27 दिसंबर, 1916 की तारीख थी. लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के बगीचे में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए करीब 2300 लोग मौजूद थे. उस अधिवेशन में शामिल होने के लिए बिहार के चंपारण का एक किसान भी मौजूद था, जिसका नाम था राजकुमार शुक्ल. उसे वहां तक लेकर आने वाले और अधिवेशन में बोलने का मौका देने वाले थे एक वकील ब्रजकिशोर प्रसाद जो बिहार के जाने-माने नेता थे. कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में पहले ब्रजकिशोर प्रसाद और फिर राजकुमार शुक्ल ने बिहार के चंपारण में अंग्रेजों ने जो ज्यादती कर रखी थी उसका जिक्र किया और बताया कि कैसे अंग्रेजों ने जोर जबरदस्ती से खेती की जमीन पर नील उगाने के लिए किसानों को मजबूर कर दिया है. उस किसान की कोशिश थी कि कांग्रेस का कोई तो बड़ा नेता उसके साथ चंपारण चले ताकि चंपारण के किसानों को अंग्रेजों की ज्यादती से मुक्त करवाया जा सके.


लेकिन कोई भी राज कुमार शुक्ल की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा था. उस अधिवेशन में लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय और मोहम्मद अली जिन्ना जैसे कांग्रेस के बड़े नेता मौजूद थे. उस अधिवेशन में मोहनदास करमचंद गांधी भी मौजूद थे. लेखक पुष्यमित्र अपनी किताब 'जब नील का दाग मिटा' में लिखते हैं कि गांधी अपने काठियावाड़ी कपड़ों की वजह से थोड़े-थोड़े किसान लग रहे थे. राजकुमार शुक्ल ने सारे बड़े नेताओं को देखा और गांधी को भी देखा. तब गांधी को भारत में आए महज दो साल ही हुए थे. उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जो आंदोलन किया था, उसकी ख्याति देश-विदेश तक पहुंच गई थी और यही वजह थी कि गोपाल कृष्ण गोखले ने गांधी को भारत आने के लिए कहा था. वो भारत में आए थे और कांग्रेस में शामिल हो गए थे.


उस अधिवेशन में गांधी ने भी राजकुमार शुक्ल को देखा. लेकिन तय नहीं कर पाए कि उन्हें राजकुमार शुक्ल के साथ चंपारण जाना है या नहीं. हालांकि, राजकुमार शुक्ल तय करके आए थे कि और कोई जाए न जाए, गांधी को तो वो चंपारण लेकर ही जाएंगे. इस कांग्रेस अधिवेशन में बिहार का ही एक और बड़ा वकील मौजूद था. उसने राजकुमार शुक्ल को देखा और उसकी जिजिविषा को भी. लेकिन तब तक उसे नहीं पता था कि इसी राजकुमार शुक्ल की वजह से उसकी जिंदगी बदलने वाली है. बाद में राजकुमार शुक्ल और ब्रजकिशोर प्रसाद मोहन दास करमचंद गांधी को लेकर चंपारण पहुंचे, वहां अंग्रेजों के खिलाफ सत्याग्रह किया और उसके बाद जो हुआ वो इतिहास हो गया. और जिस वकील की इस आंदोलन से जिंदगी बदलने का मैंने जिक्र किया है, वो कोई और नहीं, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद थे, जिन्होंने चंपारण आंदोलन की बदौलत सूट पहनना छोड़ दिया, नौकर-चाकर हटा दिए, खादी पहनने लगे, अपना खाना खुद बनाने लगे और आजादी के बाद देश के पहले राष्ट्रपति बने.


लेकिन यही वो आंदोलन था, जिसने मोहनदास करमचंद गांधी को भी महात्मा बना दिया. तब नील को अंग्रेज ब्लू गोल्ड कहा करते थे. कई बड़े-बड़े अंग्रेज अफसर बड़ी-बड़ी नौकरियां छोड़कर नील की खेती करवाने लगे थे, क्योंकि मुनाफा ज्यादा था. लेकिन ये मुनाफा अंग्रेजों को था, उसकी खेती करने वाले किसानों को नहीं. और इस नील के मुनाफे की वजह से अंग्रेजों ने किसानों पर इतने अत्याचार किए कि उन्हें अनाज की जगह नील की उगाना पड़ रहा था, जिसकी वजह से उन्हें खाने को भी नहीं मिल पाता था. किसानों के इसी दुख को कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं तक पहुंचाने का जिम्मा उठाया था राजकुमार शुक्ल ने, जो लखनऊ में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन तक पहुंच गए थे.


इसकी वजह थे गणेश शंकर विद्यार्थी जो प्रताप अखबार के संपादक थे. वो चंपारण के किसानों की दुर्दशा के बारे में प्रताप में छापते रहते थे. 1915 में प्रताप के दफ्तर में राजकुमार शुक्ल और गणेश शंकर विद्यार्थी की मुलाकात हुई थी. वहीं पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने राज कुमार शुक्ल को मोहनदास करमचंद गांधी के दक्षिण अफ्रीका के कारनामों के बारे में बताया था और कहा था कि चंपारण की मुक्ति सिर्फ गांधी करवा सकते हैं, क्योंकि उन्हें अंग्रेजों से लड़ना आता है. बहरहाल राजकुमार शुक्ल से गांधी ने कहा कि वो चंपारण चलेंगे, लेकिन दो-तीन दिन के लिए ही. राजकुमार शुक्ल ने कहा कि बस एक दिन के लिए ही चले चलिए. गांधी ने राजकुमार शुक्ल को वचन दिया कि वो चंपारण आएंगे.


लेकिन गांधी नहीं आए. और तब 27 फरवरी, 1917 को राजकुमार शुक्ल ने मोहनदास करमचंद गांधी के नाम एक पत्र लिखा. और पत्र के संबोधन में लिखा, मान्यवर महात्मा. पुष्यमित्र लिखते हैं कि शायद ये पहला मौका था, जब मोहनदास करमचंद गांधी का संबोधन महात्मा के तौर पर हुआ हो. हालांकि ये भी कहा जाता है कि पत्र राजकुमार शुक्ल ने नहीं पत्रकार-लेखर पीर मुहम्मद मुनीस ने लिखा था, लेकिन लिखा राजकुमार शुक्ल के कहने पर ही था और उन्हीं के नाम से लिखा था. हकीकत जो भी हो, लेकिन गांधी चंपारण नहीं पहुंचे. लेकिन राजकुमार शुक्ल ने कोशिश नहीं छोड़ी. फिर से पत्र लिखा और आखिरकार 3 अप्रैल 1917 को गांधी ने राजकुमार शुक्ल के नाम एक टेलीग्राम भेजा कि मैं कलकत्ता जा रहा हूं. भूपेंद्रनाथ बसु के घर ठहरूंगा. वहां आकर मिलिए. तार मिलते ही राजकुमार शुक्ल घर से निकल पड़े.


और 9 अप्रैल, 1917 की शाम से ही राजकुमार शुक्ल गांधी को अपने साथ लेकर चल पड़े. पटना और मुजफ्फरपुर में शुरुआती तैयारियों के बाद आखिरकार 15 अप्रैल, 1917 को मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण पहुंचे. लेकिन तब तक राजकुमार शुक्ल को पता ही नहीं चला कि गांधी चंपारण आ चुके हैं. क्योंकि मुजफ्फरपुर से ही वो चंपारण लौट गए थे ताकि गांधी का चंपारण में स्वागत किया जा सके. लेकिन वो बीमार पड़ गए और गांधी चंपारण पहुंच गए.


15 अप्रैल से 20 अप्रैल के बीच अंग्रेजों ने हर मुमकिन कोशिश की कि गांधी चंपारण छोड़कर चले जाएं. मुकदमा भी हुआ. 18 अप्रैल को गांधी की मजिस्ट्रेट के सामने पेशी भी हुई. लेकिन गांधी ने जमानत लेने से भी इन्कार कर दिया और ये भी कहा कि जमानत मिलने के बाद भी वो वो चंपारण छोड़कर नहीं जाएंगे. 20 अप्रैल को थक हारकर अंग्रेजों ने खुद ही गांधी के ऊपर से मुकदमा हटा लिया. गांधी के चंपारण में किए लंबे संघर्ष का नतीजा था कि 29 नवंबर, 1917 को चंपारण एग्रेरियन बिल पेश किया गया, जिसे 20 फरवरी, 1918 को गजट में प्रकाशित करवाया गया और फिर 4 मार्च, 1918 को बिल पारित होकर कानून बन गया.


इसी आंदोलन के दौरान गांधी ने भितिहरवा गांव के पास कुछ महिलाओं को गंदे कपड़ों में देखा. उन्होंने कस्तूरबा से कहा कि वो महिलाओं से साफ कपड़े पहनने को समझाएं. महिलाएं कस्तूरबा को अपनी झोपड़ी में ले गईं और दिखाया कि उनके पास सिर्फ एक ही साड़ी है. अगर गांधी कुछ कपड़े दिला दें, तो वो अपने गंदे कपड़ों को धो लेंगी. इस घटना के बाद से ही मोहनदास करमचंद गांधी ने आजीवन एक कपड़े में रहने का व्रत लिया और इसी चंपारण ने गांधी को महात्मा बना दिया और अब वो पूरे देश के महात्मा, पूरे देश के प्यारे बापू हैं. हैप्पी बर्थडे बापू...



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