कलकता हाईकोर्ट के जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने अपने पद से इस्तीफा देकर भाजपा जॉइन किया और इससे एक राजनीतिक तूफान उठ खड़ा हुआ है. कई का कहना है कि न्यायाधीशों को खासकर इस तरह से नहीं करना चाहिए. हालांकि, यह कोई पहला मामला नहीं है, जब रिटायरमेंट के या इस्तीफा देने के बाद न्यायाधीशों ने राजनीति में कदम रखा हो. अगर बिल्कुल हाल की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को भी पदमुक्ति के बाद राज्यसभा के लिए नामित किया गया था. उस वक्त ये कहा गया था कि उन्हें अयोध्या मामले में दिए गए फैसले का पुरस्कार मिला है. फिलहाल, तो अभिजीत गंगोपाध्याय स्कैनर के अंदर हैं, क्योंकि वैसे भी उन्हें ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ क्रूसेडर माना जाता रहा है. 


एक होना चाहिए मानक


अलग-अलग मानक नहीं होना चाहिए. आज गंगोपाध्याय की बात हो रही है, लेकिन ऐसा ये करने वाले पहले तो नहीं हैं. कई बार लोग कूलिंग पीरियड की बात तो करते हैं. कि कार्यकाल खत्म होने के एक खास समय तक किसी भी पार्टी से नहीं जुड़ना चाहिए.,लेकिन क्या ये संभव है? सभी को समझाना चाहिए कि काफी अनुभव और ज्यादा उम्र होने के बाद ही कोई भी हाइकोर्ट के जज बनते हैं. सुप्रीम कोर्ट के जज की उम्र करीब 60 वर्ष के आसपास होती है और हाइकोर्ट के जज की उम्र करीब 50 साल की होती है. अगर 'कूलिंग पीरियड'  किया जाए कि पांच सालों तक कोई राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़ पाएंगे तो क्या वो इस मायने में सक्षम होंगे कि कूलिंग पीरियड पूरी करने के बाद राजनीति में उतनी ही ऊर्जा से काम कर सकें, जबकि देश में अधिकतर वोटर युवा हैं. ये एक बड़ा प्रश्न है.


पहले भी राजनीति से जजों का रहा है संबंध


खास बात यह देखने की है कि पहले भी ऐसी परंपरा रही है कि नहीं, जैसे हम जिस राज्य की बात कर रहे हैं, उस बंगाल में तीन से चार राजनीतिक दल हैं, जिसमें  टीएमसी, कांग्रेस , भाजपा और कम्युनिष्ट हैं.
कम्यूुनिस्ट पार्टी ने तो सुप्रीम कोर्ट में जज को भेजा, जो काफी प्रसिद्ध भी हुए. जिनका नाम वी आर कृष्ण अय्यर था. वह 1968 में जब जज बने उसके पहले केरल की विधानसभा में तीन बार विधायक चुने गए थे. तीन बार के विधायक को हाइकोर्ट भेजा गया, उसके पांच साल के बाद सुप्रीम कोर्ट के वह जज बना दिए गए. तो कम्युनिस्ट  पार्टी तो इस पर सवाल ही नहीं खड़ा कर सकती. दूसरी पॉलिटिकल पार्टी कांग्रेस सवाल उठाती है, तो भी गलत है क्योंकि उसका भी ऐसा ही इतिहास है. 1987 में उन्होंने जस्टिस बहरूल इस्लाम को जज बनाया था. बहरूल इस्लाम 1962 और 1968 में कांग्रेस की तरफ से राज्यसभा के सांसद थे. उसके बाद उन्होंने तो असम विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था. वह हार गए. 1968 वाली के छह साल कार्यकाल वाले राज्यसभा सांसद के बीच में चार साल के बाद 1972 में अपने पद से इस्तीफा दिया और गोवाहाटी हाइकोर्ट के जज बन गए. बाद में हाइकोर्ट से इस्तीफा देकर फिर से राजनीति में वापस आ गए. चुनाव नहीं लड़ा. 1980 में इंदिरा गांधी ने सीधे उनको सुप्रीम कोर्ट में भेज दिया. उसके बाद इस्लाम ने बिहार के तत्कालीन सीएम जगन्नाथ मिश्र  के पक्ष में एक विवादित फैसला दिया और फिर सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया. उसके बाद फिर से राजनीति में आ गए. इस बार 1983 में कांग्रेस ने उन्हें फिर से राज्यसभा में भेजा.


कांग्रेस और कम्युनिस्टों का दामन नहीं साफ


चाहे कांग्रेस हो या कम्युनिस्ट, दोनों ही दलों ने दो नेताओं को जज बनाया. अगर किसी विचारधारा की बात करते हैं तो यह तो पूरी तरह से गलत है. पिछले 70 साल में सबसे अधिक समय तक इन्होंने ही शासन किया है चाहें वो देश हो या बंगाल राज्य हो. अगर कोई सिद्धांत तय कर रखा है तो दूसरी पार्टियां भी तो उपयोग करेगी. बात पश्चिम बंगाल के जिस कलकता हाइकोर्ट के जज गंगोपाध्याय की हो रही है वो तो पहले ही एंटी टीएमसी माने जाते हैं, जिस तरह भ्रष्टाचार और अपराध की घटनाएं बढ़ी हैं और कोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है तो बंगाल में विपक्ष पार्टी बीजेपी जरूर ही फायदा उठाना चाहेगी. जब जुडियिसरी की बात आती है तो निष्पक्षता की  आ जाती है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट का मोटो है 'यतो धर्मः ततो जयः', मतलब जहां धर्म है, वहीं विजय है. हाइकोर्ट के लिए 'सत्यमेव जयते' यानी सत्य की जीत होती है. निष्पक्षता होनी चाहिए. लेकिन उसका मानक क्या होगा? क्या जज और ब्यूरोकेट्स को राजनीति में आना चाहिए या नहीं. और क्या वो आ सकते हैं कि नहीं. ये बात आम जनता के ऊपर होती है. वे ही किसी को चुनते हैं. राजनीतिक दल जब किसी को लोकसभा या विधानसभा के लिए टिकट देते हैं तो वो सीधे जनता के पास जाते हैं. और वोट मांंगते हैं.


संविधान हालांकि ऐसी कोई बात नहीं करता कि जज या कोई ब्यूराेकेटस चुनाव नहीं लड़ें, लेकिन संविधान ये कहता है कि अगर आप देश के नागरिक हैं तो चुनाव लड़ सकते हैं. क्या लड़ के आपने देश को फायदा पहुंचाया है? एक रिटायर्ड ऑफिसर राजनीति में आकर देश को आगे ले जा रहे हैं जो कि एस जयशंकर हैं और अब तक के सबसे अच्छे विदेश मंत्रियों में एक हैं. उन्होंनें अपने अनुभव के दम पर ऐसा किया है. 


पारदर्शिता और शुचिता हो पैमाना


एक मानक होना चाहिए कि जब नौकरशाह बनते हैं तो अपनी संपत्ति बताते हैं, लेकिन जब हटते हैं तो इसकी जानकारी नहीं देते. ये व्यवस्था कर दी जाए कि अपनी सैलरी, अपनी संपत्ति और अपनी पेंशन आदि को बता दें तो करपशन को लेकर जो संशय है वो नहीं के बराबर हो जाएगी. वो पारदर्शिता आ जाएगी. सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर देखा जाता है कि वहां पर रिटायर्ड जजों की सारी संपत्ति का डाटा पड़ा हुआ है, लेकिन कई रिटायर जज इसे अपडेट नहीं करते. अगर पारर्दिशता नहीं रहेगी तो कैसे लोगों को यकीन होगा? ऐसी चीजें हाइकोर्ट में भी देखी गयी हैं. कुछ हद तक पारदर्शिता आई है, क्योंकि सभी चीजें ऑनलाइन होते जा रही हैं.


जिस तरह से टीएमसी के लोग अभिजीत गंगोपाध्याय पर ताना कसते थे कि सीएम क्यों नहीं बन जाते, बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीररंजन चौधरी ने भी कहा कि मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार क्यों नहीं बन जाते तो अब उन्होंने भाजपा जॉइन किया है. ऐसा बड़ा चेहरा होता है तो सभी पार्टियां चाहती हैं कि वो उनको अपने पार्टी में ला सकें. अभिजीत मुखोपाध्याय को जहां तक पेंशन मिलने  की बात है तो वो पैसा उनको मिलेगा.


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