चुनाव में चेहरा जितना महत्वपूर्ण होता है, उससे ज्यादा उस चेहरा का उपयोग… बात अगर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की हो तो वो चेहरा और उसके इस्तेमाल के तौर-तरीके और रणनीति और ज्यादा अहम हो जाती है. वो इसलिए क्योंकि पीएम नरेंद्र मोदी खुद उत्तर प्रदेश से आते हैं. चूंकि चुनाव प्रदेश विधानसभा का है और वहां पर फिलहाल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद में एक बड़ा फैक्टर हैं, लिहाजा उनके भी हर बयान से लेकर फैसले तक पर चुनावी माहौल काफी हद तक निर्भर करेगा. राज की बात उत्तर प्रदेश में इस योगी फैक्टर और इस फैक्टर के जरिये यूपी में दोबारा सत्ता में आने के लिए इस फैक्टर का इस्तेमाल पर है.


बड़े नेता जब चुनाव लड़ते हैं तो न सिर्फ अपनी सीट बल्कि उस इलाके में खासा प्रभाव डालते हैं. इसीलिए, बेहद सोच-समझकर सीटें तक चुनी जाती हैं. कई बार नेताओं  के लिए सुरक्षित सीटें भी चुनी जाती हैं. मगर जब नेता की लोकप्रियता ज्यादा हो तो रणनीतिक तौर पर ऐसी सीट चुनी जाती है, जिसका असर आस-पास की चंद सीटें नहीं बल्कि पूरे इलाके में व्यापक स्तर पर हो. इसका सबसे बड़ा उदाहरण बीजेपी ही है, जिसने 2014 में अपने प्रधानमंत्री पद के चेहरे नरेंद्र मोदी को गुजरात से लाकर उत्तर प्रदेश में उतारा. यूपी में भी काल से पुराने शहर काशी में उतारने के पीछे एक सोची-समझी थीम थी.


मां गंगा का किनारा, महादेव का बसेरा और पूर्वांचल की राजधानी वाराणसी की पहचान थी. मोदी के चुनाव लड़ने से यूपी ही नहीं पूर्वांचल से बिहार तक संदेश गया. पश्चिमी भारत के सीमावर्ती राज्य से बिल्कुल  भारत के दिल में आकर पूर्वांचल में मोदी ने ऐसी राजनीतिक सुनामी चलाई जो कि 2014, 19  लोकसभा चुनाव ही नहीं, बल्कि 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी सभी विरोधियों को उड़ा और बहा ले गई. विधानसभा चुनाव में इतिहास रचने के बाद बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ के रूप में एक ऐसा चेहरा चुना जो प्रखर और मुखर हिंदुत्व का आईकान था और पूरे देश में इस गेरुआधारी नेता जो कि अपने फायरब्रांड बयानों के चलते चर्चित रहे हैं, उनका भरपूर उपयोग किया.


अब सबसे बड़ा राजनीतिक पेंच भी यही है कि 2022 का विधानसभा चुनाव सिर्फ मोदी के नाम पर बीजेपी नहीं लड़ सकती. वैसे तो हर चुनाव में चेहरा मोदी होते हैं, यहां यूपी में भी स्वाभाविक तौर पर होगा. मगर स्थानीय समीकरण और जब चेहरा योगी जैसा राष्ट्रीय स्तर पर छा चुका हो तो यूपी में भी ये फैक्टर अहम हो जाता है. अमित शाह की व्यूह रचना भी यूपी में हुई तीनों विजयों में अहम कारक थी. अभी वह गृह मंत्री हैं, लेकिन यूपी की जटिल स्थिति के चलते अब उन्होंने फिर से यूपी चुनावों की कमान संभाल ली है.


यह सर्वविदित है कि मोदी के चेहरे को कैसे ज्यादा से ज्यादा भुनाना है, इसके पीछे शाह की रणनीति ही थी. अब योगी जो कि खुद भी यूपी में बड़ा फैक्टर हैं, उनका कैसे उपयोग किया जाए, यह भी अहम है. वैसे तो योगी आदित्यनाथ गोरक्षनाथ पीठ के पीठाधीश्वर हैं. पांच बार गोरखपुर से सांसद रहे हैं. उनकी अपनी हिंदू युवा वाहिनी की अलग पहचान भी रही है. अब मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी का कद जाहिर तौर पर और बढ़ा है. अभी तक के तीन चुनाव तो मोदी के नाम पर निकल गए, लेकिन इस दफा योगी भी कसौटी पर होंगे. राज्य सरकार का काम और मुख्यमंत्री की छवि जाहिर तौर पर मतदान के समय बड़ा मुद्दा होगी.


राज की बात ये है कि बीजेपी और संघ का शीर्ष नेतृत्व यूपी में योगी की हिंदूवादी छवि के सही इस्तेमाल को लेकर बेहद संजीदा है. गोरखपुर में योगी की पकड़ है. साथ ही अयोध्या में योगी ने दीपोत्सव से लेकर विकास कार्यों तक में बेहद दिलचस्पी दिखाई है. वह लगातार अयोध्या जाते रहे हैं. चर्चा ये भी थी योगी अयोध्या से विधानसभा चुनाव लड़ेंगे.


वैसे जब योगी सीएम बने थे तो उन्होंने अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की तरह ही चुनाव नहीं लड़ा था. वह विधानपरिषद से चयनित होकर सदन पहुंचे थे. राज की बात ये है कि इस दफा खुद योगी भी चाहते हैं और बीजेपी नेतृत्व भी अपने सभी बड़े नेताओं को चुनाव लड़ाने पर गंभीर है. ऐसे में अयोध्या से योगी का नाम चल रहा था. क्योंकि राम के नाम को लेकर योगी ने बड़ी लकीर खींची है.


कहते हैं कि राजनीति में जैसा दिखे या प्रतीत हो, राजनीतिज्ञ उससे आगे की सोचते हैं. फिर बीजेपी तो हतप्रभ करने वाले फैसलों में बेहद पारंगत है. राज की बात ये है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिहाज से सबसे संवेदनशील पश्चिमी उत्तर प्रदेश में योगी की कट्टर हिंदुत्व वाली छवि को भुनाने के लिए एक अहम विचार आया है. ये ऐसा विचार है, जिसको लेकर न सिर्फ बीजेपी-संघ संजीदा है, बल्कि खुद योगी भी इस पर विचार कर रहे हैं.


राज की सबसे बड़ी बात ये है कि राम मंदिर का लक्ष्य पूरा होने के बाद संघ और बीजेपी से जुड़े संगठनों ने जिस तरह मथुरा का नाम आगे बढ़ाना शुरू किया है, उस रथ के सारथी योगी हो सकते हैं. मतलब ये कि पूर्वांचल के योगी से किसान आंदोलन और जाटों के बीच उपजी नाराजगी को भरने के लिए योगी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरफ रुख कर सकते हैं. योगी को चुनाव ऐसी सीट से लड़ाने की तैयारी है, जो काशी और अयोध्या के समान ही हिंदुओं की आस्था से जुड़ी हो और बीजेपी की राजनीति को ताकत देने वाला एक नया दरवाजा खुल जाए.


मतलब ये कि रामजन्मभूमि पर तो संघ परिवार और बीजेपी का संघर्ष कानून के रास्ते गुल खिला गया है. अब बारी है कृष्ण जन्म भूमि की. राज की बात ये है कि संघ-बीजेपी में योगी को श्रीकृष्ण भगवान की जन्मस्थली मथुरा से उतारने की तैयारी चल रही है. संघ के एक बड़े पदाधिकारी ने मुझसे कहा कि –गोरखपुर पूरब में है और वहां से मोदी भी हैं और योगी भी. अयोध्या तो केंद्रीय हिस्सा है और वहां लक्ष्य पूरा हो गया है. मगर पश्चिम में हालात थोड़े क्रिटिकल हैं. मगर मथुरा सीट में बीजेपी ताकतवर. अगर योगेश्वर की जन्मभूमि से योगी लड़ेंगे तो पूरे चुनाव में फर्क पड़ेगा–


वैसे इस समय मथुरा से विधायक बीजेपी के एक और कद्दावर नेता श्रीकांत शर्मा हैं. शर्मा फिलहाल ऊर्जा मंत्री हैं और गृह मंत्री अमित शाह के विश्वस्त सिपहसालार माने जाते हैं. वे पिछले चुनाव में एक लाख से ज्यादा वोटों से जीते थे. चूंकि श्रीकांत शर्मा का दिल्ली में लंबा कार्यकाल रहा है, लिहाजा उन्हें दिल्ली में कोई जिम्मेदारी दी जा सकती है. मगर योगी के मथुरा आने से न सिर्फ हिंदुत्व की धार मजबूत होगी, बल्कि पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक संदेश जाएगा. इस लिहाज से संघ परिवार और बीजेपी में योगी को योगेश्वर की भूमि में कमाल दिखाने का विचार बलवती हो रहा है. 



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