सुप्रीम कोर्ट ने 9 जजों ने एक स्वर में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित कर दिया है. यूं तो पहले भी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान से जीने के अधिकार के तहत निजता को भी शामिल किया गया था लेकिन इसपर अलग से व्याख्या नहीं की गयी थी. अब देश की सबसे बड़ी अदालत ने अपने फैसले में देश के नागरिकों को बहुत बड़ा तोहफा दिया है. मौलिक अधिकारों में एक नया अधिकार निजता का अधिकार जुड़ गया है. मोदी सरकार के लिए कोर्ट का फैसला बड़ा झटका भी है और साथ ही साथ एक राहत भी. पहले बात करते हैं झटके की.


केन्द्र सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में लगातार यह दलील दी गयी कि निजता का अधिकार संविधान में दिया हुआ नहीं है. संविधान सभा में भी निजता के अधिकार को मूल अधिकार बनाने पर बहस हुई थी लेकिन तब संविधान सभा ने इसे नहीं माना था. 1954 और 1962 में खड़कसिंह और एम पी शर्मी के मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मूल अधिकार नहीं माना था. इन दलीलों के साथ सरकार का कहना था कि जब निजता का अधिकार मूल अधिकार है ही नहीं तो फिर आधार के लिए बायोमैट्रिक पहचान देने से मना करने का सवाल ही नहीं होता है. सरकार का इरादा आधार को सामाजिक सुधारों की योजनाओं के साथ साथ आयकर देने से जोड़ने के आलावा भी अन्य क्षेत्रों में व्यापक विस्तार करने का था. इसमें निजता आड़े नहीं आए इसलिए वह निजता के अधिकार को मूल अधिकार मानने से इनकार करती रही थी. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों ने एक साथ मिलकर निजता के अधिकार को मूल अधिकार घोषित कर सरकार को झटका जरुर दिया है.


खड़क सिंह केस की बार बार बात हो रही है तो उसे साफ कर देते हैं. खड़क सिहं लखनउ के रहने वाले थे. उनपर पुलिस केस दर्ज हुआ था. पुलिस ने उनके घर के बाहर पहरा बैठा दिया था. उनकी निगरानी रखी जाने लगी थी. इस से दुखी होकर खड़क सिंह ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. उनका कहना था कि पुलिस की इस तरह की पहरेदारी उनके निजता के अधिकार का उल्लंघन है. उस पर छह जजों की पीठ ने कहा था कि पुलिस को इस तरह की तफ्तीश करने का अधिकार है और यह खड़क सिंह की निजता के अधिकार के तहत नहीं आता है. तब कोर्ट ने निजता के अधिकार को मूल अधिकार नहीं माना था. ऐसा ही मामला एम पी शर्मा का है जहां एक निजी कंपनी पर आरोप लगने के बाद तलाशी को कोर्ट में चुनोती दी गयी थी. यहां भी कोर्ट ने निजता के अधिकार को मूल अधिकार का हिस्सा नहीं बताया था. हालांकि इसके बाद एक दो केस में नीचे की अदालतों ने निजता के अधिकार को सर्वोपरि माना था लेकिन केन्द्र सरकार खड़क सिंह और एम पी शर्मा के मामले को ही सुप्रीम कोर्ट के सामने रखती रही थी.


सुप्रीम कोर्ट की चिंता


आज देश के नागरिकों के सामने सबसे बड़ी चिंता अपना डाटा चोरी होने की आशंका की है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सूचना तकनीक के इस युग में नागरिकों की निजी जानकारियों की गोपनीयता पर जोर दिया है. आगे कोर्ट ने नागरिको की निजी जानकारी और डाटा की चोरी से संबंधी चिंताओं को ध्यान में रखा है. उसका कहना है कि आज के युग में तकनीक में भारी बदलाव के चलते नागरिकों की निजी जिंदगी से जुड़े डाटा के लीक होने की चिंता बढ़ गयी है. यह सात दश्क पहले नहीं था जब खड़क सिंह और एमपी शर्मा के मामले कोर्ट के सामने रखे गये थे.


अदालत ने व्यक्तिगत सूचना की निजता को बनाए रखना निजता के अधिकार का सबस जरुरी हिस्सा माना है. उसका कहना है कि आज के सूचना तकनीक युग में इस निजता को सरकार के साथ साथ निजी गैर सरकारी क्षेत्र से भी खतरा है. ऐसे में अदालत ने भारत सरकार से ऐसी पुख्ता व्यवस्था करने की सिफारिश की है जिससे डाटा की गोपनीयता को पूरी तरह से सुनिश्चित किया जा सके.


कोर्ट का कहना है कि इस व्यवस्था में देश की चिंता और व्यक्तिगत हितों के बीच एक संवेदनशील संतुलन बनाए रखना जरुरी है. सरकार की वैधानिक चिंता में राष्ट्रीय सुरक्षा, अपराध को रोकना और उसकी जांच, ज्ञान और नये आविष्कारों को बढ़ावा देना के साथ साथ सामाजिक कल्याण की योजनाओं में गड़बड़ियों को रोकना शामिल है. ये ऐसे नीतिगत मामले हैं जिनका ध्यान भारत सरकार को डाटा की गोपनीयता बनाए रखने के समय रखना है.


सरकार की दलीलें ध्वस्त


सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सरकार की तरफ से दी गयी तमाम दलीलों को ध्वस्त कर दिया है. केन्द्र सरकार ने कहा था कि सामाजिक कल्याण की योजनाओं का लाभ उठाने वालों के लिए निजता का अधिकार जरुरी नहीं है. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह सोचना ठीक नहीं है कि गरीबों का कोई राजनीतिक और नागरिक अधिकार नहीं होता है और यह वर्ग सिर्फ सामाजिक आर्थिक हितों तक ही सीमित है. इस सोच को अदालत ने मानवाधिकारों के हनन से जोड़ा है. अदालत का यह भी कहना है कि गरीबों का आर्थिक सामाजिक कल्याण करना सरकार की संवैधानिक बाध्यता है. सुप्रीम कोर्ट इस फैसले पर पहुंचता है कि नागरिक राजनीतिक अधिकार और सामाजिक आर्थिक अधिकार एक दूसरे के पूरक हैं. इन्हें अलग अलग करके नहीं देखा जा सकता.


सरकार ने दलील दी थी कि संविधान सभा में भी निजता के अधिकार को मूल अधिकार में शामिल करने पर बहस हुई थी और तब संविधान सभा ने ऐसा करने से मना कर दिया था. इस पर कोर्ट ने संविधान सभा में निजता पर हुई चर्चा का तफसील से ब्योरा दिया है. कोर्ट का कहना है कि उस समय संविधान सभा में आम नागरिक के निजी जीवन की गोपनीयता बनाए रखने और अनावश्यक छापों , कागज दस्तावेज बरामदगी पर चर्चा हुई थी. तब इसे माना नहीं गया थी कि उससे पुलिस जांच प्रभावित होगी और भारतीय दंड संहिता के तहत स्वतंत्र और निष्पक्ष अनुंसधान की प्रक्रिया पर फर्क पड़ेगा. कोर्ट का कहना था कि इससे यह नहीं कहा जा सकता कि संविधान सभा ने निजता के अधिकार को मूल अधिकार के तहत मिली आजादी के तहत नहीं माना था.


अदालत का कहना था कि जीने का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार आपस में समाहित हैं. यह मानव जीवन के अस्तित्व का जरुरी हिस्सा हैं जिसे कोई अलग नहीं कर सकता. निजता का अधिकार संविधान निर्मित नहीं है लेकिन संविधान इसे पूरी मान्यता और सरंक्षण देता है. कोर्ट का मानना था कि अनुच्छेद 21 के तहत निजता को भी संविधान का पूरा संरक्षण हासिल है और निजता को हर सूरत में बरकरार रखना सरकारी की महत्ती जिम्मेदारी है. लेकिन कोर्ट ने यह भी माना कि अनुच्छेद 21 के तहत जीने का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की तरह निजता भी सम्पूर्ण अधिकार नहीं है.


कुल मिलाकर निजता का अधिकार भारत सरकार को आधार कार्ड बनाने की भी छूट देता है और आधार को सामाजिक कल्याण की योजनाओं के साथ जोड़े रखने की भी इजाजत देता है लेकिन आधार को हर जगह अनिवार्य करने की सरकार की भविष्य की संभावित योजना पर निजता का पहरा भी बिठाता है.