रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के अचानक ही मध्य-पूर्व के दौरे पर जाने की खूब चर्चा हो रही है. वह संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के दौरे से वापस लौट आए हैं, पश्चिमी देशों को इस दौरे ने काफी असहज कर दिया है. कूटनीतिक हलकों में भी पुतिन के दौरे की अलग व्याख्या की जा रही है. इस दौरे को अमेरिका अपने खिलाफ धुरी बनाने की रूसी कोशिशों के तौर पर देख रहा है. इस दौरे की अहमियत इससे भी समझी जाती है कि पिछले दो साल में पुतिन केवल तीन बार अपने देश से बाहर निकले हैं. 


तेल को लेकर रूसी सजगता


पुतिन का यह दौरा काफी महत्वपूर्ण है. रूस ने यूक्रेन पर जब से आक्रमण किया है, तब से यह उनका मात्र तीसरा विदेशी दौरा है. उन पर असल में जितने तरह के प्रतिबंध लगे हैं, उसके डर से भी वह ब्रिक्स या अन्य उस तरह के बहुपक्षीय सम्मेलनों में नहीं गए. इससे पहले वह केवल ईरान और चीन गए थे. अब वह मध्य पूर्व गए थे. इस दौरे के कारण भी हैं. रूस की अर्थव्यवस्था सबसे अधिक तेल पर आधारित है और जब से यूक्रेन से उसका युद्ध शुरू हुआ है, इस पर काफी प्रभाव पड़ा है. रूस एक बड़ा तेल-निर्यातक देश है. मध्य-पूर्व भी बड़ा इलाका है, जहां से तेल का निर्यात होता है. दुनिया का 50 फीसदी से अधिक तेल रूस और सउदी अरब में है. इसीलिए, दोनों ही देश करीब आ रहे हैं और यही कारण है कि पुतिन मध्य-पूर्व पर मेहरबान हुए हैं. वह इस दौरे के बाद अपने देश में भी वह मध्य-पूर्व के नेताओं से मिल रहे हैं. हाल ही में वह मॉस्को में भी इन देशों के नेताओं से मिल रहे हैं. 



अमेरिका पर दबाव की रणनीति


इसके अलावा एक कारण यह भी है कि अमेरिका की जो मध्य-पूर्व को लेकर नीति रही है, इजरायल-हमास युद्ध के दौरान खासकर अमेरिका जिस तरह से स्टैंड ले रहा है, उसे देखते हुए पुतिन को सही मौका यही लगा कि वह मध्य-पूर्व के देशों में अपनी दखल बढ़ा सकते हैं. इनके साथ रूस का पुराना संबंध रहा भी है. वे संबंध कोई खराब भी नहीं रहे हैं, तो पुतिन को लगा कि वे इनको रिवाइव कर एक बार फिर रूस को दुनिया के रंगमंच पर ला सकते हैं, जो फिलहाल थोड़ा कटा-छंटा हुआ है. अभी की हालत में रूस का थोड़ा आत्मविश्वास भी बढ़ा है और वह दुनिया में वापस अपनी पैठ बनाना चाह रहै है. अमेरिका को काउंटर करने के लिए भी यह उनकी कवायद है. रूस को इस समय दुनिया के बाकी देशों को अपने साथ जोड़ना है. उसने सोचा नहीं था कि यूक्रेन के साथ उसका युद्ध इतना लंबा खिंचेगा. इसको अब लगभग दो साल होने को आए और ये अभी और लंबा खिंच सकता है. ऐसी स्थिति में रूस दुनिया के बाकी देशों से अपने को काट कर नहीं रख सकता है. तो, साझीदारों की तलाश रूस को ईरान तक ले गयी है, मध्य-पूर्व तक ले गयी है.


नए साझीदारों की तलाश


चीन के साथ उसके संबंध प्रगाढ़ हैं ही. मध्य-पूर्व के साथ अगर रूस के संबंध ठीक हैं, तो यह पूरी दुनिया के लिए भी शुभ संकेत हैं. हमास-इजरायल युद्ध की छाया अगर लंबी पड़ी तो दुनिया में तेल का संतुलन गड़बड़ हो सकता है और यह रूस भी नहीं चाहता है. इसीलिए, उसने संयुक्त राष्ट्र के अविलंब युद्धविराम के प्रस्ताव का समर्थन किया. पिछली बार के संघर्ष-विराम का वैसे भी कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा था. अमेरिका भी हमास-इजरायल युद्ध के व्यापक होने और उसकी गंभीरता के बढ़ने को लेकर खासा चिंतित है. अमेरिका ने भी कई बार इजरायल को चेताया है कि वह हमास को मारे, लेकिन नागरिकों के साथ कोई संकट न आए. इसके पीछे अमेरिका के अपने हित हैं. उसके जो सामरिक हित हैं, पश्चिमी देशों के साथ, वह एक अलग खेमा है और उसकी एक अलग चाहत है. रूस भी चाह रहा है कि दुनिया के बाकी देश उसके समर्थन में आ जाएं. इसके लिए उन्होंने मध्य-पूर्व से शुरुआत की है. दो साल में यह उनका बस तीसरा विदेश दौरा है. यह दौरा बताता है कि रूस की नजर में मध्य-पूर्व के देशों का क्या महत्व है. 


भारत से बनी रहे दोस्ती


भारत और अमेरिका के जो संबंध हैं, वो आर्थिक और सामरिक तरीके से मजबूत हो रहे हैं. रूस अभी इस हालत में नहीं है कि वह भारत की पुरानी तरह से मदद कर सके. भारत की जरूरतें चीन और पाकिस्तान से बढ़ते खतरे को देखते हुए बढ़ती जा रही हैं, चाहे वह सामरिक तरीके से हो या रणनतीकि, आर्थिक या सैन्य तरीके से. रूस अभी वह कर नहीं सकता, तो चाहता है कि भारत से उसके संबंध कम से कम मधुर तो बने रहें. पुतिन भारत सरकार और मोदी की बड़ाई इसीलिए करते रहे हैं. भारत के मध्य-पूर्व से भी अच्छे संबंध रहे हैं. रूस और मध्य-पूर्व के संबंध अगर ठीक हो रहे हैं तो यह एक त्रिकोणीय संबंध बन सकता है. यह जो त्रिकोण होगा, वह भारत और रूस दोनों के हित में होगा. अमेरिका के साथ मध्य-पूर्व के संबंधों में थोड़ी खटास तो पड़ ही गयी है. रूस इसी का फायदा उठाना चाह रहा है. 




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