एक जासूस अगर किसी देश का मुखिया बन जाये,तो क्या वह इस हद तक आक्रामक बन सकता है कि किसी पूरे मुल्क को ही तबाह कर दे? रुस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बारे में देश के अनुभवी मनोविज्ञानी कहलाने वाले चंद लोगों से जब ये सवाल पूछा गया, तो उनका जवाब 'हाँ' में ही मिला.जवाब थोडा हैरान करने वाला था, इसलिये उनसे अनुरोध किया गया कि थोड़ा खुलकर इसका खुलासा कीजिये. उन्होंने किया भी लेकिन वह कहां तक सही है या गलत, इसका फैसला तो हम नहीं कर सकते.ये तो आने वाले दिनों की घटनाएं ही बताएंगी.लेकिन उनका निचोड़ यही था कि पुतिन रूस बनने और और उसकी राजनीति में आने से पहले तक सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी KGB में 16 साल तक रहे हैं.


उसमें भी उनका अधिकांश वक़्त जर्मनी के असाइनमेंट पर ही बीता है. लिहाज़ा,उन्होंने जर्मनी के शासक रहे अडोल्फ हिटलर की हर उस अहम बात को सिर्फ पकड़ा ही नहीं बल्कि उसे अपनी आगे की ज़िंदगी का हिस्सा भी बना लिया.इसलिये वे कहते हैं कि पुतिन के दिलो दिमाग पर हिटलर का सबसे ज्यादा असर है.अब हम इसे दोनों पहलुओं से देख सकते हैं.जो रुस के लिए फायदेमंद है,तो वही अमेरिका के लिए नुकसानदायक.


लेकिन इसमें भारत कहाँ खड़ा है? क्या करेंगे अब हम? उनके मुताबिक भारत की भूमिका फिलहाल तो न्यूट्रल बनी हुई है लेकिन बहुत जल्द हमें दुनिया के सामने अपना स्टैंड साफ करना पड़ेगा कि आखिर हम हैं किसके साथ? उन्हीं में से एक जाने-माने मनोविज्ञानी से पूछा गया कि क्या पुतिन भी हिटलर के रास्ते पर ही चल रहे हैं. उनका कहना था कि फिलहाल चल तो उसी रास्ते पर रहे हैं,लेकिन पूरी तरह से तो नहीं क्योंकि वो हिटलर की गलतियों को दोहराने से बचते हुए किसी भी तरह से अपनी फतह करना चाहते हैं.


गौरतलब है कि अन्तराष्ट्रीय बिरादरी के कई देशों ने पुतिन के इस हमले को हिटलर की संज्ञा दी है. लेकिन मेरा मानना है कि पुतिन कभी हिटलर के रास्ते पर नहीं जाएंगे क्योंकि वो अपने रूस को भी तीसरे विश्व युद्ध की आग में नहीं झोंकेंगे. हालांकि रुस के यूक्रेन पर हमला करने का आज आठवां दिन है और जाहिर है कि वह एक छोटे-से मुल्क पर अपने हमलों से तबाही का मंजर हर रोज दुनिया को दिखा रहा है लेकिन उसे किसी की भी परवाह नहीं है. न तो संयुक्त राष्ट्र की महासभा में उसके खिलाफ पास हुए निंदा प्रस्ताव से उसे कोई फ़र्क पड़ा है और न ही वो अमेरिका और नाटो देशों की ताकत से डरने को तैयार है. 


हालांकि  बुधवॉर की रात संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) ने यूक्रेन के खिलाफ रूस के हमले की कड़ी निंदा करने वाला प्रस्ताव पारित तो कर दिया लेकिन सामरिक विशेषज्ञ मानते हैं कि इससे रुस को कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है.संयुक्त राष्ट्र महासभा की विशेष इमरजेंसी बैठक के बाद प्रस्ताव पारित कर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने रूस से यूक्रेन से हटने की 'मांग' की.141 देशों ने इस वोटिंग के दौरान रूस के खिलाफ मतदान किया, जबकि 5 देशों ने रूस का साथ दिया. वहीं भारत समेत 35 देशों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया. यूरोप के आर्थिक रूप से समृद्ध देशों से लेकर छोटे प्रशांत द्वीप देश तक कई देशों ने यूक्रेन पर रूस के हमले की निंदा की है. संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपातकालीन सत्र में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के कुछ समर्थक भी थे.


लेकिन इस जंग के बीच एक अहम बात ये भी है कि फरवरी में दोनों देशों के बीच फरवरी की शुरुआत में ही ceasefire का समझौता हुआ था.लेकिन रूस ने उसकी कोई परवाह नहीं की. उसी वक़्त विशषज्ञों ने इसे बहुत बड़ा खतरा मानते हुए कहा था कि अगर जंग शुरू हुई तो ये मानना बहुत बड़ी भूल होगी कि ये रूस और यूक्रेन की सरहदों तक ही सीमित रहेगी. इसकी आंच बाल्टिक देशों जैसे लताविया, लिथुआनिया और एस्टोनिया तक पहुंच सकती है. ये बेहद अमन पसंद देश हैं और इनकी सैन्य ताकत भी कुछ खास नहीं है. जंग की सूरत में ये देश अपनी हिफाजत के लिए अमेरिका और नाटो सहयोगियों की तरफ देखेंगे.


डिफेंस एक्सपर्ट रोसेनबर्ग न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखते हैं- अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन का सवाल बिल्कुल वाजिब है. उन्होंने जनवरी के महीने में ही रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से पूछा था- रूस की सीमाओं का सिर्फ 6% हिस्सा ऐसा है, जो नाटो देशों से लगता है.क्या इससे भी आपकी नेशनल सिक्योरिटी को खतरा है? ये भी छोड़िए, कई नाटो देशों जैसे तुर्की को रूस S-400 जैसे खतरनाक मिसाइल डिफेंस सिस्टम बेचता है, यानी उसके इन देशों से अच्छे रिश्ते हैं लेकिन आज वे भी रुस की इस हरकत के खिलाफ हैं.



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