रूस और चीन एक दूसरे करीब अभी नहीं आए बल्कि ये प्रक्रिया पिछले कुछ सालों से जारी थी. इसके पीछे की वजह ये है कि पिछले कुछ वर्षों से एक बार फिर से नए कोल्ड वॉर की चर्चाएं तेज हो गई हैं. ये खासकर के तब से हुआ जब से रूस ने अपने आप को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दावेदारी मजबूत करनी शुरू की. आपको याद होगा कि 1990 के दशक में जब सोवियत संघ का बिखराव हुआ था तो रूस बहुत कमजोर हो गया. उस कमजोरी के दौरान अमेरिका ने पूरे ग्लोबल ऑर्डर पर अपना वर्चस्व बना लिया यानी एक तरीके से उसने यूनीपोलर वर्ल्ड क्रिएट कर दिया. उस यूनिपोलर वर्ल्ड में जिस तरह से नाटो का यूरोप में विस्तार हुआ उसको लेकर रूस चिंतित था. लेकिन वह उस वक्त खुद इतना कमजोर हो गया था कि अमेरिका के खिलाफ खड़ा होना उसके लिए मुश्किल हो गया था.


दूसरी तरफ उसी दौरान चीन भी अपने आप को मजबूत बना रहा था. हमें याद रखना होगा कि चीन के जो पूर्व राष्ट्रपति तनस्योपिंग के दौर में रिफॉर्म शुरू हुए थे. उन्होंने एक बात कही थी कि चीन को अभी अपनी कैपेसिटी जाहिर नहीं करनी चाहिए. अपनी ताकत नहीं दिखानी चाहिए और समय का इंतजार करना चाहिए. मुझे लगता है कि पिछले एक दशक के अंदर रूस जिस तरीके से मजबूत हुआ है और चीन भी दुनिया की बड़ी ताकत खासतौर पर आर्थिक और सामरिक ताकत के रूप में उभरा है. इसे देखते हुए पश्चिमी खेमे में खास करके अमेरिकी नेतृत्व वाले खेमे में काफी बेचैनी है. ये कोशिश की जा रही है कि किसी भी तरह से चीन को एक तरह से कंटेन किया जाए.


रुस ने नजाकत को भांपा


लेकिन हुआ ये कि टारगेट तो चीन था, लेकिन उसकी जगह पर रूस की जल्दबाजी के कारण चूंकि रूस ने ये समझा कि ये बेहतर मौका है जब अमेरिका अपने आपसी झगड़ों में फंसा हुआ है. डोमेस्टिक पॉलिटिक्स में काफी पोलराइजेशन है और झगड़े हैं. यूक्रेन पर हमला हुआ है उसके जरिये रूस ने अपनी ताकत यूरोप में दिखाने की कोशिश की और इस कारण अमेरिका एक तरह से यूरोप में फंस गया है. चीन पर से उसका ध्यान हट गया है.



चूंकि पिछले एक दशक से बात ये चल रही थी कि किसी तरह से चीन को कंटेन किया जाए. उसे रोका जाए क्योंकि चीन जिस तरह से अपने आक्रामक विदेश नीति दिखा रहा था और खास करके एशिया में अपनी बाहें फैला रहा था, ऐसे में अमेरिका चीन को घेरने की कोशिश में लगा हुआ था. लेकिन इस बीच रूस के आगे आ जाने से अमेरिका और पूरी यूरोपीय ताक़तों का ध्यान यूक्रेन के बहाने रूस पर चला गया है. अब इस मौके का फायदा शि-चिनफिंग उठा रहे हैं. अभी जो उन्होंने मॉस्को की यात्रा की है, उसके जरिये वो ये संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि वास्तव में अभी जो ये लड़ाई चल रही है जिसमें एक तरफ पुतिन और रूस है और दूसरी तरह वेस्ट की ताकते हैं. उनके बीच चीन एक मध्यस्थता के तौर पर खड़ा हो रहा है. एक वैश्विक शक्ति के रूप में खड़ा हो रहा है जो इनके बीच एक मेडिएटर का काम करना चाहता है.


चीन की शांति पेशकश में नहीं ठोस बातें


इस दौरान उसने जो एक पीस प्लान रखा है हालांकि उसमें कोई ठोस बात नहीं है. अभी यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की से शी जिनपिंग की बातचीत होनी है. लेकिन पिछले दिनों एक बहुत बड़ी घटना हुई कि सऊदी अरब और ईरान के बीच चीन ने एक तरह का समझौता करा दिया. दोनों के बीच काफी टकराव था..तो इसके बाद चीन का जो एक वैश्विक एंबीशन या कह लें कि महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं कि दुनिया भर में उसे न सिर्फ एक बड़ी वैश्विक ताकत माना जाए बल्कि उसे इस रूप में देखा जाए कि वह तमाम झगड़े को सुलझाने में मददगार हो सकता है. वो पीस प्लान आगे बढ़ा सकता है. एक तरह से जो शी जिनपिंग और चीन की जो महत्वाकांक्षाएं हैं और अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के जो देश हैं उनको अलग-थलग करने की कोशिश है. लेकिन मैं ये मानता हूं कि मॉस्को और चीन नजदीक जरूर आए हैं, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं है कि चीन बिल्कुल आंख बंद करके रूस का समर्थन कर रहा है. बल्कि वो इस मौके का फायदा उठा  रहा है. वो अपनी हितों को पहली प्राथमिकता दे रहा है और इस लड़ाई में चीन दिल्ली की तरफ से फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है.


इस वक्त वो रूस से सबसे ज्यादा तेल और गैस का आयात कर रहा है. चीन की जो ऊर्जा जरूरतें हैं वो रूस से सस्ते में पूरी हो रही है. एक मायने में चीन ने रूस के साथ खड़ा हो कर ये संदेश देने की कोशिश की है अमेरिका को कि उसने अगर हमारे मामले में हस्तक्षेप किया तो हम और रूस एक साथ खड़े हैं जिससे निपटना आपके लिए आसान नहीं है.


एक संकेत तो ऐसा जरूर मिल रहा है कि इस समय रूस और खाक तौर पर पुतिन जिस तरह से घिर गए हैं उसमें उनकी डिपेंडेंस चीन पर बढ़ गई है और इसके कारण निश्चित तौर पर भारत और रूस के बीच जो रणनीति संबंध हैं उस पर दबाव है. क्योंकि चीन ये जरूर चाहता है कि रूस जो है वो भारत के साथ इतनी मजबूती से खड़ा न हो बल्कि कुछ मामलों में भारत पर दबाव भी बनाए कि आप चीन के खिलाफ खड़े मत होइए या आपने जो क्वाड की सदस्यता ली है उसमें एक्टिव पार्टिसिपेशन मत कीजिए. एक मामले में निश्चित तौर पर असर पड़ेगा. लेकिन यहां मैं ये भी कहना चाहता हूं कि एक मामले में भारत के पास जो विकल्प है कि किसी भी तरह से चीन और रूस के बीच का जो गठबंधन है उसको नहीं बनने दे और ये हमारी एक तरह से कोशिश होने चाहिए कि रूस हमारे साथ खड़ा रहे. यूक्रेन युद्ध के मामले में भारत ने जो न्यूट्रल पोजीशन रखी है जो अच्छा है लेकिन जिस तरह से चीन और रूस नजदीक आते जा रहे हैं उसमें भारत के लिए जो रणनीति ऑटोनोमी की स्थिति थी वो थोड़ी कमजोर हो रही है. ये भारत के लिए एक चिंता की बात है क्योंकि फिर बाद में हमारे ऊपर ये दबाव होगा की हम पूरी तरीके से पश्चिमी खेमे की तरफ झूक जाए. मैं समझता हूं कि अभी भारत के रणनीतिक लिहाज से यह स्थिति अनुकूल नहीं है.


हम ये नहीं कह सकते हैं कि अमेरिकी ताकत पूरी तरह से खत्म हो गई है. मैं मानता हूं कि ये समय ट्रांजिशन का है. लेकिन ये बात जरूर दिखाई दे रही है कि जो 1990 के दशक के बाद जो एक तरह से यूनीपोलर वर्ल्ड बन गया था जिसमें अमेरिका की हेजेमनी थी वो जरूर टूट रही है. उसको एक तरह से झटके लग रहे हैं. उसके कई कारण हैं और उसमें अमेरिका के अंदर के राजनीतिक कारण भी हैं. खुद अमेरिका ने पिछले 30 सालों में जो कई मिलिट्री ऑपरेशन किए चाहे वो इराक, लीबिया या सीरिया में हो यानी कि पूरे मिडिल इस्ट में और अफगानिस्तान में हो ये सारे काफी हद तक नाकाम हो गए और पूरा मिडिल ईस्ट जिस तरह से डिस्टर्ब हुआ है उसमें अमेरिकी ताकतों धक्का लगा है. अफगानिस्तान से जिस तरीके से अमेरिकी फोर्स वापस गई वो अमेरिकी ताकत के लिए बहुत बड़ा झटका था. मैं मानता हूं कि इस कारण से चीन और रूस को अपनी ताकत दिखाने का मौका मिला. धीरे-धीरे निश्चित तौर पर दुनिया एक मल्टीपोलर वर्ल्ड की तरफ बढ़ रही है. जिसमें एक पावर का सेंटर नहीं है लेकिन अमेरिका और पश्चिमी देश यूक्रेन युद्ध के बहाने ज्यादा नजदीक आये हैं ये भी एक सच्चाई है से देखते हुए ये कहा जा सकता है कि वैश्विक राजनीति में ये एक ऊथल-पुथल का दौर चल रहा है और अभी ये पूरी तरह से नहीं कहा  जा सकता है कि अमेरिकी ताकत पूरी तरह से खत्म हो गई है. लेकिन ये बात जरूर है कि उसके वर्चस्व को चुनौती मिलनी शुरू हो गई है.


चीन और रूस उसमें एक पोल के रूप में खड़े हो गए हैं. रूस ने जो यूक्रेन पर हमला किया है इस मामले को जिस तरह से अमेरिका और पश्चिमी देश दिखाने की कोशिशें कर रही हैं, दक्षिणी गोलार्ध के देशों में जैसे अफ्रिका या लैटिन अमेरिका के देश हों वो उसको उस रूप में नहीं देख रहे हैं. वो ये नहीं देख रहे हैं कि एक सॉवरेन कंट्री पर हमला किया गया है और ये बिल्कुल इलीगल हमला है बल्कि वो इसे इस तरह से देख रहे हैं कि जिस तरह से नाटो का विस्तार हो रहा था और रूस की जो अपनी सुरक्षा की चिंता थी यानी वो ब्लैक एंड व्हाइट में देखने को तैयार नहीं है तो इसके कारण एक तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी खास तौर पर दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों में जो अमेरिकी आर्थिक और सैन्य दबाव था वो थोड़े कमजोर हुए हैं क्योंकि चीन और रूस भी अफ्रीका में, लैटिन अमेरिका में अपने को मजबूत कर रहे हैं चाहे वो कर्ज देने का मामला हो या आधारभूत संरचना विकसित करने की बात हो या व्यापार का मामला हो इन सबमें अमेरिकी वैक्यूम को भरने की कोशिश कर रहे हैं.  



(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)