उठता है कि 130 करोड़ वाले इस मुल्क में हर बार आखिर भारत ओलिंपिक से निराशा का पैगाम ही क्यों लाता है? पीएम को भी इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि देश में जब प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है,तो फिर मैडल लाने में आखिर हम इतने फिसड्डी क्यों रह जाते हैं. इसका जवाब भी बिल्कुल सीधा-सा है कि सरकार की तरफ से उन्हें न तो उस स्तर के संसाधन मिलते हैं और न ही वैसा प्रशिक्षण कि वे दुनिया के बाकी 205 देशों के खिलाड़ियों  को पछाड़ते हुए टॉप तीन में अपनी जगह बना सकें. 


‌हालांकि, सवा सौ साल पहले शुरु हुए ओलंपिक खेलों में यह पहला ऐसा मौका है,जब ये अपने तय वक़्त से एक साल बाद हो रहे हैं और उसकी वजह भी कोरोना की  विश्वव्यापी महामारी है. इससे पहले सिर्फ दो बार इनका आयोजन नही हो पाया था और उसकी वजह थी दूसरा विश्व युद्ध. लेकिन वैश्विक महामारी का असर कुछ कम होने के  बाद इसका आयोजन न सिर्फ अनूठा है बल्कि दुनिया के उन लाखों अनाम लोगों को श्रद्धाजंलि देने का ये वो पवित्र मौका भी है, जो इस दुनिया से असमय विदा हो गये. लिहाज़ा, ये ओलिंपिक हमें अपने जमाने के मशहूर हीरो राज कपूर की एक फ़िल्म के उस संवाद की याद दिलाता है कि 'शो मस्ट गो ऑन' यानी हर तकलीफ़ झेलने के बाद भी ज़िंदगी अपनी रफ़्तार से चलती रहना चाहिए. 


कड़वा सच तो ये है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक की सरकारों ने क्रिकेट को छोड़कर दूसरे खेलों को बढ़ावा देने के लिए न तो गंभीरता से कुछ सोचा, न कोई पुख्ता योजना बनाई और न ही ओलिंपिक में शामिल 18 खेलों के लिये अलग से बजट रखने का कोई इंतजाम ही किया. हर सरकार में भाई-भतीजावाद इतना हावी रहा कि घर से लेकर मैदान तक जीतोड़ मेहनत करने वाले एथलीट तो सिर्फ ताकते रह गये और ओलिंपिक तक वो पहुंच गए गये, जो उसके काबिल तक नहीं थे. उसका नतीजा आज हम सबके सामने है. 


इसलिये कह सकते हैं कि हमारे देश में बेशुमार हीरे होते हुए भी हम उन्हें सिर्फ इसलिये तराश नहीं पाये क्योंकि जो असली पारखी हैं. उन्हें तो किनारे कर दिया गया और सारे फैसले लेने की कमान उस नौकरशाही ने अपने हाथों में हथिया ली जिसकी प्राथमिकता में न कभी स्पोर्ट्स था और न ही कभी रहने वाला है. हमारे खिलाड़ियों के इतने बड़े दल के जापान रवाना होने से पहले अगर पीएम मोदी उनसे रुबरू हो रहें,तो समझ सकते हैं कि वे दूसरे मसलों की तरह ही खेलों को बढ़ावा देने के लिए भी उतने ही गंभीर हैं. 


लेकिन खेल मंत्रालय का कौन-सा अफसर उन्हें ये बताने की हिम्मत जुटा पायेगा कि जापान जा रहे इतने बड़े दल में चंद एथलीट ऐसे भी हैं जिन्होंने बगैर कोई सरकारी सुविधा लिए इस ओलिंपिक में शिरकत के लिए क्वालीफाई किया है क्योंकि कोरोना काल में जो कुछ असंभव था,वो उन्होंने सिर्फ अपने बलबूते पर संभव करके दिखाया है. 


चेन्नई की रहने वाली भवानी देवी  वे हैं जो पहली बार इस ओलिम्पिक के फेंसिंग गेम में भारत का प्रतिनिधित्व करेंगी. उन्होंने कोरोना महामारी के इस सवा साल में पूरे वक़्त अपने घर की छत पर ही प्रैक्टिस की है जिसके लिए उन्होंने अपने डमी विरोधी पार्टनर को किट उपलब्ध कराने तक के लिए भी कोई सरकारी खैरात नहीं मांगी. इसी तरह नेरथा कुमानन ऐसी पहली महिला भारतीय हैं जो नौकायन में अपनी सारी ताकत दिखाएंगी तो वहीं माना पटेल भी तैराकी करते हुए पानी से पदक लाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने से पीछे नहीं हटेंगी. 


कितने लोग भला ये जानते होंगे कि जब हम सब कोरोना की दूसरी लहर से इतने डरे हुए थे तब नीरज चोपड़ा इस वायरस की चपेट में आने के बावजूद पटियाला में भाला फेंकने की प्रैक्टिस करने में इतने मशगूल थे कि उन्हें पता ही नहीं लगता था कि दिन कब रात में बदल गया. इस खेल में उनका नाम दुनिया के चंद बेहतरीन खिलाड़ियों में शुमार होता है. लेकिन देश के लिए एक पदक लाने के उनके जज़्बे ने कोरोना जैसी बीमारी की भी परवाह नहीं की. इस ओलिंपिक में हिस्सा लेने वाले हमारे कई खिलाड़ी कोविड वायरस की चपेट में आये लेकिन उन्होंने न तो हिम्मत हारी और न ही अपनी रोजमर्रा की प्रैक्टिस को छोड़ा. पिस्टल शूटर राही सरनबोट और सौरभ चौधरी भी इससे बच नहीं सके. हमारी महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल सिंह से लेकर अन्य कई खिलाड़ी और कोच को भी इस वायरस ने नहीं बख्शा. लेकिन इन सबने उस वायरस से जंग जीती और अपनी तैयारी पर पूरा फोकस रखा,सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि पूरे देश के लिये. 


लिहाज़ा देश का हर नागरिक यही चाहेगा कि कोरोना पर जीत पाने वाले हमारे ये खेल-योद्धा इस महाकुंभ के समुद्र-मंथन से अमृत रुपी पदकों की वो सौगात लेकर आएं,जिसे देखकर दुनिया के मुल्क भी हमसे रश्क करने लगें.



(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)