सुप्रीम कोर्ट का एक फ़ैसला आया है. उच्चचम न्यायालय का 7 मार्च  का यह फ़ैसला आलोचना करने का अधिकार या'नी राइट टू क्रिटिसाइज़ से संबंधित है. सरकारी नीतियों या फ़ैसलों की आलोचना करने के बुनियादी हक़ से इस आदेश का संबंध है. यह हक़ देश के हर नागरिक को संविधान से मिलता है.


नागरिक अधिकारों के लिहाज़ से यह जितना महत्वपूर्ण फ़ैसला है, उसके मद्द-ए-नज़र इस पर मीडिया से लेकर आम लोगों में सुगबुगाहट कम दिख रही है. इस फ़ैसले पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए थी, लेकिन वैसा नहीं हो पा रहा है.


'आलोचना का अधिकार' से जुड़ा मामला


लोकतांत्रिक ढाँचे के तहत संसदीय व्यवस्था में आलोचना का अधिकार महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ बेहद प्रासंगिक भी है. यह नागरिक अधिकार है. संविधान के तहत देश के हर नागरिक का अपना एक ख़ास महत्व है. इस महत्व को दलगत समर्थन या आस्था के नाम पर कम नहीं किया जा सकता है. इस नज़रिये से सरकार की नीतियों और फ़ैसलों की आलोचना करना.. देश के नागरिकों की महत्ता से सीधे तौर से जुड़ा है.


सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा आदेश से जुड़े पहलू


सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा जजमेंट में भी इस पहलू के हर बारीकी का विस्तार से ज़िक्र है. पहले संक्षेप में पूरे मामले पर एक नज़र डाल लेते हैं. बंबई उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती से जुड़ा अपीलीय मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचता है. सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता जावेद अहमद हाजम होते हैं और रेस्पोंडेंट स्टेट ऑफ महाराष्ट्र है.


कश्मीर के बारामूला के स्थायी निवासी जावेद अहमद हाजम कोल्हापुर जिले के संजय घोडावत कॉलेज में प्रोफेसर थे. उनके ख़िलाफ़ आईपीसी के सेक्शन 153 A के तहत दंडनीय अपराध के लिए एक एफआईआर दर्ज हुई थी. इस एफआईआर के मुताबिक़ प्रोफेसर हाजम एक व्हाट्सएप ग्रुप के सदस्य थे. इस ग्रुप में बतौर सदस्य छात्रों के पैरेंट्स और और शिक्षक शामिल थे. जावेद अहमद हाजम 13 अगस्त, 2022 और 15 अगस्त, 2022 के बीच इस व्हाट्सएप ग्रुप का हिस्सा रहते हुए, अपने स्टेटस के रूप में दो संदेश पोस्ट करते हैं, जो इस रूप में थे..


1. "5 अगस्त - काला दिवस जम्मू एवं कश्मीर"


2. "14 अगस्त - पाकिस्तान को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ"


सेक्शन 153A के तहत एफआईआर दर्ज


याचिकाकर्ता के मोबाइल पर व्हाट्सएप स्टेटस में यह संदेश शामिल था कि "अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया, हम खुश नहीं हैं."  इन आरोपों के आधार पर कोल्हापुर के हतकणंगले पुलिस स्टेशन में सेक्शन 153A के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी. इस सेक्शन के तहत धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव के प्रतिकूल कार्य करने को दंडनीय अपराध माना गया है. यह सेक्शन साम्प्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा देने से संबंधित है.


एफआईआर को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती


इस एफआईआर के ख़िलाफ़ प्रोफेसर हाजम हाई कोर्ट ऑफ़ बॉम्बे जाते हैं. 10 अप्रैल, 2023 को आदेश सुनाते हुए हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने कहा कि अपीलकर्ता ने पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस मनाने के संबंध में जो कहा वह आईपीसी की धारा 153-ए के दायरे में नहीं आएगा, हाईकोर्ट ने आगे कहा कि अन्य आपत्तिजनक भाग पर आईपीसी की धारा 153A के तहत दंडनीय अपराध हो सकता है. हाईकोर्ट के इस आदेश के बाद प्रोफेसर हाजम सुप्रीम कोर्ट का रुख़ करते हैं.


सरकारी फ़ैसले की आलोचना और सेक्शन 153A


पूरा मामला सरकार के फै़सले की आलोचना से संबंधित है. हम सब जानते हैं कि मोदी सरकार ने अगस्त 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 के उन सभी प्रावधानों को समाप्त कर दिया था, जिससे जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष स्थिति हासिल थी. हाजम के मामले में हाई कोर्ट ऑफ़ बॉम्बे ने स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ देना सेक्शन 153A के तहत अपराध नहीं है. मुख्य मुद्दा बच गया था कि अनुच्छेद 370 को लेकर मोदी सरकार ने जो फ़ैसला लिया, उस फ़ैसले की आलोचना कोई भारतीय नागरिक कर सकता है या नहीं. क्या सरकार के फ़ैसले की आलोचना करना सेक्शन 153A  के तहत अपराध की श्रेणी में आता है.


सरकारी फ़ैसले की आलोचना हर नागरिक का अधिकार


सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ की ओर से 7 मार्च, 2024 को फ़ैसला सुनाया गया. इस पीठ में जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां शामिल थे. तमाम पहलू पर ग़ौर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में हाईकोर्ट के फ़ैसले को रद्द करने के साथ ही हाजम के ख़िलाफ़ दर्ज एफआईआर को भी रद्द कर दिया. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट तौर से कहा कि सरकार के फ़ैसले की आलोचना करना देश के हर नागरिक का अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि दूसरे देश के नागरिकों को उनके स्वतंत्रता दिवस पर शुभकामना देने में क़ानूनी तौर से कुछ भी ग़लत नहीं है. भारत के हर नागरिक को यह अधिकार है.


अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत मूल अधिकार


यह कॉमन सेंस की बात है कि सरकार की नीतियों और फ़ैसलों की आलोचना देश का कोई भी नागरिक कर सकता है. यह संवैधानिक हक़ है. देश के हर नागरिक को अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है. आलोचना इसी अधिकार का हिस्सा है. सरकार के फ़ैसले से नाख़ुशी जताने की गारंटी संविधान के इस अनुच्छेद से देश के हर नागरिक को मिलती है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में इस पर ज़ोर देते हुए कहा भी है कि क़ानूनी और वैध तरीक़े से असहमति ज़ाहिर करने का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत हासिल अधिकारों का एक अभिन्न हिस्सा है. इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 370 को निरस्त कर जम्मू-कश्मीर की स्थिति बदलने के सरकार के फ़ैसले की आलोचना करने का अधिकार भारत के हर नागरिक को है.


आलोचना का अधिकार संविधान से हासिल


इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ शांतिपूर्वक प्रदर्शन करना लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा है. असंतोष जताने के अधिकार का सम्मान हर व्यक्ति को करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से एक और पहलू स्पष्ट होता है. भारत एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है. इसमें हर नागिरक को संविधान से बोलने, अभिव्यक्त करने, संतोष-असंतोष जताने, सहमति-असहमति जताने के साथ ही आलोचना करने का अधिकार हासिल है. यह मूल अधिकार है. इस पर युक्तियुक्त या'नी तर्कसंगत पाबंदी ही लगायी जा सकती है.


तर्कसंगत पाबंदी को लेकर संवैधानिक प्रावधान


अनुच्छेद 19 (1) (a) से मिले अधिकार पर पाबंदी सिर्फ़ संविधान में बताए गए आधार पर ही लगाया जा सकता है. संविधान में रीज़नबल रिस्ट्रिक्शन या'नी युक्तियुक्त निर्बंधन के आधार को अनुच्छेद 19 ( 2) में  बताया भी गया है. इनमें भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, लोक व्यवस्था (public order), शिष्टाचार या सदाचार अथवा न्यायालय अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए उकसाना शामिल हैं. इनके अलावा कोई और आधार नहीं है, जिसके माध्यम से किसी भी नागरिक के बोलने या अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े अधिकारों पर लिमिटेशन लगाया जा सके.


हर नागरिक को ब-ख़ूबी समझने की ज़रूरत


अनुच्छेद 19 (1) (a) से संबंधित इन सभी पहलुओं को देश के हर नागरिक को ब-ख़ूबी समझने की ज़रूरत है. इसके साथ ही सरकार, सरकारी तंत्र के तहत आने वाले तमाम प्रशासनिक इकाइयों, राजनीतिक दलों और उससे जुड़े नेताओं को भी संविधान के इन पहलुओं को ध्यान में रखकर ही देश के नागरिकों के साथ किसी भी तरह का संवाद करना चाहिए.


सुप्रीम कोर्ट के आदेश में आलोचना के अधिकार के महत्व पर भी प्रकाश डाला गया है और इस पर पाबंदी लगाए जाने से होने वाले नुक़सान की ओर भी इशारा किया गया है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि..


"अगर राज्य के कार्यों की हर आलोचना या विरोध को सेक्शन 153A के तहत अपराध माना जाएगा, तो लोकतंत्र, जो भारत के संविधान की एक अनिवार्य विशेषता है, जीवित नहीं रहेगा. वैध और कानूनी तरीके से असहमति का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत गारंटीकृत अधिकारों का एक अभिन्न हिस्सा है. हर व्यक्ति को दूसरों के असहमति के अधिकार का सम्मान करना चाहिए."


अनुच्छेद 21 के तहत असहमति का अधिकार


वैध और क़ानून सम्मत तरीक़े से असहमति के अधिकार को अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत सम्मानजनक और सार्थक जीवन जीने के अधिकार के एक हिस्से के रूप में माना जाना चाहिए. अपने आदेश में भी सुप्रीम कोर्ट ने इस पहलू का उल्लेख किया है. इसके पहले भी सुप्रीम कोर्ट कई केस में इस बात को कह चुकी है.


सरकारी फ़ैसलों की निंदा और बौद्धिक समझ


कुछ लोगों की खराब मानसिकता या कम समझने की मानसिकता के आधार पर किसी को भी असंतोष जताने या आलोचना करने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है. संवैधानिक अधिकारों से जुड़े पहलुओं को अच्छी तरह से नहीं समझने के कारण ही देश में नागरिकों के बीच ही अजीब-सा वातावरण बनता जा रहा है. नागरिकों के बीच से ही एक तबक़ा सरकारी फ़ैसलों की निंदा करने वाले लोगों को धार्मिक आधार पर देश विरोधी बताने में जुटा हैं. जबकि संविधान में ऐसा कतई नहीं है.


सोशल मीडिया का कोई मंच हो या सोशल मीडिया से संबंधित कोई ग्रुप हो.. उसमें अलग-अलग सदस्यों की बौद्धिक मानसिकता या संवैधानिक अधिकारों को लेकर समझ का स्तर कैसा है, इससे कतई तय नहीं किया जा सकता है कि दूसरे लोग सरकारी फ़ैसले की आलोचना करें या नहीं करें.


इस मामले में भी बंबई उच्च न्यायालय ने कहा था कि लोगों के एक समूह की भावनाएं भड़कने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. इस आधार पर एफआईआर को रद्द करने से हाईकोर्ट ने इंकार कर दिया था. हाईकोर्ट के कहने का तात्पर्य था कि प्रोफेसर हाजम जिस व्हाट्सएप ग्रुप में हैं, उसमें शामिल महिलाओं और पुरुषों के स्तर के आधार पर आंका जाना चाहिए कि उनके स्टेटस पोस्ट में इस्तेमाल शब्दों का प्रभाव किस रूप में पड़ेगा. 


सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस दलील को सही नहीं माना. शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि कमज़ोर और ख़राब मानसिकता वाले लोगों के स्तर से पूरे मामले को नहीं देखा जा सकता है. भारत 75 से ज़ियादा वर्षों से एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है. ऐसे में देश के लोग लोकतांत्रिक मूल्य के महत्व को समझते हैं. इसलिए ऐसा निष्कर्ष कतई नहीं निकाला जा सकता कि जो भी शब्द प्रोफेसर हाजम ने प्रयोग किए हैं, उन शब्दों से धार्मिक वैमनस्यता बढ़ेगा या घृणा की भावना भड़केगी.


पुलिस तंत्र को लेकर भी महत्वपूर्ण टिप्पणी


सुप्रीम कोर्ट ने 7 मार्च के जजमेंट में स्पष्ट किया है कि आईपीसी के सेक्शन 153A के लिए कसौटी यह नहीं है कि कमज़ोर दिमाग वाले या हर शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण में ख़तरा देखने वाले कुछ व्यक्तियों पर शब्दों का प्रभाव पड़ता है. परीक्षण उचित लोगों पर कथनों के सामान्य प्रभाव का है जो संख्या में महत्वपूर्ण हैं. सिर्फ़ इसलिए कि कुछ व्यक्तियों में घृणा या दुर्भावना विकसित हो सकती है, यह सेक्शन 153A के सब-सेक्शन (1) के क्लॉज़ (a) को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा.


इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने देश के पुलिस तंत्र को लेकर भी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि...


"समय आ गया है कि हम अपनी पुलिस मशीनरी को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा और उनके स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति पर उचित संयम की सीमा के बारे में बताएं. उन्हें हमारे संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में संवेदनशील बनाया जाना चाहिए."


पुलिस तंत्र में मौजूद ख़ामी को उजागर


सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी पुलिस तंत्र में मौजूद ख़ामी को उजागर करता है. ख़ामी का संबंध संवैधानिक प्रावधानों से अनभिज्ञता, नागरिक अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर संवेदनशीलता की कमी से है. इसके साथ ही मेरा मानना है कि नागरिक अधिकारों के मामले में पुलिस को राजनीतिक माहौल या वातावरण को देखते हुए धार्मिक आधार पर कार्यवाही करने से बचना चाहिए. मैं इसे राजनीतिक सांप्रदायिकता का नाम दूंगा. पुलिस को किसी भी क़ीमत पर इस तरह की राजनीतिक सांप्रदायिकता को आधार बनाकर कार्रवाई करने से दूर रहना चाहिए.


राजनीतिक सांप्रदायिकता है संविधान विरोधी


आलोचना के अधिकार का संबंध धर्म से नहीं है. सरकारी फ़ैसले के हर आलोचना या विरोध को धर्म से जोड़कर किसी के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज कराने की प्रवृत्ति बेहद ख़तरनाक है. उससे भी ज़ियादा ख़तरनाक यह है कि इस तरह की शिकायत पर पुलिसिया कार्रवाई का आधार भी राजनीतिक सांप्रदायिकता से पैदा हुआ धार्मिक सांप्रदायिकता हो जाए. इससे वैमनस्यता कम होने के बजाए बढ़ने की संभावना अधिक है, जिसका सीधा असर देश के आम नागरिकों पर ही पड़ना है.


इससे एक अलग तरह की नफ़रत को बढ़ावा मिलता है. देश के नागरिकों के बीच धार्मिक आधार पर नफ़रत पैदा कर राजनीतिक लाभ लेना भी आसान हो जाता है. नफ़रत को राज्य, सरकार, सरकारी और प्रशासनिक तंत्र, पुलिस और मीडिया से किसी भी तरह से संरक्षण नहीं मिलना चाहिए.


राजनीतिक व्यवस्था में असहमति स्वाभाविक


जिस तरह की हमारी राजनीतिक व्यवस्था है, उसके मद्द-ए-नज़र आलोचना के अधिकार की अहमियत और बढ़ जाती है. चाहे लोक सभा हो या विधान सभा चुनाव..भारत में सरकार बनाने के लिए जो चुनाव होता है, वो 'फर्स्ट पास्ट द पोस्ट' सिस्टम पर आधारित है. इस सिस्टम में जीतने के लिए मतदाताओं का बहुमत नहीं चाहिए.  FPTP सिस्टम के के तहत सबसे अधिक वोट हासिल करने वाला उम्मीदवार जीत जाता है.


इस सिस्टम का ही एक परिणाम है कि केंद्र में जिस दल की सरकार होती है, उसके लिए यह ज़रूरी नहीं है कि मतदाताओं के लिहाज़ से उसे देश के बहुसंख्यक लोगों का सरकार बनाने के लिए वोट दिया हो. जैसे 2019 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी को 37.36% और  2014 में 31 फ़ीसदी ही वोट हासिल हुआ था उसके बावजूद बार से बीजेपी की अगुवाई में ही केंद्र में एनडीए की सरकार है. पहले भी ऐसा होता रहा है.


पक्ष के मुक़ाबले विपक्ष का कुल वोट अधिक


भारतीय संसदीय व्यवस्था में सरकार में होने का यह मतलब नहीं होता है कि देश की बहुसंख्यक जनता आपकी समर्थक है. अधिकांश बार सत्ताधारी दल के विरोध में पड़े कुल मतों की संख्या ही अधिक होती है. अब तक देश में 17 बार लोक सभा चुनाव हुआ है और किसी भी दल को 50 फ़ीसदी से अधिक वोट हासिल नहीं हुआ है. प्रतिशत के रूप में कांग्रेस को सबसे अधिक वोट 1957 में हुए लोक सभा चुनाव में हासिल हुआ था. उस समय कांग्रेस का वोट शेयर 47.78% रहा था. यहाँ तक कि 1984 में 414 सीट जीतने के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर 50 फ़ीसदी के आंकड़े को पार नहीं कर पाया था. उस चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 46.86% ही रहा था. वहीं बीजेपी के लिए सबसे अधिक वोट शेयर 2019 के लोक सभा चुनाव में रहा था.


सत्ता में होना और बहुसंख्यकों का समर्थन अलग-अलग


इन आँकड़ों से समझा जा सकता है कि भारतीय संसदीय व्यवस्था में सरकार में होना का मतलब बहुसंख्यक लोगों का वोट या मतदाताओं का बहुमत मिलना नहीं है. यहाँ हमेशा ही पक्ष के मुक़ाबले विपक्ष का कुल वोट अधिक होता है. इस मानक और कसौटी से भी सोचें, तो सरकारी फ़ैसले की आलोचना स्वाभाविक है. भारत में कोई भी दल यह दावा नहीं कर सकता कि चूँकि वो सरकार में है, तो उसकी नीतियाँ, उसके फै़सले और उसकी विचारधारा देश के सभी लोगों की नीतियाँ, फै़सले या विचारधारा हैं. अगर कोई राजनीतिक दल या नेता ऐसा  सोचता है, तो, उसकी संवैधानिक समझ या तो आधी-अधूरी है या फिर वो संविधान से परे अपने आपको और अपने दल को मानने लगा है.


दलगत आस्था और सरकार को समर्थन अलग-अलग


दलगत आस्था और सरकार को समर्थन अलग-अलग पहलू है. सरकार की नीतियों और फै़सलों का समर्थन अलग पहलू है. राजनीतिक लाभ के मद्द-ए-नज़र दोनों का घालमेल करना या फिर देश में ऐसा होने के लिए माहौल बनाना सीधा-सीधा संविधान का उल्लंघन है. यह प्रवृत्ति या कोशिश लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक सर्वोपरि के विमर्श को नहीं मानने या नकारने सरीखा है. हाल के कुछ वर्षों में इस तरह की प्रवृत्ति में तेजी से इज़ाफ़ा हुआ है. पिछले एक दशक में सोशल मीडिया का भी तेज़ी से विस्तार हुआ है. इससे सरकार और उससे जुड़े राजनीतिक दलों के लिए दलगत आस्था को सरकारी आस्था में तब्दील करने में मदद भी मिल रही है. बतौर देश का नागरिक कोई भी दलगत आस्था होने के बावजूद सरकार और सरकार की नीतियों से असहमति जताने और आलोचना करने का अधिकार रखता है.


आम लोग स्थायी पार्टी कार्यकर्ता नहीं होते हैं


दरअसल राजनीतिक दलों की मंशा है कि आम लोगों को भी स्थायी तौर से पार्टी कार्यकर्ताओं में बदल दिया जाए. काफ़ी हद तक इसमें राजनीतिक दलों को कामयाबी भी मिला है. वोट देने का मतलब स्थायी कार्यकर्ता बन जाना नहीं होता है, लेकिन राजनीतिक दलों की ओर से ऐसा माहौल बनाने की पुर-ज़ोर आज़माइश की जा रही है. बीजेपी और उससे जुड़े संगठन इस मामले में काफ़ी आगे हैं. आम लोगों के स्थायी कार्यकर्ता बनने से सरकारी नीतियों और फ़ैसलों की आलोचना की गुंजाइश बिना स्वाभाविक तौर से कम हो जाती है. आम लोग आपस में ही एक-दूसरे को राजनीतिक तौर से जवाब देने लग जाते हैं. इससे राजनीतिक दलों का काम आसान हो जाता है. सरकार के साथ ही सत्ताधारी दल के नेताओं के लिए जवाबदेही से बचने का रास्ता तैयार हो जाता है.


आलोचना को देश या धर्म विरोध से जोड़ना ग़लत


सरकारी फ़ैसलों के विरोध या आलोचना को देश विरोध या धर्म विरोध से जोड़ दिया जा रहा है. इस प्रवृत्ति में तेज़ी से इज़ाफ़ा होने की पूरी जवाबदेही सरकार और सत्ताधारी दलों की है. यह एक सरकार या एक दल की बात नहीं है. भारत में पहले भी ऐसा होता रहा है. हालाँकि अब स्थिति भयावह होती जा रही है. सरकार या सरकारी फ़ैसले की आलोचना के नाम पर देश के आम नागरिकों के साथ ही कई पत्रकारों के साथ भी पुलिस की ओर से अनुचित कार्रवाई की जा रही है. इससे देश के आम लोगों में भय का भी माहौल बन रहा है. लोग खुलकर सरकारी नीतियों और फ़ैसलों पर अपनी बात रखने में भी डरने लगे हैं. इस प्रवृत्ति से धार्मिक ध्रुवीकरण को सिर्फ़ चुनाव के दौरान ही नहीं, बल्कि स्थायी तौर से बढ़ावा मिल रहा है या कहें स्थायित्व वाली स्थिति बन गयी है.


सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला उम्मीद की किरण


ऐसे में आलोचना के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फ़ैसला उम्मीद की किरण है. शीर्ष अदालत से जारी होने वाले ऐसे आदेश नागरिकों को संविधान से मिले बुनियादी अधिकारों को सिर्फ़ सुनिश्चित ही नहीं करते हैं, बल्कि संरक्षित भी करते हैं. इन आदेशों को लेकर देश के आम लोगों में व्यापक बहस की ज़रूरत है, जिससे संवैधानिक अधिकारों को लेकर आम लोगों की समझ और बेहतर हो. सरकार की नीतियों और फै़सलों की आलोचना करना देश के हर नागरिक का बुनियादी हक़ है. इसे न तो कोई सरकार छीन सकती है और न ही कोई व्यक्ति छीन सकता है. इस तरह के विमर्श को मीडिया के अलग-अलग मंचों से बढ़ाना देने की सख़्त ज़रूरत है.


लोकतंत्र की मज़बूती असहमति पर ही निर्भर


लोकतंत्र की सफलता और मज़बूती के लिए सहमति और असहमति दोनों ही आधार स्तंभ हैं. सिर्फ़ सहमति या सिर्फ़ असहमति से संतुलन नहीं बनाया जा सकता है. किसी भी शासन व्यवस्था में सिर्फ़ सहमति की ही गुंजाइश हो और असहमति के लिए जगह नहीं हो, तो ऐसी व्यवस्था को लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है. ऐसी व्यवस्था धीरे-धीरे व्यक्तिवादी तंत्र का रूप ले सकती है. फिर लोकतंत्र सिर्फ़ काग़ज़ों पर सिमट कर रह जाता है. 'नागरिक प्रथम और सर्वोपरि' विमर्श के तहत लोकतंत्र में सहमति से अधिक आम लोगों की असहमति का महत्व होता है. जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में देश के आम नागरिकों की असहमति को सरकार अधिक महत्व देती है, वहाँ लोकतंत्र और मज़बूत होते जाता है. इससे राज्य या सरकार के स्तर पर नागरिक अधिकारों के उल्लंघन की गुंजाइश कम होती जाती है.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]