हाल ही में अमेरिकी शोध संस्थान 'प्यू रिसर्च सेंटर' ने भारत और यहां के प्रधानमंत्री के बारे में एक सर्वे किया. इस सर्वे में अभी भी 80 फीसदी भारतवासी को मोदी को पसंद करता बताया गया है. वहीं पीएम के तौर पर भी मोदी को पसंद करनेवाले 70 फीसदी लोग हैं, तो 50 फीसदी से अधिक मानते हैं कि मोदी के शासनकाल में बाहरी दुनिया में भारत का रुतबा बढ़ा है. भारत के आम चुनाव को अब अधिक वक्त नहीं है. वैसे, एक सुगबुगाहट तो यह भी है कि भारत में समय से पहले चुनाव हो सकते हैं. फिलहाल, इस रिपोर्ट से भाजपा की तो बांछें खिल ही गयी हैं. उसे पता है कि उसका ब्रैंड मोदी अभी भी सुरक्षित है और इस पर फिर से दांव खेला जा सकता है. 


बीजेपी के लिए राहत की बात


भारत की राजनीति अभी जिस तरह की है, वह मोदी-समर्थक या मोदी-विरोध पर ही आकर टिक गयी है. हालांकि, यह स्थिति एक लोकतांत्रिक समाज के लिए ठीक नहीं है. अभी हमारी पूरी राजनीति बांटने की या डिवाइसिव पॉलिटिक्स हो गयी है. या तो आप मोदी को पसंद करते हैं या नापसंद. आप निरपेक्ष नहीं रह सकते. इससे भाजपा के लिए राहत की स्थिति बनी है. उसको पता चला है कि ब्रैंड मोदी अभी भी काम कर रहा है. इससे ये भी पता चलता है कि मोदी अभी भी भारतीय राजनीति में बहुत बड़ा मुद्दा हैं. कुछ ही महीनों में भारत का आम चुनाव होना है. उसकी पृष्ठभूमि में अगर ऐसी रिपोर्ट आती है, जिसमें मोदी के नेतृत्व में भरोसे की बात है, इनकम्बेन्सी बहुत काम नहीं कर रही है, मोदी के समर्थक बने हुए हैं, तो यह भाजपा के लिए तो बहुत खुशी की बात है. भाजपा ने तो पीएम के लिए 'टर्मिनेटर' शब्द का इस्तेमाल किया है. भाजपा चूंकि अभी हाल ही में हुए हिमाचल और कर्नाटक के महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव हार चुकी है, तो ऐसे में यह रिपोर्ट तो उनके लिए बहुत राहत की खबर है. हालांकि, ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है. इस माहौल में ऐसी रिपोर्ट आना बीजेपी के लिए सकारात्मक और उत्साह की बात है. उसको पता है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर वह अपनी चुनावी नैया पार लगा सकती है. उसका ब्रैंड मोदी अभी चुका नहीं है. 



कुछ भी नहीं है अनायास


आज के दौर में, खासकर राजनीति और अर्थ से जुड़ी जो भी बात है, वह कोई भी निरायास नहीं होती है. वे सायास होती हैं और जो भी चीज सायास हो, उसमें प्लैनिंग होती है, स्ट्रेटेजी होती है. अब तो जनता भी मानने लगी है कि ये सब सामान्य बात है. टाइमिंग अब कोई छुपी बात नहीं है. कॉरपोरेट से लेकर जनता से जुड़ी सारी बातें सायास होती हैं. अनायास तो अब केवल दुर्घटना होती है. समय का जहां तक हिसाब है तो भाजपा और नरेंद्र मोदी राजनीति में हैं, वही करने आए हैं. वे कोई संन्यासी तो हैंं नहीं. इस रिपोर्ट की टाइमिंग का फायदा अगर वे उठाएंगे नहीं तो करेंगे क्या? इसके साथ ही, हमारे यहां अभी भी पश्चिम, यानी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि का बड़ा 'बौद्धिक आतंक' है. यहां से छपी किसी चीज, किसी भी रिपोर्ट को तुरंत ही आंख  मूंदकर सच मान लिया जाता है. एक तरफ हम भारतीयता की बात करते हैं, दूसरी तरफ हमें अपने ही सम्मान के लिए, अपनी ही मान्यताओं के लिए हमें विदेशी सनद की जरूरत होती है. अब ये जो बात है, वह शायद ब्रिटिश शासन के वक्त आय़ा और आज तक वह जारी है. अब किसी अमेरिकी संस्थान ने अगर ये रिपोर्ट की है, तो उसी हिसाब से इस पर राजनीति होगी. आखिर, राजनीति भी तो इसी हिसाब से हो रही है. नरेंद्र मोदी केवल अकेले ही तो ऐसा नहीं करते. हरेक की अपनी टाइमिंग है और हरेक को अपने हिसाब से अपनी बात रखने का अधिकार है. रिपोर्ट में अगर 80 फीसदी भारतीय नरेंद्र मोदी को पसंद करते हैं, उनके शासनकाल में भारत का मान विदेशों में बढ़ा हुआ मानते हैं, तो निश्चय ही इसके लिए सरकार और उसके अगुआ चूंकि नरेंद्र मोदी हैं, तो उनको श्रेय भी मिलेगा. इसी सफलता की बुनियाद पर ही अगला चुनाव भी लड़ा जाएगा. 



ब्रैंड मोदी अभी है कारगर


इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ब्रैंड मोदी की धमक इससे और बढ़ेगी. विपक्षी गठबंधन अभी इससे बहुत प्रभावित नहीं होने जा रहा है. अरब सागर के किनारे जो मीटिंग हो रही है. अभी तो वहां आपसी कलह ही जारी है. आम आदमी पार्टी केजरीवाल को तो जेडी यू नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बताता है. कांग्रेस इस सबसे कहीं भी अप्रभावित नहीं रहेगी. वह भी तो राहुल गांधी को स्वाभाविक उम्मीदवार मानती ही है. वैसे, इससे पहले 1989-90 और 1996 में भी बिना पीएम कैंडिडेट के ही गठबंधन भी बना था, चुनाव भी लड़ा था और बाद में पीएम के पद तक अप्रत्याशित तरीके से कोई पहुंच गया. वैसे भी, मोदी के खिलाफ तो यही सबसे बड़ा आरोप बनता है कि विपक्षी गठबंधन चूंकि संसदीय लोकतंत्र मे यकीन रखता है, इसलिए सांसद चुनाव करेंगे. असली जो खेल है, वोटर्स को अपनी ओर लाने का, वो तो फ्लोटिंग वोट्स का है. बाकी तो सभी का बेस वोटर वैसे का वैसा ही है. उस फ्लोटिंग वोट्स को साधने के लिए ही कभी ब्रैंडिग होती है, कभी रणनीतिक बातें होती हैं, तो उस नजरिए से भी ब्रैंड मोदी भाजपा के लिए कारगर रहेगा, यह यकीन हुआ है. इसलिए, अब टाइमिंग वगैरह पर बात करना बंद कर दिया जाए. इसका सार यही है कि लोकतंत्र को आगे बढ़ाते हुए देश की कीमत पर देश का विकास करें, राजनीति की कीमत पर देश का विकास न करें. 


अभी का जो माहौल है, वह चुनाव की तैयारी या शुरुआत जैसा नहीं लग रहा है, बल्कि लग रहा है कि हम 'बीच चुनाव' में हैं. नीतीश कुमार और ममता बनर्जी तो यह घोषणा कर चुके हैं कि आम चुनाव समय से पहले ही करवाए जा सकते हैं. जब ऐसी आशंकाएं होंगी तो चुनाव की तैयारी होगी ही. चुनाव लड़ा भी जाएगा. युद्ध वैसे भी मैदान में बाद में जीते जाते हैं, पहले तो वह दिमाग में और दिलों में जीते जाते हैं. वोटर्स को लुभाने की कवायदें आगे अभी और भी बढ़ेंगी, यह तो एक स्तर पर 'चुनाव हो ही रहा' है. बस, यह औपचारिकता है कि चुनाव मई में या दिसंबर में कब होता है. उस वक्त तक भी सत्ताधारी गठबंधन और विपक्षी गठबंधन लगातार जनता को लुभाने में ही लग रहा है. ऐसे में प्यू की रिपोर्ट भाजपा के लिए तो अमृतकाल में अमृत की बूंदें हैं. 


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