समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से जुड़े मुद्दे पर सड़क से लेकर कोर्ट तक बहस हो रही है. उस मांग से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक पीठ सुनवाई कर रही है. इस पीठ में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस एस के कौल, जस्टिस एस आर भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पी एस नरसिम्हा शामिल हैं.


समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का मुद्दा सीधे-सीधे सितंबर 2018 के सुप्रीम कोर्ट के आईपीसी के सेक्शन 377 को लेकर दिए गए ऐतिहासिक फैसले से जुड़ा है, क्योंकि अगर वो फैसला नहीं आता तो फिलहाल भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग ही नहीं उठती.


सबसे पहले बात करते हैं कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मसले पर केंद्र सरकार की क्या राय है. जब से ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है, उसी वक्त से केंद्र सरकार इसका विरोध कर रही है. केंद्र सरकार की ओर से दलील दी जा रही है कि ये भारतीय परंपरा और संस्कृति के खिलाफ है. जितने भी विवाह से जुड़े कानून हैं, उनमें विवाह के लिए अपोजिट जेंडर का होना जरूरी है और उस लिहाज से समलैंगिक विवाह को मान्यता देना संभव नहीं है. केंद्र सरकार की दलील में ये भी शामिल है कि मैरिज से जुड़े एक्ट के अलावा भी बहुत सारे कानून हैं जिनमें व्यापक स्तर पर बदलाव की जरूरत पड़ेगी. जैसे उत्तराधिकार से जुड़े कानून, गोद लेने से जुड़े कानून. इसके अलावा केंद्र सरकार ये भी कह रही है कि अलग-अलग धर्मों के पर्सनल लॉ के हिसाब से भी ये सही नहीं है. केंद्र सरकार समलैंगिक विवाह को शहरी और अभिजात्य लोगों का विचार बता रही है. केंद्र सरकार का कहना है कि विवाह को मान्यता देना अनिवार्य रूप से एक विधायी कार्य है, जिस पर अदालतों को फैसला करने से बचना चाहिए.



यहां तक तो ठीक है, केंद्र सरकार इससे एक कदम आगे जाकर ये चाहती है कि सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई ही नहीं करें. उसका कहना है कि कानून बनाने का अधिकार संसद को है और ये उसी पर छोड़ा जाना चाहिए. सबसे पहले इसी दलील को समझने की जरूरत है कि आखिरकार केंद्र सरकार क्यों नहीं चाहती है कि सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करे, क्यों वो इन याचिकाओं को विचार योग्य ही नहीं मान रही है. दरअसल केंद्र सरकार को ये अच्छे से एहसास है कि सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने दो वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था. उस फैसले के आलोक में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का क्या रुख हो सकता है, इसको केंद्र सरकार के साथ ही हम आप भी बेहतर समझ सकते हैं.


ये भी ध्यान देने वाली बात है कि 2018 में आईपीसी की धारा 377 पर फैसला देने वाली संविधान पीठ में मौजूदा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ भी शामिल थे. पिछले कुछ महीनों से सुप्रीम कोर्ट में इस पर जो सुनवाई हो रही है और सुप्रीम कोर्ट के जजों की ओर से जिस तरह की टिप्पणी आ रही है, वो भी एक कारण है कि केंद्र सरकार चाहती ही नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक विवाह से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करें.


सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने 13 मार्च को इस मुद्दे को बेहद मौलिक मुद्दा बताते हुए इससे जुड़ी याचिकाओं को सुनवाई के लिए पांच सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेज दिया था. खुद चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़  हमेशा से ही ये कहते रहे हैं कि हर किसी के संवैधानिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की रक्षा होनी चाहिए और LGBTQ+ समुदाय को भी बराबरी का अधिकार है. 13 मार्च को भी जब केंद्र सरकार की ओर से दलील दी गई थी कि अगर समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दे दी जाती है तो फिर ऐसे जोड़े भविष्य में बच्चे भी गोद लेंगे और अगर ऐसा हुआ तो उस बच्चे की मानसिक स्थिति पर किस तरह का असर पड़ेगा. इस पर चीफ जस्टिस ने कहा था कि समलैंगिक जोड़े के गोद लेने के लिए बच्चे का समलैंगिक होना जरूरी नहीं है.


जब केंद्र सरकार ये दलील देती है कि समलैंगिक विवाहों की कानूनी वैधता से पर्सनल लॉ और स्वीकार्य सामाजिक मूल्यों के नाजुक संतुलन को गंभीर नुकसान पहुंचेगा, तो ये बात समझने की जरूरत है कि भारत में आजादी से पहले और आजादी के बाद भी पर्सनल लॉ और पहले से चली आ रही परंपराओं में कानून के जरिए सुधार किए गए हैं. जब जरूरत पड़ी तो सती प्रथा को रोकने के लिए भी आजादी से पहले ही कानून बने. 2019 में ही तलाक़ ए बिद्दत यानी  तीन तलाक़ जैसी परंपरा को रोकने के लिए संसद से मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम बना. ये भी गौर करने वाली बात है कि संसद से ये कानून तभी बना जब सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त 2017 को तीन तलाक की परंपरा को असंवैधानिक करार देते हुए केंद्र सरकार को इस पर कानून बनाना निर्देश दिया था. तो फिर केंद्र की इस दलील का कोई मतलब नहीं है कि विवाह जैसे पर्सनल लॉ से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट विचार नहीं कर सकती. हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में कानूनी तौर से विवाह की उम्र तय की गई है, जबकि पहले शादी बहुत कम उम्र में हो जाती थी. लेकिन जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, हमने उसमें भी कानून के जरिए एकरूपता लाया.


जहां तक 'एलीट कॉन्सेप्ट' से जुड़ी दलील है तो ये भी तर्क बायोलॉजिकल और मेडिकल पैरामीटर पर सही नहीं बैठता है. क्या सरकार ये बात कहेंगी कि जो भी समलैंगिक संबंध बनाने वाले लोग हैं वे मानसिक रोगी है या फिर अपने शौक को पूरा करने के लिए ऐसा करते हैं. ऐसा कतई नहीं है ये अब मेडिकल साइंस से प्रमाणित हो चुका है. हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि इसका संबंध बड़े शहर या अभिजात्य लोगों  से नहीं है. इसका संबंध सेक्सुअल ओरिएंटेशन से है, जो सीधे-सीधे जन्मजात और कुदरती है. ये कोई आर्टिफिशियल फीलिंग्स या ओरिएंटेशन नहीं है. गांव-देहात, कस्बे और छोटे शहरों में भी इस तरह की जन्मजात फीलिंग या ओरिएंटेशन वाले लोग हैं. ये अलग बात है कि मार-पीट और भेदभाव के डर की वजह से गांव-देहात में ये लोग खुलकर सामने नहीं आ पाते हैं.


जहां तक बात है कि अगर समलैंगिक विवाह को कानूनी दर्जा दे दी जाती है तो इससे व्यापक स्तर पर पहले से मौजूद कानूनों में बदलाव करना पड़ेगा. इसमें समस्या क्या है. संसद का काम ही कानून बनाना है. ये भी तो संसद को ही सुनिश्चित करना है कि देश में लोकतंत्र सही मायने में लागू हो और लोकतंत्र का ये मतलब नहीं होता कि हर पांच साल में चुनाव होते रहे. लोकतंत्र में देश के हर नागरिक को उसी सम्मान और उसी अधिकार के साथ जीवन जीने का मौका मिलना चाहिए जैसा बाकियों को मिलता है और जो भी समलैंगिक संबंध वाले कपल हैं, बतौर नागरिक उनको भी बाकी नागरिकों की तरह सारे अधिकार मिलने चाहिए.


ये सच है कि जब आईपीसी की धारा 377 तक तहत समलैंगिक संबंध अपराध की श्रेणी में आता था, तब ऐसी फीलिंग्स या ओरिएंटेशन वाले लोगों के प्रति समाज का नजरिया उतना अच्छा नहीं था. लेकिन बीते 5 साल में लोगों की मानसिकता में भी बदलाव आया है और समलैंगिकता को लेकर लोगों में स्वीकार्यता भी बढ़ रही है. धीरे धीरे ही सही, लोग इसे स्वीकार भी कर रहे हैं. अब वे लोग भी बहुतायत से सामने आ रहे हैं, जो इस तरह के संबंध में हैं. सबसे अच्छी बात तो ये है कि उनके विवाह करने के निर्णय में  उनके अभिभावक भी समर्थन में खड़े हो रहे हैं.


केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2012 में ही ये माना था कि भारत में 25 लाख से ज्यादा LGBTQ लोगों की आबादी है. ये आंकड़ा उस वक्त का था जब लोग खुलकर इस बात को स्वीकार करने से ही डरते थे. सामाजिक कार्यकर्ताओं के अभी के अनुमान के मुताबिक भारत में फिलहाल 10 फीसदी आबादी  LGBTQ लोगों की है. इस अनुमान के हिसाब से 13.5 करोड़ से ज्यादा लोग इस समुदाय से आते हैं. ऐसे में इतनी बड़ी आबादी को देश के बाकी नागरिकों की तरह ही वो सारे अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए. समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से जुड़ा एक बड़ा सवाल ये हैं.


समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का मुद्दा नागरिक हक़ के साथ ही नैसर्गिक अधिकारों से जुड़ा है. हर किसी को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार उसका संवैधानिक हक़ है. ये उसके अस्तित्व से जुड़ा मसला है. संविधान के अनुच्छेद 21 में जो प्रावधान हैं, उसके जरिए ही ये अधिकार हर नागरिक के लिए सुनिश्चित होता है. समलैंगिक विवाह को मान्यता पूरी तरह से समानता के मौलिक अधिकार से भी जुड़ा हुआ है.


जब हमारे देश में समलैंगिक संबंध वैधानिक है, तो फिर समलैंगिक विवाह को मान्यता उसका अगला पड़ाव ही होना चाहिए और इसी बात से समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता सीधे तौर से सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फैसले से जुड़ जाता है.


सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर 2018 को समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एकमत से ये फैसला सुनाया था. उस पीठ में मौजूदा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चन्द्रचूड़ भी शामिल थे.


2018 में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा था कि परस्पर सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंध अपराध नहीं हैं और ऐसे यौन संबंधों को अपराध के दायरे में रखने की धारा 377 के प्रावधान से संविधान से मिले समता और गरिमा के अधिकार का हनन होता है. हालांकि शीर्ष अदालत ने ये भी साफ किया था कि अगर दो वयस्कों में से किसी एक की सहमति के बगैर समलैंगिक यौन संबंध बनाए जाते हैं तो ये आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध की श्रेणी में आएगा और दंडनीय होगा. इसके जरिए सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के संबंधों में भी वयस्कता और सहमति को सर्वोपरि माना था.


सुप्रीम कोर्ट ने उस वक्त अपने आदेश में कहा कि एलजीबीटीक्यू समुदाय को भी देश के दूसरे नागरिकों के समान ही संवैधानिक अधिकार हासिल है. उस वक्त कोर्ट  ने लैंगिक रूझान यानी सेक्सुअल ओरिएंटेशन को 'जैविक घटना' और 'स्वाभाविक' बताते हुए कहा था कि इस आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव से मौलिक अधिकारों का हनन होता है. सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को पुराने ढर्रे पर चल रहे समाज की व्यवस्था पर आधारित माना था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एलजीबीटीक्यू के सदस्यों को परेशान करने के लिये धारा 377 का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है जिसकी परिणति भेदभाव में होती है. उस वक्त जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ ने कहा था कि धारा 377 की वजह से एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को छुपकर और दोयम दर्जे के नागरिकों के रूप में जीने के लिये मजबूर होना पड़ा.


दरअसल जब हम 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विश्लेषण करेंगे तो ये साफ है कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को भी बाकी नागरिकों की तरह वो सारे हक़ मिलने चाहिए, जो हमें बतौर नागरिक संविधान और देश के बाकी कानूनों से मिलता है. समलैंगिक विवाह को अगर कानूनी मान्यता नहीं दी जाती है, तो इस समुदाय के लोगों के साथ इसे दोयम व्यवहार ही माना ही जाएगा. साथ ही ये एक तरह से सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फैसले में कही गई बातों का भी उल्लंघन होगा है.


जब मेडिकल साइंस ने इस बात को साबित भी कर दिया है कि समलैंगिक संबंध की  प्रवृत्ति जन्मजात और कुदरती है, तो फिर सदियों से चली आ रही सामाजिक मान्यताओं के नाम पर ऐसे लोगों के साथ भेदभाव संविधान की मूल भावना के ही खिलाफ है. कई सामाजिक मान्यताएं वक्त के हिसाब से कानूनी प्रावधान के जरिए बदल दी गई हैं. ये कोई पहली बार नहीं होगा. 


समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता सामाजिक सुरक्षा के नजरिए से भी बेहद जरूरी है. जो लोग समलैंगिक संबंध में होते हैं, उनका जुड़ाव भी उसी तरह की भावनाओं पर आधारित होता है, जैसा एक आम लड़का-लड़की या एक महिला-पुरुष के बीच होता है. विवाह को कानूनी मान्यता से मतलब ही है कि उस संबंध को एक तरह से सामाजिक के साथ ही कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए. समलैंगिक संबंध वाले कपल एक साथ रह सकते हैं, बालिग कपल अपनी सहमति से यौन संबंध भी बना सकते हैं. कानूनी तौर से इसमें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन लीगल सिक्योरिटी नहीं होने की वजह से उन्हें कई सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है.


2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसे कपल के बीच विवाह का प्रचलन बढ़ रहा है और ऐसे कपल अपने अपने रीति-रिवाजों से शादी कर एक साथ रह भी रहे हैं. लेकिन बतौर कपल न तो वे बच्चा गोद ले सकते हैं, न ही घर खरीद सकते हैं, न ही कपल के तौर पर लोन ले सकते हैं. उन्हें भी बैंक डिपॉजिट या बीमा के जरिए एक-दूसरे के भविष्य को सुरक्षित करने का पूरा हक़ होना चाहिए. लेकिन विवाह को कानूनी मान्यता नहीं होने की वजह से इन कपल के लिए ये फिलहाल दूर की कौड़ी हो जाती है. नॉर्मल कपल की तरह उनके बीच झगड़ा होने पर तलाक से जुड़े कानूनी प्रावधान भी उपलब्ध नहीं है, जिससे उस रिश्ते में कमजोर पक्ष की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित हो पाए.


भारत में एलजीबीटीक्यू समुदाय ने एक लंबी लड़ाई लड़ी तब जाकर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया. ये लड़ाई तो लंबी थी लेकिन सबसे पहले 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने नाज फाउंडेशन केस में फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करते हुए आईपीसी की धारा 377 को अवैध बताया था. हालांकि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश कुमार कौशल केस में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिक यौन संबंधों को फिर से अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया था. उसके बाद सितंबर 2018 में नवतेज सिंह जौहर केस में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने अपने पुराने आदेश को बदलते हुए समलैंगिकता को अपराध की कैटेगरी से बाहर कर दिया.


इस फैसले से तो एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों के साथ ही उनके परिवार को भी बहुत राहत मिली थी. लेकिन अब जब ऐसे संबंधों को रखने वाले लोग और उनके परिवार भी इस तरह के संबंधों को विवाह में बदल रहे हैं, तो ये लाजिमी है कि उनको सामाजिक के साथ ही कानूनी सुरक्षा भी मिले.


भारत में समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर हुए इस साल सितंबर में 5 साल से ज्यादा का वक्त हो जाएगा. देश के हर नागरिक के लिए हर अधिकार को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है. ऐसे में 2018 के फैसले के बाद केंद्र सरकार को खुद आगे बढ़कर समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने को लेकर पहल करनी चाहिए थी. अगर ऐसा हो जाता है तो समाज में इस समुदाय के लोग खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करेंगे और इस समाज का हिस्सा होने की फीलिंग आएगी.


केंद्र सरकार का कहना है कि भारत में विवाह और तलाक जैसे कानूनों में पति-पत्नी की व्याख्या एक पुरुष और एक महिला के तौर पर की गई है. लेकिन समलैंगिक संबंध के लीगल होने के बाद इन तर्कों का कोई महत्व नहीं रह जाता है. ये तर्क तब तक सही माने जा सकते थे, जब तक देश में समलैंगिकता अपराध माना जाता था. लेकिन अब हालात बदल चुके हैं और उस नजरिए से भी विवाह से जुड़े तमाम कानूनों जैसे हिन्दू मैरिज एक्ट, स्पेशल मैरिज एक्ट में बदलाव होना ही चाहिए. ऐसे भी ये सारे कानून उस वक्त बने थे, जब समलैंगिकता अपने यहां अपराध के दायरे में आता था. इन कानूनों में बदलाव कर ही  LGBTQ समुदाय के लोगों को हम समाज की मुख्यधारा में वास्तविक तौर से शामिल करने में कामयाब हो पाएंगे.


भारत में ये तो सच्चाई है कि कई ऐसे कपल हैं जो समलैंगिक हैं और वर्षों से एक-दूसरे के साथ रह रहे हैं. अब कानून की नज़र में भी उनका संबंध ग़लत नहीं है. तो अगर हम महिला और पुरुष के बीच के संबंधों को शादी के पड़ाव पर ले जाने के बारे में सोचते हैं, उसी तर्ज पर समलैंगिकों के संबंध भी विवाह तक पहुंचेंगे ही, ये अपोजिट जेंडर के बीच संबंधों की तरह ही बिल्कुल ही स्वाभाविक प्रक्रिया है.


अगर भारत जल्द ही समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दे देता है, तो ये दुनिया के कई देशों के लिए मिसाल का काम करेगा. फिलहाल दुनिया में बहुत कम देश हैं, जहां ऐसे विवाह को मान्यता मिली हुई है. ज्यादातर पश्चिमी देशों में ही ये ह़क हासिल है. एशिया में तो सिर्फ ताइवान ही है, जो समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देता है. लंबे वक्त से जापान, दक्षिण कोरिया, ग्रीस, थाइलैंड, सिंगापुर और हांगकांग जैसे देशों में इस तरह की मांग को लेकर बहस और आंदोलन जारी है. अगर भारत में ऐसा हो जाता है, तो उन देशों में भी LGBTQ समुदाय के लोगों की मांगों को बल मिलेगा. ह्यूमन राइट्स वॉच में LGBTQ मुद्दों पर रिसर्च करने वाले वाले काइल नाइट का भी मानना है कि अगर भारत में ऐसा हो जाता है तो वैश्विक स्तर पर समलैंगिक संबंधों की मान्यता को भारी बढ़ावा मिलेगा.


आपको ये जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका में समलैंगिकता को अपराध की कैटेगरी से निकालने के बाद समलैंगिक विवाह को मान्यता देने में एक दशक का वक्त लग गया था. इस दिशा में भारत अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है और उससे आधे समय में ही ऐसा करने वाला देश बन सकता है, अगर सुप्रीम कोर्ट से इन विवाहों को कानूनी मान्यता मिलने के पक्ष में फैसला आ जाता है. फिलहाल दुनिया के 133 देशों में समलैंगिकता अपराध के दायरे से बाहर है, लेकिन इनमें से सिर्फ़ 32 देशों में ही समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता हासिल है. ज्यादातर अमेरिकन देशों और यूरोपियन देशों में तो समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता है, लेकिन अफ्रीका और एशियाई देशों में इस दिशा में अभी भी लंबी राह तय होनी है और भारत के फैसले से अफ्रीका और एशियाई देशों पर प्रभाव पड़ेगा, ये भी तय है.


लोकतंत्र में जहां तक नागरिक अधिकारों की बात है उसमें बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक की पसंद के आधार पर भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होती. ये कहना कि समाज में एक बड़ी आबादी है जो इस तरह के संबंधों को स्वीकर नहीं करती है तो इस सिर्फ़ इस आधार पर समलैंगिक संबंध रखने वाले लोगों को उन अधिकारों से वंचित नहीं रखा जा सकता है, जो बाकियों को हासिल है. ये मुद्दा भविष्य के लिहाज से भी बहुत जरूरी है. आने वाले समय में इस तरह के संबंधों को लेकर स्वीकार्यता और बढ़ेगी. ऐसे में भविष्य की पीढ़ियों को अंधकार में नहीं छोड़ सकते हैं, उनकी सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी भी वर्तमान की सरकार और न्यायपालिका और समाज की बनती है. इसलिए इस दलील  का कोई मायने नहीं कि कुछ चीजें या बातें बहुसंख्यक को पसंद नहीं हैं.


2018 की तरह ही अब एक बार फिर से समलैंगिक संबंध में बंधे लोगों की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिक गई है. अब देश का सर्वोच्च न्यायालय ही यहां के हर नागरिकों के लिए विवाह के अधिकार को सुनिश्चित कर सकता है. जिस तरह से 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ब्रिटिश काल में बनी आईपीसी की धारा 377 में समलैंगिकता को अपराध के दायरे में रखने से संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 से मिले मौलिक अधिकारों का हनन होता है, वहीं आधार समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं देने पर भी लागू होता है. इसी वजह से LGBTQ समुदाय के लोगों को एक बार फिर से अपने पक्ष में फैसला आने की आस बनी है. 


(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.)