राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का 9 नवंबर को आया फैसला सर्वसम्मति से हिंदू पक्षों की तरफ आया और इसकी मुस्लिमों, उदारवादी और उन लोगों ने आलोचना की जो देश में धर्मनिरपेक्षता की घटती संभावनाएं को लेकर दुखी हैं. अदालत के फैसले में जो कुछ भी विरोधाभास पाए जा सकते हैं उसको दोहराने की जरूरत नहीं है लेकिन इस फैसले के कुछ पहलू निश्चित रूप से उन लोगों के लिए पहेली बने रहेंगे जिनके पास विवाद के मुद्दों की मौलिक समझ मौजूद है. उदाहरण के लिए सुप्रीम कोर्ट कैसे इस नतीजे पर पहुंचा कि हिंदुओं ने अपने दावे के पक्ष में जो दावे पेश किए वो मुस्लिम पक्ष ने जो सबूत पेश किए उनकी बजाए विवादित संपत्ति पर बेहतर हक पेश करते हैं. क्या सिर्फ संभावनाओं के आधार पर? इसके पीछे जो कारण दिए गए वो खास तौर पर अदालत की असावधानी की ओर इशारा करते हैं जैसे कि अदालत ने माना कि 1857 से 1949 तक मुस्लिम बाबरी मस्जिद में इबादत करते थे, तो इसके पीछे अवश्य कुछ कारण रहे होंगे कि 1857 से पहले 300 सालों तक बाबरी मस्जिद का किस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल होता रहा होगा, लेकिन अदालत ने इनको नहीं बताया.


सुप्रीम कोर्ट का फैसला जहां तक भावना की बात है कई मौलिक मायनों में विरोधाभासी और परेशान करने वाला है. अदालत ने यहां तक कहा कि “मुस्लिमों को पूजा और कब्जे से बाहर करने का काम 22/23 दिसंबर 1949 की रात को हुआ जब मस्जिद की जगह पर हिंदू मूर्तियों की स्थापना की गई. उस मौके पर मुसलमानों को मस्जिद से किसी भी कानूनी अधिकार के माध्यम से बाहर नहीं किया गया था, बल्कि ये कृत्य उन्हें उनकी पूजा की जगह से वंचित करने के लिए पूरी कैलकुलेशन के आधार पर किया गया था. इसी तरह, अदालत ने 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद को नष्ट करने की स्पष्ट और असमान शब्दों में निंदा की और इसे " प्रबल तरीके से कानून को तोड़ने" के रूप में परिभाषित किया. फिर क्यों, कानून तोड़ने वालों और हिंसा के अपराधियों को दंडित करने के बजाय पुरस्कृत किया जाना चाहिए, जो कि इस मामले में हुआ है, क्या इसमें शक नहीं है? जो लोग इस फैसले का बचाव कर रहे हैं उन्होंने तर्क दिया है कि न्यायालय ने इस मामले को सिर्फ इस तथ्य पर तौला कि मुसलमानों या हिंदुओं में से किसके पास भूमि का बेहतर दावा था. लेकिन यह तर्क दूर-दूर तक भी उन लोगों को आश्वस्त नहीं कर सकता है जो इस निर्विवाद तथ्य को मानते हैं कि एक मस्जिद जो कि विवादित भूमि पर लगभग 5 सदी तक रही वो अब अस्तित्व में नहीं है. कोर्ट के अपने फैसले में इस बात को साफ कहा कि "मुसलमानों को गलत तरीके से मस्जिद से वंचित किया गया है, जो 450 साल पहले अच्छी तरह से बनाई गई थी.


शायद इसी वजह से अदालत के फैसले का सिर्फ वो ही लोग समर्थन नहीं कर रहे हैं जो इस फैसले से खुश हैं बल्कि अन्य लोग भी तारीफ कर रहे हैं क्योंकि इसके पीछे ये तर्क दिया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट को बेहद ही कठिन और संभवतः विस्फोटक स्थिति से निपटना था. मस्जिद और मुस्लिम समुदाय को नुकसान पहुंचाने के बावजूद न्यायालय के फैसले को एक विवाद के निपटारे और उसे भारत में न्यायिक निकायों के बैलैंसिंग एक्ट के प्रदर्शन के रूप में पढ़ा जा सकता है वो भी तब जब एक हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी सत्ता के लगभग सभी लीवरों को नियंत्रित करती है. हाल ही में कुछ 100 मुसलमानों ने एक बयान पर साइन किए जिनमें प्रमुख कलाकार, कार्यकर्ता और लेखक के साथ ही किसान, इंजीनियरिंग के छात्र और घर बनाने वालों ने अपने साथी मुसलमानों को आगे मुकदमेबाजी से बचने के लिए आग्रह किया है. हालांकि इसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के समर्थन के रूप में नहीं देखा जा सकता बल्कि ये उस कटु सत्य को उजागर करती है कि अयोध्या विवाद को जारी रखना भारत के मुस्लिमों को नुकसान ही पहुंचाएगा न कि उनकी मदद करेगा. उनका नोट पढ़ने पर दर्दनाक लगता है क्योंकि ये याद दिलाता है कि विवाद को बार-बार दोहराने ने मुसलमानों को ही नुकसान पहुंचाया है. “क्या हमने कड़वे अनुभव से नहीं सीखा है कि किसी भी सांप्रदायिक संघर्ष में, यह गरीब मुसलमान है जो कीमत चुकाता है.


उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष विवाद के कई टीकाकारों ने इस प्रकार मुस्लिम समुदाय के भविष्य के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पर विचार करने की मांग की है लेकिन इससे जुड़े एक और पेचीदा सवाल भी है जिस पर ज्यादा विचार नहीं किया गया है और वो ये है कि इस फैसले का हिंदुओं के लिए क्या अर्थ है. ज्यादातर लोगों के लिए ये बेहद साफ है. एक हिंदू राष्ट्र बनाने के प्रोजेक्ट को इस फैसले से असाधारण मदद मिलेगी. इस फैसले के समर्थक और विरोधी दोनों ये मानते हैं कि एक धर्मनिरपेक्ष राजनीति से भारत का परिवर्तन इस हद तक हो जाएगा कि यह जीवन के अधिकांश क्षेत्रों में एक हिंदू राष्ट्रवादी राज्य के रूप में देखा जाएगा. चाहे वो शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थान हों या सांस्कृतिक मानदंड हों, हर तरह की सामाजिक परिस्थिति में ये बदले हुए सामाजिक पैटर्न के बदलाव देखे जाएंगे. पढ़ाई जाने वाली टेक्स्टबुक्स में हिंदू गौरव का वर्णन करने वाली कथाओं को शामिल करने का काम लंबे समय से चल रहा है, जाहिर तौर पर इसको आगे चलकर राज्यों की और फंडिंग मिलेगी. धर्मनिरपेक्षतावादी हिंदुओं की ओर से बढ़ती असहिष्णुता को खत्म कर देंगे, जबकि राष्ट्रवादियों का तर्क होगा कि पहली बार हजार सालों में, हिंदू अंततः एकमात्र देश में आसानी से महसूस कर सकता है, जिसे वह सिर्फ अपना कह सकता है. इसके अलावा हिंदू राष्ट्रवादी के दृष्टिकोण से, हिंदू अब अपने धर्म के लिए खुद को शर्मिंदा महसूस नहीं करेंगे और पूरी दुनिया को भारत को इस तरह से पहचानने के लिए मजबूर किया जाएगा कि यह एक ऐसा देश है जो अपनी उत्पत्ति और आत्मा में मूल रूप से हिंदू है.


हालांकि इस फैसले के बावजूद हिंदुओं के लिए जो दांव पर लगा है वो बहुत गहरा है. आइये उनमें से कुछ के बारे में हम यहां बात करते हैं और उनके असर को देखते हैं. सबसे पहले हिंदुत्व को समझने के लिए लोगों को और विविधतापूर्ण जीवन जीने के लिए बाध्य किया जा सकता है. ऐसे कुछ लोग जो अपने आप को हिंदू कहते हैं वो न तो गीता, रामायण और उपनिषद पढ़ते हैं और न ही हिंदू धर्म के अन्य सैकड़ों लिखित ग्रंथों को पढ़ते हैं. वो मंदिरों में जाते हैं, और इनके अलावा कुछ लोग ऐसे हैं जो सिर्फ ध्यान लगाते हैं, सेवा करते हैं और अपने इष्ट देवता की घरों में पूजा करते हैं. इसके अलावा और भी कई परिस्थिति हैं, कई तरह की प्रेक्टिस हैं जो हिंदुत्व की छत्रछाया के नीचे आती हैं, उन सबको एक साथ समाहित करना हिंदुत्व के लिए जरूरी होता है. फिर भी "मंदिर वाले हिंदुत्व" के प्रति एक लगाव का परिवर्तन यहां दिखाई दे रहा है जो न केवल मुसलमानों और दलितों के खिलाफ, बल्कि हिंदू धर्म की अन्य प्रथाओं और धारणाओं के अनुयायियों के विश्वास के प्रति भीतर ही बढ़ती असहिष्णुता को भी दिखाता है. मंदिर वाले हिंदुत्व को सांप्रदायिकता की स्थापना के एक मोड के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन यह एक व्यक्ति के धार्मिक पालन और संख्या की ताकत की एक मौन घोषणा भी है. सवाल ये है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला मंदिर वाले हिंदुत्व को विश्वव्यापी होने की दिशा को सहारा नहीं देगा?


दूसरे, अगर कोई यह मानता है कि पूरा अयोध्या आंदोलन एक जोरदार, आक्रामक और गरिमापूर्ण उद्यम रहा है, तो क्या ऐसा नहीं है कि हिंदू होने का मतलब क्या है, इसका मौलिक अर्थ पिछले कई दशकों में पूरे रूप से बदल गया है. हिंदू धर्म कभी भी, जैसा कि मैंने पहले ही कहा हममें से कुछ हिंदू धर्म के संतों और भक्तों का धर्म था, मीठे और अक्सर भक्ति गीतों का धर्म था, अब इसका स्वरूप बदलता दिखाई दे रहा है. अयोध्या आंदोलन जो कि 1990 में आडवाणी द्वारा देश भर में चलाए गए रथ यात्रा के बाद शुरू हुआ था. यह एक सामान्य मामला नहीं था तो कुछ असाधारण भी नहीं था, ये सिर्फ एक तमाशे के रूप में आर्केस्ट्रा और मीडिया के लिए डिज़ाइन किया गया था. इस आंदोलन के अन्य चरण के रूप में भक्तों ने बेहद विकराल रूप से 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर दिया. जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को ज्यादा तवज्जो नहीं दी और इसके अलावा अदालत ने देश में बढ़ते अशांत, तेज और जोरदार हिंदुत्व के रूप के आगे आत्मसमर्पण कर दिया.


तीसरी बात, हालांकि इस तरह का प्रस्ताव मध्यवर्गीय हिंदुओं के लिए अनुचित हो सकता है, जिन्हें आक्रामक हिंदू राष्ट्रवाद के सबसे संभावित समर्थक के रूप में परिभाषित किया जा सकता है. हिंदुत्व एक ऐसा धर्म है जो कि इतिहास के बजाए मिथकों पर चलता है. इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह एक ऐतिहासिक संस्थापक से विलक्षण रूप से रहित है. साथ ही जब भी हिंदुत्व की बात होती है तो किसी एक शब्द पर आधारित व्याख्या को लेकर बात नहीं होती है. यहां मैं बेहद सावधानी के साथ कहता हूं जिसे कुरान या बाइबिल के समकक्ष माना जा सकता है कि कोई "हिंदू" हाल के दिनों में तुलनात्मक रूप से कभी इस तथ्य से परेशान नहीं किया गया था कि न तो राम और न ही कृष्ण को यीशु या मुहम्मद जैसे ऐतिहासिक आंकड़े के रूप में देखा जा सकता है. लेकिन अफसोस है कि इतिहास हमारी आधुनिकता के मास्टर कथा बन गए हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को हम इतिहास और राष्ट्र के लिए एक विनाशकारी स्थिति को टालने के रूप में देख सकते हैं. हो सकता है कि हिंदुओं ने एक मंदिर जीता है और जैसा कि वे सोचते हैं, अपने "अपमान" का बदला लिया है, साथ ही अपने गौरव को वापस प्राप्त किया है, लेकिन अगर राष्ट्र इसी धारणा के साथ चलता रहेगा तो वे अपना धर्म खो सकता है.


विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं. 



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