बाबा साहेब  डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष भर थे तो संविधान बनाने का पूरा श्रेय उन्हें ही क्यों दिया जाता है? आखिर जब संविधान सभा में कुल 389 सदस्य थे तो अकेले अंबेडकर को ही इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है. भीमराव बाबा साहेब अंबेडकर को भारतीय संविधान का जनक क्यों कहा जाता है. आखिर क्यों लोग मानते हैं कि भारत का जो संविधान है, उसे डॉक्टर अंबेडकर ने ही बनाया था. ये सारे सवाल हर किसी के जेहन में आते हैं. 


द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही ये तय हो गया था कि अब अंग्रेज भारत पर लंबे वक्त तक शासन नहीं कर सकेंगे. लेकिन अगर अंग्रेज भारत छोड़कर जाते हैं तो इतने बड़े देश की जिम्मेदारी सौंपी किसे जाए. आखिर वो कौन होगा, जिसके हवाले पूरा देश होगा. आखिर कांग्रेस में वो कौन-कौन से नेता होंगे, जिन्हें अंग्रेज देश चलाने की जिम्मेदारी देंगे. इसी सवाल का जवाब तलाशने के लिए 23 मार्च 1946 को कैबिनेट मिशन का दल दिल्ली पहुंचा.


सितंबर 1946 में अंतरिम सरकार बनी
इस टीम में तीन लोग शामिल थे. पैट्रिक लॉरेंस, सर स्टेफोर्ड क्रिप्स और ए .बी. अलेक्जेंडर. इस दल ने सभी पक्षों से मिलकर बात की. 16 मई 1946 को कैबिनेट मिशन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि भारत की आजादी के बाद अंग्रेज भारत की सत्ता संविधान सभा को सौंप देंगे. इस संविधान सभा में कौन-कौन होगा, इसके लिए चुनाव होगा. ये भी तय हुआ कि संविधान सभा में कुल 389 सदस्य होंगे, जिनमें 292 सदस्य प्रांतों से और 93 सदस्य प्रिंसली स्टेट्स यानी रियासतों से होने थे. 25 जून को कैबिनेट मिशन की इस योजना पर आम सहमति बन गई. 29 जून को मिशन वापस लौट गया. इसी मिशन की सिफारिशों के तहत अंतरिम सरकार का गठन हुआ, जिसमें 2 सितंबर 1946 को भारत की अंतरिम सरकार बनी और जवाहर लाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने.


बंगाल से संविधान सभा के सदस्य बने अंबेडकर
इससे पहले कैबिनेट मिशन की सिफारिशों पर संविधान सभा की 385 सीटों के लिए जुलाई-अगस्त 1946 में चुनाव हो गए थे. उस चुनाव में अंबेडकर भी एक उम्मीदवार थे, जो बंबई से शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के उम्मीदवार थे, लेकिन वो चुनाव हार गए. लेकिन महात्मा गांधी से लेकर कांग्रेस और यहां तक कि मुस्लिम लीग के लोग भी चाहते थे कि अंबेडकर को तो संविधान सभा का सदस्य होना ही चाहिए. तब बंगाल से बीआर अंबेडकर को उम्मीदवार बनाया गया. मुस्लिम लीग के वोटों के जरिए अंबेडकर चुनाव जीत गए और संविधान सभा के सदस्य बन गए.


राजेंद्र प्रसाद बने संविधान सभा के अध्यक्ष 


लेकिन अभी तो असली कहानी बाकी थी. जिस मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन के चुनावी प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था, उसी मुस्लिम लीग ने संविधान सभा में शामिल होने से इनकार कर दिया. इस बीच 6 दिसंबर, 1946 को ब्रिटिश सरकार ने भी मान लिया था कि दो देश और दो संविधान सभाएं बन सकती हैं. ब्रिटिश सरकार के इस मानने भर को मुस्लिम लीग ने अपनी जीत के तौर पर देखा. और फिर 9 दिसंबर, 1946 को जब संविधान सभा की पहली बैठक हुई तो मुस्लिम लीग से कोई भी उस बैठक में शामिल नहीं हुआ. मुस्लिम लीग ने मुस्लिमों के लिए अलग संविधान सभा और अलग देश की मांग कर दी. लाख कोशिशों के बाद भी जब मुस्लिम लीग के लोग नहीं माने तो संविधान सभा ने अपना काम शुरू कर दिया. सबसे वरिष्ठ सदस्य डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा को संविधान सभा का अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त किया गया. फिर 11 दिसंबर को सर्वसम्मति से डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष नियुक्त किए गए.


संविधान सभा की बैठक के पांचवे दिन 13 दिसंबर को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पेश किया. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता पुरुषोत्तम दास टंडन ने इसका अनुमोदन किया. हर सदस्य को इसपर अपनी बात रखनी थी. शुरुआत तो इसी से हुई कि जब तक मुस्लिम लीग के सदस्य इस सभा में शामिल नहीं होते, बात होनी ही नहीं चाहिए. लेकिन फिर मुस्लिम लीग का अड़ियल रवैया देखकर संविधान सभा के ज्यादातर लोग आगे बढ़ने पर राजी हो गए.


जब पहली बार संविधान सभा में बोले अंबेडकर
और फिर आई तारीख 17 दिसंबर, 1946. वो तारीख जब डॉक्टर भीम राव अंबेडकर पहली बार संविधान सभा में बोले. हालांकि उस दिन डॉक्टर अंबेडकर से पहले 20-22 और भी सदस्य थे, जिन्हें बोलना था. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय अपनी किताब भारतीय संविधान की अनकही कहानी में लिखते हैं कि अंबेडकर 17 दिसंबर को बोलने के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्हें पता था कि और भी लोग उनसे पहले बोलने वाले हैं, लिहाजा उनका नाम अगले दिन आ सकता है. तब वो तैयारी करके संविधान सभा में बोल सकते हैं. लेकिन और लोगों को पीछे छोड़ते हुए 17 दिसंबर को ही संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने अंबेडकर को बोलने के लिए आमंत्रित किया. उस दिन अंबेडकर बोले और खुलकर बोले. और ऐसा बोले कि उनका कहा इतिहास हो गया. बकौल राम बहादुर राय की किताब भारतीय संविधान की अनकही कहानी, डॉक्टर अंबेडकर ने कहा :


''कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झगड़े को सुलझाने की एक और कोशिश करनी चाहिए. मामला इतना संगीन है कि इसका फैसला एक या दूसरे दल की प्रतिष्ठा के ख्याल से ही नहीं किया जा सकता. जहां राष्ट्र के भाग्य का फैसला करने का प्रश्न हो, वहां नेताओं, दलों, संप्रदायों की शान का कोई मूल्य नहीं रहना चाहिए. वहां तो राष्ट्र के भाग्य को ही सर्वोपरि रखना चाहिए.''


उस दिन डॉक्टर अंबेडकर ने अपने भाषण का समापन करते हुए कहा: '' शक्ति देना तो आसान है, पर बुद्धि देना कठिन है.''


अप्रैल, 1947 को संविधान सभा का तीसरा सत्र शुरू
लंबे वाद-विवाद के बाद 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, जो संविधान की प्रस्तावना का आधार बना. हालांकि उस दिन तक भी मुस्लिम लीग का कोई प्रतिनिधि संविधान सभा में नहीं आया. टकराव और बढ़ गया और तब 13 फरवरी, 1947 को पंडित नेहरू ने मांग की कि अंतरिम सरकार में शामिल मुस्लिम लीग के मंत्री इस्तीफा दे दें. सरदार पटेल ने भी यही दोहराया. इस बीच 20 फरवरी को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने घोषणा की कि जून 1948 से पहले सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जाएगा. लेकिन इसके लिए एटली ने शर्त रखी. और शर्त ये थी कि जून 1948 से पहले संविधान बन जाना चाहिए. ऐसा नहीं हुआ तो फिर ब्रिटिश हुकूमत को विचार करना होगा कि सत्ता किसे सौंपी जाए. ऐसी परिस्थितियों को देखते हुए 28 अप्रैल, 1947 को संविधान सभा का तीसरा सत्र शुरू हुआ. अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने एटली की घोषणा के बारे में सबको बताया और कहा कि अब संविधान सभा को अपना काम तुरंत पूरा करना होगा.


अंबेडकर दोबारा बंबई से संविधान सभा के सदस्य बने
इसके ठीक पहले 24 मार्च 1947 को नए गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन भारत आ गए थे और चंद दिनों में ही तय कर दिया था कि भारत का बंटवारा होगा. भारत और पाकिस्तान दो देश होंगे. अब इसकी वजह से संविधान सभा में फिर बदलाव होना था. जिस सीट जयसुरकुलना से अंबेडकर संविधान सभा के सदस्य चुने गए थे, वो सीट पाकिस्तान के हिस्से में चली गई. इस तरह से अंबेडकर एक बार फिर से संविधान सभा से बाहर हो गए. लेकिन तब तक संविधान सभा के लोगों ने ये तय कर लिया था कि अंबेडकर का संविधान सभा में रहना जरूरी है. तब बंबई प्रेसिडेंसी के प्रधानमंत्री हुआ करते थे बीजी खेर. उन्होंने संविधान सभा के एक और सदस्य और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता एम आर जयकर को इस्तीफा देने के लिए राजी किया. एम आर जयकर ने इस्तीफा दिया और उनकी जगह पर अंबेडकर फिर से संविधान सभा में शामिल हो गए.


14 अगस्त, 1947 की रात 12 बजते ही संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा- 'संविधान सभा ने भारत का शासनाधिकार ग्रहण कर लिया है.'


प्रारूप समिति के अध्यक्ष बने अंबेडकर
आजादी मिलने के बाद और सत्ता का हस्तांतरण संविधान सभा के पास होने के साथ ही संविधान सभा अपने मूल लक्ष्य की ओर आगे बढ़ी. इसी कड़ी में 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर पर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का नाम सर्वसम्मति से पास कर दिया. प्रारूप समिति में और भी 6 सदस्य थे.


30 अगस्त 1947 से संविधान सभा स्थगित कर दी गई ताकि संविधान का मसौदा या कहिए प्रारूप बनाया जा सके. 27 अक्टूबर से प्रारूप समिति ने रोजमर्रा का काम शुरू किया. बात-विचार और बहस-मुबाहिसे के बाद 21 फरवरी 1948 को प्रारूप समिति के अध्यक्ष अंबेडकर ने संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद के सामने संविधान का प्रारूप रखा. राजेंद्र प्रसाद ने इस मसौदे को सरकार के मंत्रालयों, प्रदेश सरकारों, विधानसभाओं और सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को भेजा ताकि सबके सुझावों को शामिल किया जा सके. जो सुझाव आए, उनपर प्रारूप समिति ने 22 मार्च से 24 मार्च 1948 के बीच विचार विमर्श किया. 3 नवंबर, 1948 से फिर से संविधान सभा की बैठक शुरू हुई. 4 नवंबर, 1948 को डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने फिर से मसौदे पर बात की और संविधान सभा को कहा कि ये मसौदा उस समिति ने बनाया है, जिसे इसी संविधान सभा ने बनाया था, जिसके अध्यक्ष  अंबेडकर हैं. 4 नवंबर को उसी दिन अंबेडकर ने मसौदे को संविधान सभा के पटल पर रखा. आने वाले दिनों में कुछ संशोधन भी सुझाए गए. कुछ माने गए. कुछ को खारिज कर दिया गया. फिर 17 नवंबर, 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की:


''अब हम संविधान के तृतीय पठन को आरंभ करेंगे.''
इसका अर्थ था कि अब संविधान बनकर तैयार हो गया है. इसके बाद राजेंद्र प्रसाद ने मसौदा समिति के अध्यक्ष अंबेडकर को पुकारा. वो खड़े हुए. और कहा: ''मैं यह प्रस्ताव पेश करता हूं कि संविधान को सभा ने जिस रूप में निश्चित किया है, उसे पारित किया जाए.' इस प्रस्ताव पर 17 नवंबर 1949 से 25 नवंबर, 1949 तक बहस हुई. और फिर 26 नवंबर को संविधान सभा के अध्यक्ष के तौर पर राजेंद्र प्रसाद ने अपना आखिरी अध्यक्षीय भाषण दिया. भाषण खत्म होने के बाद राजेंद्र प्रसाद ने पूछा- 'प्रश्न यह है कि इस सभा द्वारा निश्चित किए गए रूप में यह संविधान पारित किया जाए.'


वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय अपनी किताब भारतीय संविधान की अनकही कहानी में लिखते हैं कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के इस सवाल पर ध्वनिमत से संविधान स्वीकृत किया गया. सदन में देर तक तालियां बजती रहीं...और फिर 26 जनवरी, 1950 को देश को अपना वो संविधान मिला, जिसके लिए हम गर्व से कहते हैं कि हमारा संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, जिसको बनाने में अंबेडकर का वो योगदान है, जिसकी वजह से उन्हें भारत के संविधान निर्माता की उपाधि मिली हुई है.


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