हमारे पौराणिक शास्त्रों में लिखा है कि जब पड़ोसी का घर जल रहा हो,तो उस आग को बुझाने का सबसे पहला फ़र्ज़ आपका बनता है क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया,तो उस आग की चपेट में आने का अगला निशाना आप ही होंगे. ये मान्यता दुनिया के तमाम देशों की कूटनीति पर भी हूबहू लागू होती है.सबसे नजदीकी पड़ोसी देश श्रीलंका में हो रहे अराजकता के नंगे नाच को देखकर भारत कभी खुश नहीं हो सकता,बल्कि ये हमारे लिए ज्यादा बड़ी चिंता का विषय इसलिए भी है कि कुछ अराजक ताकतें ऐसा कोई ट्रेलर दिखाने की हिमाकत यहां भी करने की कोशिश न करें.


बेशक श्रीलंका हमारा छोटा-सा ही पड़ोसी है लेकिन आर्थिक कंगाली के हाल से गुजर रहे देश को भारत ने उदार दिल से मदद करते हुए अपने बड़ा भाई होने के फ़र्ज़ को ही निभाया है. सब जानते हैं कि नकदी के नाम पर इस वक़्त श्रीलंका का सरकारी खजाना पूरी तरह से खाली हो चुका है. जहां सरकार की नौबत  ही कटोरा फैलाकर भीख मांगने की आ जाये,तो समझा जा सकता है कि वो अपनी जनता को दो वक़्त की रोटी मुहैया कराने का दावा भी आखिर किस मुंह से कर सकती है.


लेकिन मोदी सरकार को हर मुद्दे पर घेरने और आलोचना करने वाले विपक्षी दलों को अपनी दलगत राजनीति से थोड़ा उठकर ये भी सोचना होगा कि अंतराष्ट्रीय कूटनीति को कायम रखने के लिये सरकारें कुछ ऐसे फैसले भी लेती हैं,जिनका डंका बजाकर उसकी वाहवाही लेना ही मकसद नहीं होता है.बल्कि अपने कमजोर साथी की मदद करके उसे  ऐसे ताकतवर सूदखोर के जंजाल से छुटकारा दिलाना भी होता है,जो हमारा सबसे बड़ा दुश्मन भी है.पिछले एक दशक में चीन ने श्रीलंका को इतना कर्ज देकर अपने कब्ज़े में करने की कोशिश की है कि उसे अपने बंदरगाह तक चीन को गिरवी रखने पड़े हैं.


चीन ने जब श्रीलंका के साथ गलबहियां डालने की शुरुआत की थी,तब भारत खामोश रहकर दूर से ही ये देख रहा था कि चीन के इस दानेदार जाल में श्रीलंकाई मछली किस हद तक फंसती है.लेकिन तब ये देखकर भारत भी हैरान रह गया था कि श्रीलंका को चीन ने कर्ज देकर न सिर्फ उसे अपने घुटनों पर झुकाया है,बल्कि उसके ऐसे सामरिक अड्डों पर भी  अपना कब्ज़ा ज़माने की शुरुआत कर दी है,जो भारत की सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण हैं.इसलिए कि उन बंदरगाहों पर स्थायी रूप से चीनी नौ सेना का कब्ज़ा हो गया,तो वह भारत के लिए खतरे का सबसे बड़ा अलार्म होगा क्योंकि सबसे ताकतवर दुश्मन समुद्री रास्ते से हमारे सबसे नजदीक होगा.


इसलिए ये कहना गलत नहीं होगा कि भारत के विदेश सचिव रहते हुए दुनिया की तीन बड़ी ताकतों और यूरोपीय देशों की कूटनीति को समझने वाले विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने श्रीलंका को लेकर पीएम मोदी को जिस तरह से विश्वास में लेकर बेहद सधी हुई रणनीति को अंजाम दिया है,वो भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत होने के साथ ही चीन के मुंह  पर तमाचा भी है.हालांकि देखने वाली बात ये होगी जो भारत के लिए ज्यादा अहम होगी कि आने वाले दिनों में चीन इस पर कैसे रियेक्ट करता है?


रविवार को अपने गृह राज्य पहुंचे विदेश मंत्री जयशंकर ने साफ कर दिया कि 'भारत हमेशा से श्रीलंका का समर्थन करता रहा है.लेकिन फिलहाल वहां  कोई शरणार्थी संकट नहीं है. हम इस वक़्त भी उनकी मदद करने की कोशिश कर रहे हैं."श्रीलंका के ताज़ा आर्थिक संकट पर पूछे गए सवाल पर उन्होंने इतना ही कहा कि, "फिलहाल वो अभी अपनी समस्याओं को हल करने का प्रयास कर रहे हैं, लिहाजा हमें इंतज़ार करना होगा और ये देखना होगा कि वो क्या करते हैं."


विदेश मंत्रालय के सूत्र बताते हैं कि हालांकि मोदी सरकार ये खुलासा अपनी तरफ से नहीं करना चाहती थी लेकिन रविवार को मीडिया के सवाल आने पर आखिरकार ये बताना पड़ा कि श्रीलंका को भारत ने इस साल 3.8 बिलियन डॉलर की मदद पहुंचाई है.विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा कि, हम उन कई चुनौतियों से अवगत हैं जिसका सामना श्रीलंका और वहां के लोग कर रहे हैं. इस कठिन दौर से उबरने की कोशिश में हम श्रीलंका के लोगों के साथ खड़े हैं.उन्होंने ये भी कहा कि "नेबरहुड फर्स्ट नीति की केंद्र में श्रीलंका है और इसे देखते हुए भारत ने इस साल श्रीलंका में गंभीर आर्थिक स्थिति को सुधारने को लेकर 3.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का अभूतपूर्व समर्थन दिया है."


जरा सोचकर व जोड़कर देखिये कि भारतीयों रुपयों में ये कितनी बड़ी मदद है ,जिसके लिए पाकिस्तान आज भी तरस रहा है. हमारी तिजोरी में होगा भी, तब भी पड़ोसी तो छोड़िये, अपने सगे छोटे भाई को भी उसका हिस्सा देने से पहले सौ बार सोचेंगे. सो, ऐसी हालत में कंगाल हो चुके अपने पड़ोसी को इतनी बड़ी मदद देने को हम मोदी सरकार की "दरियादिली" नहीं तो और क्या कहेंगे?



(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)