विश्व के पाँचवें सबसे बड़े तेल उत्पादक देश यूएई में आयोजित "कॉप-28' के समापन के बाद अब क्या खोया, क्या पाया का दौर है. जहाँ एक तरफ जीवाश्म ईंधन के खात्मे के संकल्प को ले कर धूम है वहीं  दूसरी तरफ ‘यूएई आम सहमति’ की हकीकत पर भी बात हो रही है कि आखिर धरातल पर ये सहमति  कितनी कारगर हो पायेगी? अबकी बार लिए गये  संकल्प पिछले संकल्पों की  शृंखला  में किन  मायनों  में अलग हैं  या फिर कहीं  जलवायु परिवर्तन के लिए, लिए गये बड़े-बड़े संकल्प हमारे घोंघे जैसे प्रयासों को खरगोश वाली छलांग दिखाने की कवायद तो नहीं है. वैसे ‘कॉप-28’ की शुरुआत में ही दो महत्वपूर्ण स्थितियां स्पष्ट रूप से सामने थी कि हम अनुमान से अधिक तेज़ी से जलवायु आपदा की तरफ़ बढ़ रहे हैं  और हर स्तर पर इससे निबटने के लिए किए जाने वाले विश्व समुदाय के  प्रयास नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं. 


नौ दिन चले अढ़ाई कोस


दो हफ़्ते चले हंगामेदार बैठकों, खींचतान वाली बहसों, अनेक विवादों, सार्वजानिक और गुप्त विरोधाभास और थोड़ी बहुत सहमति के साथ कॉप-28 में जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को खत्म करने पर आख़िरकार एक ऐतिहासिक समझौता हुआ, और ये भी दावा है कि अट्ठाईस वर्षों से जारी जलवायु वार्ता में पहली बार ऐसी स्पष्ट भाषा का उल्लेख हुआ. सभी देशों से जीवाश्म ईंधन का "इस्तेमाल खत्म करने” और बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित करने का आह्वान किया गया है.



हालांकि पिछले कॉप-27 में भी कोयला से बिजली बनाने को चरणबद्ध तरीके से कम करने और जीवाश्म उर्जा पर दी जाने वाली सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की सिफारिश की जा चुकी है. समापन सत्र में बैठक के अध्यक्ष सुल्तान अल जाबेर, जो विश्व के बारहवें सबसे बड़े तेल कंपनी के मालिक भी है, ने कहा, “कोई समझौता उतना ही अच्छा होता है जितना उसे लागू करने की मंशा, हमें इस समझौते को जमीन पर उतारने के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए.” उन्होंने “यूएई आम सहमति” को पेरिस समझौते के लिए जरूरी भावी कार्ययोजना का प्रतीक बताया. वही भारतीय प्रतिनिधि सम्बद्ध विभाग के मंत्री श्री भूपेन्द्र यादव, ने जमीनी हकीकत की तरफ ध्यान दिलाते हुए समझौते को जमीन पर उतारने के साधनों की आवश्यकता पर बल दिया जो जलवायु न्याय, राष्ट्रीय परिस्थितियों के हिसाब से सम्मानजनक और विकसित देश द्वारा अपने ऐतिहासिक योगदान के आधार पर योगदान देना चाहिए. 


भाषाई बाजीगरी बनाम जमीन पर काम


जैसा कि स्पष्ट है, किसी भी अन्य बहुपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय बैठकों की तरह कॉप-28 के घोषणा पत्र की शब्दावली में भी भाषा की बाजीगरी दिखी, चाक चौबंद, संतुलित और धारधार लहजे में सबकुछ अच्छा दिखाया गया. अब जब बैठक को पूर्ण हुए एक हफ्ते से ज्यादा हो चुका है, तब कई सारी बातों पर खुल के चर्चा हो रही है आखिर क्या वाकई हमने जलवायु संकट के निबटान के लिए यूएई आम सहमति में कोई ऐतहासिक सहमति बनायी है? यूएई आम सहमति की भाषा और इस्तेमाल शब्दावली को गौर से समझे तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि इसमें बातें बताई कम गयी है और छुपाई ज्यादा. जलवायु संकट से बचाव के लिए अब तक के सारे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं.



पेरिस समझौते के दायरे के अनुसार इस सदी के अंत तक तापमान वृद्धि को 2° सेंटीग्रेड तक रोकने के लिए इस दशक के अंत तक वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 29% और 1.5° सेंटीग्रेड तक रोकने के लिए 43% तक कम करना होगा. वही 1972 के स्टॉकहोम कांफ्रेंस से शुरू हुए पिछले पचास साल के जद्दोजहद और 28 जलवायु बैठकों और ऐसी तमाम सहमतियों और ऐतिहासिक समझौतों, जैसा कि कॉप-28 के बाद दावा किया जा रहा है, के बाद भी 2030 तक मात्र 2% से 9% के बीच ग्रीन हाउस उत्सर्जन को कम कर पाएंगे. अनेक अध्ययन से ये सर्वमान्य है कि पूर्व औद्योगिक काल (1850-1900) के मुकाबले अभी ही धरती का तापमान 1.2° तक बढ़ चुका है. वर्तमान साल पिछले 120000 साल का सबसे गर्म साल रहा है.


बदलना होगा- बातें अधिक, काम कम को


जलवायु संकट के इस विकराल परिस्थिति के बीच हो रहे तमाम जलवायु बैठकों की भाषा में कुछ बातें स्पष्ट हैं जैसे “जरुरी कदम उठाने चाहिए”, “भावी कार्य योजना का प्रतीक”,जलवायु न्याय के हिसाब से होना चाहिए”, “कम करने की जरुरत”, “ख़त्म करने की सिफारिश", “योगदान देना चाहिए” आदि आदि. अब समय आ गया है कि हमें लक्ष्य निर्धारित कर स्पष्ट कार्य-योजना के साथ जलवायु परिवर्तन की इस लड़ाई तो अंजाम तक ले जाना चाहिए. पर इतनी महत्वपूर्ण जलवायु बैठक में शब्दावली भविष्य काल वाली इस्तेमाल हो रही है, जैसे चाहिए, जरुरत है. ऐसी शब्दावली तब तक जायज थी जब जलवायु परिवर्तन की सच्चाई और उसके मानव क्रियकलाप से जुड़े होने को लो कर संशय की स्थिति थी.


आज जब वैश्विक उष्मन और उसके प्रभाव पृथ्वी के कोने-कोने तक सामने आ रहे है, ऐसे में शतुर्मुर्गी प्रवृति मानवता को संकट में धकेलने जैसा है. तमाम तरह के विरोधाभास और जीवाश्म इंधन के साये वाले इलाके में हो रहे कॉप-28 के लेकर मेजबान देश यूएई पर सबकुछ ठीक-ठाक दिखाने और किस भी स्थिति में आम सहमती दिखने का जबरदस्त दबाव था और ये यूएई आम सहमति के दास्तवेज में भी दिखा. जानकारों जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल ख़त्म करने का उल्लेख एक मजबूत कदम है.


लेकिन नवीन ऊर्जा और अन्य प्रणालियों में समान रूप से बदलाव करने के लिए लहजा अस्पष्ट और कमजोर दीखता है. दूसरी तरफ गरीब और विकासशील देशो को जीवाश्म ईंधन से इतर उर्जा प्रणाली विधि प्राप्त करने के लिए  के लिए आवशयक वित्तीय संसाधन के मुद्दे पर शब्द मौन पड़ जा रही है. ऐसी स्थिति में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल ख़त्म करने का संकल्प अर्थहीन लगता है. जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल ख़त्म करने वाली घोषणा में शब्दों की बाजीगरी का एक और स्तर दीखता है, जब बात केवल उर्जा उत्पादन के लिए की जाती है और पूरी सफाई से जीवाश्म इंधन के इस्तेमाल के और क्षेत्रो के लिए जैसे परिवहन, प्लास्टिक उत्पादन आदि चुप्पी साध ली जाती है. उर्जा उत्पादन के अलावे जीवाश्म ईंधन कम से कम एक चौथाई से ज्यादा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है.


सभी देशों को गंभीर होने की जरूरत


आज जब शिक्षा, संवेदना के शिखर काल में पूरा विश्व पहुँच चुका है, तब भी जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर संकट पर विकसित और ऐतेहिसिक रूप से संकट के लिए जिम्मेदार देशों  के आचरण को ना ही गंभीर और ना ही ईमानदार कहा जा सकता है. हालांकि इस बैठक की पावती को दरकिनार नहीं किया जा सकता है, पर ये चलो कुछ तो मिला जैसा ही है, कम से नुकसान और क्षतिपूर्ति कोष की बात तो आगे बढ़ी, कम से कम उर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को ख़त्म करने पर चर्चा तो हुई, यहाँ तक कृषि और खानपान के तरीकों  को तो टेबल पे रखा गया,ऊर्जा क्षमता को तीन गुना और ऊर्जा कुशलता में सुधार जैसी अनोखी बात तो हुई, पर इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे ऐतिहासिक समझा जाये . हमारे ये सारे प्रयास नाकाफी हैं, कॉप-28 के घोषणापत्र को प्रस्तुत करते समय सभी देशों की एकजुटता या जबरन की एकजुटता वैसी है जैसे हाथी के दाँत खाने को और, दिखाने को कुछ और! 



[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]