ऐसे वक्त में जब विराट कोहली की टीम इंडिया का टॉप आर्डर अपने पूरे रंग में नहीं दिखाई दे रहा है. ‘टेलेंडर्स’ यानि पुछल्ले बल्लेबाजों ने पूरी जिम्मेदारी उठाई है. पिछले कुछ टेस्ट मैचों में रनों का जोड़ घटाना देखिए. मोहाली टेस्ट मैच की पहली पारी में आर अश्विन और रवींद्र जडेजा की अगुवाई में पुछल्ले बल्लेबाजों ने 229 रन जोड़े. इसमें 72 रन आर अश्विन के थे. 90 रन रवींद्र जडेजा के. 55 रन जयंत यादव और 12 रन उमेश यादव के. कुल मिलाकर हुए 229 रन. यानि भारत की पहली पारी में कुल स्कोर 417 रन में आधे से ज्यादा ‘टेलएंडर्स’ ने बनाए.


अगर टीम इंडिया के टॉप ऑर्डर के रन जोड़ दिए जाएं तो कुल 167 रन होते हैं. इसमें मुरली विजय के 12, पार्थिव पटेल के 42, चेतेश्वर पुजारा के 51 और विराट कोहली के 62 रन शामिल हैं. ऐसा भी नहीं है कि पुछल्ले बल्लेबाजों ने ये जिम्मेदारी पहली बार दिखाई है. विशाखापत्तनम में खेले गए पिछले टेस्ट मैच का स्कोरकार्ड याद कीजिए. वहां भी पहली पारी में आर अश्विन, जयंत यादव और उमेश यादव ने मिलकर 100 से ज्यादा रन जोड़े थे. इसमें 58 रन आर अश्विन ने बनाए थे. 35 रन जयंत यादव और 13 रन उमेश यादव ने बनाए थे. यहां तक कि दूसरी पारी में 204 रनों के बेहद छोटे स्कोर में 60 रन जयंत यादव, रवींद्र जडेजा और मोहम्मद शमी ने मिलकर बनाए थे.



अब भी यकीन नहीं आ रहा है तो सीरीज को और ‘रिवाइंड’ करिए. राजकोट में इंग्लैंड के खिलाफ पहले टेस्ट मैच का स्कोरकार्ड भी याद कीजिए. वो टेस्ट मैच ड्रॉ हो गया था. उस टेस्ट मैच की पहली पारी में भी आर अश्विन ने 70, ऋद्धिमान साहा ने 35 और रवींद्र जडेजा के 12 रन की बदौलत 117 रन जुड़े थे. दूसरी पारी में तो विराट कोहली की अगुवाई में आर अश्विन और रवींद्र जडेजा के 32-32 रनों की बदौलत ही टेस्ट मैच बच गया था. वहां पुछल्ले बल्लेबाजों की एक छोटी सी गलती टीम इंडिया को बहुत भारी पड़ सकती थी.

पिछली सीरीज में भी जिम्मेदारी उठाई
अभी और सबूत चाहिए तो न्यूजीलैंड के खिलाफ पिछली टेस्ट सीरीज के रिकॉर्ड्स भी खंगाल लेते हैं. इंदौर में तो खैर जरूरत नहीं पड़ी थी. लेकिन उससे पहले कोलकाता में भारतीय टीम के लिए पहली पारी में 108 रनों का योगदान पुछल्ले बल्लेबाजों का था. इसमें आर अश्विन के 26, ऋद्धिमान साहा के 54, रवींद्र जडेजा और मोहम्मद शमी के 14-14 रन थे. दूसरी पारी में जब टीम इंडिया का कुल स्कोर ही 263 रनों का था, उसमें भी 58 रन ऋद्धिमान साहा और 23 रन भुवनेश्वर कुमार के बल्ले से निकले थे. आप जैसे जैसे टेस्ट मैच के रिकॉर्ड्स खंगालते जाएंगे आपको ये बात और ज्यादा सच लगने लगेगी कि पिछले कुछ साल में टीम इंडिया के ‘बड़े मियां’ भले ही ‘बड़े मियां’ ना हो लेकिन ‘छोटे मियां’ तो सुब्हान अल्लाह ही रहे हैं.



यानि पिछले कुछ साल में टीम इंडिया के पुछल्ले बल्लेबाजों ने हर मौके पर बल्ले से अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है. ये बात सच है कि आर अश्विन, ऋद्धिमान साहा या फिर रवींद्र जडेजा जैसे खिलाड़ियों की साख एक बल्लेबाज के तौर पर भी है. बड़ा फर्क ये है कि अब ये साख अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में भी पुख्ता होती दिख रही है. वरना कुछ साल पहले तक स्थिति ये होती थी कि टीम इंडिया के पुछल्ले बल्लेबाजों के खाते में घरेलू क्रिकेट में ढेरों रन होते थे लेकिन अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में वो अक्सर फिसड्डी साबित होते थे. पिछले 2 दशक के टेस्ट क्रिकेट को याद करने पर तमाम ऐसे मैच याद आते हैं जिसमें मिडिल ऑर्डर के आउट होने के बाद पुछल्ले बल्लेबाज मामूली से लक्ष्य तक को हासिल करने से चूक गए.



पिछले एक दशक में आया ये बदलाव
अगर सही मायनों में देखा जाए तो पुछल्ले बल्लेबाजों में विश्वास भरने का काम करीब एक दशक पुराना है. अनिल कुंबले और हरभजन सिंह जैसे पुछल्ले बल्लेबाजों ने अपनी बल्लेबाजी को गंभीरता से लिया. खास तौर पर सचिन तेंडुलकर की इस सलाह के बाद कि उन्हें अपने विकेट की कीमत समझनी चाहिए. इन दोनों ही बल्लेबाजों के खाते में टेस्ट शतक हैं. भारतीय टेस्ट क्रिकेट में इस दौर को ‘सुनहरे दौर’ के तौर पर याद रखा जाता है जब सचिन, द्रविड़, लक्ष्मण, गांगुली, सहवाग, कुंबले, हरभजन जैसे खिलाड़ी एक साथ मैदान में उतरते थे. इसी दौर के जाते जाते और यंगिस्तान के आते आते ये बदलाव भी देखने को मिला कि भारत के पुछल्ले बल्लेबाजों ने अपनी बल्लेबाजी पर मेहनत करना शुरू किया. बड़े नाजुक नाजुक मौकों पर जिम्मेदारी संभालना शुरू किया. उनमें भी ये विश्वास पैदा हुआ कि टीम में उनका रोल सिर्फ गेंद से योगदान देने भर तक नहीं है, उनसे ये अपेक्षा की जाती है कि जरूरत पड़ने पर वो क्रीज पर भी कुछ वक्त बिताएंगे.

इस बदलाव के मायने क्या हैं
एक वक्त था जब ऑस्ट्रेलिया की टीम वर्ल्ड क्रिकेट पर राज करती थी. मैदान में उतरने के साथ ही उसकी जीत तय लगने लगती थी. मैथ्यू हेडन, एडम गिलक्रिस्ट, जस्टिन लैंगर, रिकी पॉन्टिंग जैसे चोटी के बल्लेबाज टीम की बल्लेबाजी की जान हुआ करते थे. उस सुनहरे दौर की एक और खासियत थी उनके ‘टेलेंडर्स’  की बल्लेबाजी. ब्रेट ली, शेन वॉर्न और जेसन गिलेस्पी जैसे गेंदबाजों ने हमेशा क्रीज पर टिककर बल्लेबाजी की. इस बात को और पुख्ता करने के लिए ये आंकड़े हैं. जेसन गिलेस्पी टेस्ट क्रिकेट में दोहरा शतक लगा चुके हैं. शेन वॉर्न एक रन से शतक बनाने से चूक गए थे. हालांकि उनके नाम 12 टेस्ट अर्धशतक हैं. ब्रेट ली ने भी 5 अर्धशतक बनाए हैं.



कंगारूओं के सुनहरे दौर की यही खासियत पिछले कुछ समय से टीम इंडिया में भी दिखाई दे रही है. यानि अब वो दिन नहीं जब पुछल्ले बल्लेबाजों के क्रीज पर आते ही भारतीय क्रिकेट फैंस की सांसे अटक जाती थीं.