हाल ही में ‘इंडिया जस्टिस’ नाम की एक रिपोर्ट आई है. इसके मुताबिक भारत की जेलों में 77 फीसदी कैदी ऐसे हैं जो अंडरट्रायल हैं यानी जिनका मुकदमा चल रहा है. केवल 22 फीसदी कैदियों को सजा मिली है यानी वे कनविक्टेड इनमेट्स हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. भारत जैसे देश जहां लगभग 1.40 अरब लोग रहते हैं, वहां ये स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है कि 22 फीसदी ही कनविक्टेड लोग हैं, बाकी 77 फीसदी अंडरट्रायल हैं हमारे देश की जेलों में. हमारे यहां 134 सेंट्रल जेल हैं, करीबन 400 जिला जेल हैं और उससे थोड़ा कम या ज्यादा सब-डिवीजनल जेल हैं, फिर स्पेशल जेल हैं और महिलाओं की जेल अलग है. इसके बावजूद अगर मैं आपको तिहाड़ की हालत बताऊं तो आप हैरान हो जाएंगे. 


हमारे यहां जो ये 22 बनाम 77 प्रतिशत का मामला है, इसे हम आइसोलेशन में नहीं देख सकते. हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था समय पर न्याय नहीं दे पाती. जब तक व्यवस्था न्याय देती है, तब तक उसका कोई महत्व नहीं रहता है. इसके लिए न्यायपालिका भी दोषी है, लेजिस्लेचर भी और एक्ज्क्यूटिव भी. जजों के अपॉइंटमेंट की फाइलें लटकी रहती हैं.


जिस देश में जजों की नियुक्ति न्यूज का आइटम बन जाए, जहां पर रेकमेंडेशन पड़ा रहता है, फाइलें पड़ी रहती हैं, उस देश में न्याय कैसे मिलेगा? अगर त्वरित न्याय मिल जाए तो ये कोई बात ही नहीं रहेगी. अगर आप जल्दी न्याय दे देंगे तो फिर न तो इतनी बड़ी संख्या में अंडरट्रायल बचेंगे और न ही कोई बिना न्याय के रहेगा. इस देश में बहुतेरी चीजों की जरूरत है, लेकिन न्याय की जरूरत सबसे अधिक है. आर्थिक न्याय हो, सामाजिक या राजनीतिक न्याय हो, लेकिन न्याय के बिना तो आदमी का एग्जिस्टेंस ही फिजूल हो जाता है. 


हमारे लीगल सिस्टम में कई छिद्र हैं



हमारा जो लीगल सिस्टम है, वह कॉलोनियल है. अंग्रेजों ने वह बनाया है और अंग्रेजों ने उसे भारतीयों के लिए बनाया था. मतलब ऑप्रेसर ने ऑप्रेस्ड के लिए. वह आपकी व्यवस्था नहीं है. आप इम्पोर्ट करके लाए हैं. तो, इस व्यवस्था को समझने में ही समय लग जाता है. मतलब सुप्रीम कोर्ट में कोई गरीब क्या, अनपढ़ क्या, पढ़ा-लिखा आदमी भी पेटिशन फाइल नहीं कर सकता है. वहां इतनी अड़चनें हैं. मतलब, पहले पास दिखाओ, फिर वो टेक्निकल भाषा. तो, आम आदमी कैसे करेगा. 


न्याय को तो सहज-सरज होना चाहिए


कोर्ट में अंदर जाने के लिए आधार कार्ड और फ्रिस्किंग काफी होनी चाहिए. अब जिस तरह से वहां पास वगैरह का झमेला है. जब न्याय व्यवस्था के प्रेमाइसेज में कोई आम आदमी नहीं जा सकता तो न्याय की तो बात ही छोड़ दीजिए। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में तो सभी को प्रवेश मिलना चाहिए. अब मान लीजिए कि कोई प्रोफेशनल वकील जिस तरह मामला दाखिल करते हैं, उसी तरह कोई पढ़ा-लिखा आदमी जो इतना काबिल है कि वह अपना मामला देख सकते हैं, उनको तो वह देना चाहिए. हालांकि, तामझाम ही इतना है, ए-4 शीट में होना चाहिए, ये फांट होना चाहिए तो कोई आम आदमी कैसे करेगा? 


व्यवस्था को तो ठीक कीजिए
मान लीजिए ट्रायल कोर्ट की बात करते हैं. अब पुलिस वाले ने गवाही दी. उसका ट्रांसफर हो गया. तो, गवाही तो उसी को देनी पड़ेगी न. वो दूसरे थाने में वो चला गया, कभी वीआईपी सेक्योरिटी में है और डेट लग गई तो उसको ठीक करना पड़ेगा. व्यवस्था की खामियों को तो दूर कीजिए. आप एक बात बताइए. पांच साल में इलेक्शन कैसे हो जाते हैं, फिर न्याय मिलने की यह सुस्त चाल क्यों? जब तक अकाउंटेबिलिटी नहीं है, आप जिम्मेदारी का निर्धारण नहीं करेंगे तो तब तक कैसे चलेगा, तब तक व्यवस्था नहीं सुधर सकती है. 


लिमिटेशन एक्ट है तो डिस्पोजल एक्ट क्यों नहीं? 


आप देखिए, व्यवस्था को कसना पड़ेगा. आपने लिमिटेशन एक्ट तो रखा है कि इतने दिनों में ही अपील कीजिए, तो फिर डिस्पोजल एक्ट क्यों नहीं है, जज साहब क्यों नहीं देखते हैं कि वह दो साल में या इतने दिन में मामला खत्म कर देंगे. कथनी और करनी का बहुत बड़ा फर्क है. देखिए, हमने कुछ तो अमेरिका से ले लिया, कुछ ब्रिटेन से, कुछ फिनलैंड से और बड़े-बड़े शब्द रख दिए हैं. जिस देश में इतनी समस्याएं हैं, भुखमरी, बेरोजगारी, युवा-असंतोष है, वहां केवल खोखले शब्दों की चर्या कितनी मायने रखती है. 


सब कुछ तो प्राइवेटाइज हो गया, न्याय की तो जिम्मेदारी लें


अब देखिए. हेल्थ तो प्राइवेटाइज हो गया, रेल भी प्राइवेटाइज हो गया. शिक्षा भी निजी हाथों में है तो आपके पास तो बस न्याय और पुलिस रह गया है. इस पर तो ध्यान दीजिएगा आप. कहने का अर्थ ये है कि जब तक सरकार की मानसिकता जन-केंद्रित न होगी, कुछ नहीं हो सकता है. राइट टू लाइफ जो है हमारे कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 21 में, उसको इनफोर्स कराने की जरूरत है. न्याय तो राइट टू लाइफ में ही आता है न भाई. अभी 53 साल का मामला जब यू ललित चीफ जस्टिस थे, तो मेडियेशन से उन्होने खत्म कराया. अब सोचिए कि 53 साल पुराना मामला. तो कैसी स्थिति है. अभी मैंने हाईकोर्ट में एक पेटिशन डाला था कि कोविड काल में जिन अधिकारियों ने हीला-हवाली की, उनकी जिम्मेदारी तय हो और उन पर कार्रवाई हो, तो दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने ही कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है. 


हमारी जेलें ठसाठस भरी हुई हैं


आप दूर कहां जाते हैं. तिहाड़ का उदाहरण लीजिए. वहां की क्षमता 10 हजार है और वहां की ऑक्युपेंसी है 19 हजार. तिहाड़ को मॉडल जेल माना जाता है.यहां देश के पीएम, राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहते हैं, लेकिन उसको हम मॉडल जेल के तौर पर पेश करते हैं. ये हमारे देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है? 


हालात सुधारने के उपाय बेहद आसान
अगर हम उपाय करना चाहते हैं, इस स्थिति से निबटना चाहते हैं तो हर पुलिस स्टेशन में एक जूडिशल मैजिस्ट्रेट को बिठाने से शुरुआत हो. जैसे ही पकड़ में आता है कोई भी अपराधी, तो वहीं ट्रायल हो और अगर वह बेल पाने के लायक नहीं है तो उसको जेल भेजिए. यहां से शुरुआत हो सकती है. उसी प्रकार हाइअर कोर्ट के जो जज हैं, वे अंडरट्रायल जो कैदी हैं उनके मामले को प्राथमिकता दें. पटना हाईकोर्ट में पांच महीने लगते हैं, बेल तक पहुंचने के लिए. 


मेरा कहना है कि प्रक्रिया को सहज-सरल करें, डिस्पोजल की अवधि तय करें. हमारे यहां जो ट्रायल है, वह भी गड़बड़ होता है, तो उसको भी ठीक करें. कई मामलों में 20-20 गवाह होते हैं, 50 गवाह होते हैं. अभियोजक यानी प्रॉजीक्यूटर को मेला नहीं लगाना चाहिए, बल्कि कम गवाह रखने चाहिए.


[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]