आपराधिक मानहानि मामले में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को फिलहाल बहुत बड़ी राहत मिल गई है. सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरनेम पर टिप्पणी से जुड़े मामले में 4 अगस्त को राहुल गांधी की दोषसिद्धी यानी कन्विक्शन पर रोक लगा दी है. इसके साथ ही राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता के बहाली का रास्ता साफ हो गया है.


सुप्रीम कोर्ट से राहुल  गांधी के कन्विक्शन पर रोक


दरअसल सूरत की एक अदालत ने इस साल 23 मार्च को राहुल गांधी को आपराधिक मानहानि से जुड़े केस में दोषी करार देते हुए दो साल की सज़ा सुनाई थी. इसकी वजह से जन प्रतिनिधित्व  अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) का धारा 8 (3) के तहत राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म हो गई थी.


राहुल को गुजरात हाईकोर्ट से नहीं मिली थी राहत


उसके बाद राहुल गांधी ने इस सूरत की निचली अदालत के फैसले को सूरत की ही अपीलीय अदालत में चुनौती दी, जहां से भी उन्हें 20 अप्रैल को राहत नहीं मिली. उसके बाद राहुल गांधी ने गुजरात हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन उन्हें गुजरात हाईकोर्ट से भी राहत नहीं मिली. गुजरात हाईकोर्ट ने 7 जुलाई को दिए अपने फैसले में सूरत की अदालत से राहुल गांधी की मिली दोषसिद्धि पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश को न्यायसंगत, उचित और वैध बताया है.


सदस्यता बहाली के लिए कन्विक्शन पर रोक जरूरी


राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता बहाल हो, इसके लिए ये जरूरी था कि उनके कन्विक्शन पर रोक किसी अपीलीय अदालत से लग जाए. सुप्रीम कोर्ट में ऐसा ही हुआ. सर्वोच्च अदालत ने राहुल गांधी के कन्विक्शन पर तब तक के लिए रोक लगा दी है, जब तक कि पूरे मामले का निपटारा सुप्रीम कोर्ट से नहीं हो जाता है.


कन्विक्शन पर रोक आरोप मुक्त होना नहीं होता


भले ही सुप्रीम कोर्ट से दोषसिद्धि पर रोक लगी है, लेकिन निचली अदालत से मिले कन्विक्शन पर रोक का ये मतलब नहीं होता है कि आप आरोप से बरी हो गए हैं, ये बात समझने वाली है. ये पूरी सुनवाई के बाद जब सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला आएगा, तभी स्पष्ट होगा कि राहुल गांधी आरोप से बरी हुए हैं या नहीं.


राहुल गांधी से जुड़े आपराधिक मानहानि का मामला अपने आप में अनोखा है. ये कहने के पीछे कई कारण है. हालांकि पहले सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी के कन्विक्शन पर रोक लगाते हुए क्या कहा, इसे समझने की जरूरत है. 


राहुल गांधी का मामला है अनोखा


जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने कन्विक्शन पर रोक लगाई है. ऐसा करने के पीछे सुप्रीम कोर्ट ने जो कुच कारण बताया है, उनमें से एक ये है कि निचली अदालत यानी सूरत की अदालत के जज ने राहुल गांधी को दोषी ठहराते वक्त कोई कारण नहीं बताया था. निचली अदालत ने सिर्फ इतना कहा था कि राहुल गांधी को अवमानना के मामले में सुप्रीम कोर्ट से चेतावनी मिली हुई है.


दरअसल राफेल सौदे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ टिप्पणी करने  से जुड़े केस में राहुल गांधी ने पहले सुप्रीम कोर्ट में बिना शर्त माफी मांगी थी. उसके बाद उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना कार्यवाही बंद करते हुए राहुल गांधी को भविष्य में ज्यादा सावधान रहने की चेतावनी दी थी.


निचली अदालत राहुल को अधिकतम सज़ा


अब सूरत की अदालत के दोषसिद्धि पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि हमने जो पहले राहुल गांधी को चेतावनी दी थी उसके अलावा निचली अदालत के जज ने इस दोषसिद्धि के लिए कोई और कारण नहीं बताया है. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि निचली अदालत ने मानहानि से जुड़े आपराधिक मामलों में जो अधिकतम सज़ा होती है..दो साल की.. वो राहुल गांधी को दे दी. इससे राहुल गांधी जन प्रतिनिधित्व कानून के अयोग्यता वाले प्रावधानों के दायरे में आ गए.


एक भी दिन कम सज़ा मिलती तो...


अगर निचली अदालत से दो साल से एक दिन कम सज़ा मिली होती तो राहुल गांधी RPA के अयोग्यता वाले प्रावधान के दायरे में नहीं आती. 4 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में जो भी कहा है, उससे निचली अदालत और हाईकोर्ट को लेकर कई सवाल उठते हैं.  इतना तो कह ही सकते हैं कि इससे ज्यूडिशियरी में बड़े सुधार की दरकार का संकेत जरूर मिलता है. इस संकेत या इस दरकार को समझने के लिए पहले मानहानि से जुड़े कानून का पूरा मामला समझना होगा.


आईपीसी की धारा 499 और 500 मानहानि से जुड़े


आपराधिक मानहानि का मामला आईपीसी की धारा 499 और 500 के तहत आता है. आईपीसी के सेक्शन 499 के तहत मानहानि के मामले में दोषी माना जाता है. ऐसे मामलों में दोषी पाए जाने पर आईपीसी के सेक्शन 500 के तहत सज़ा सुनाई जाती है. इसमें कारावास की सज़ा के साथ ही जुर्माने का भी प्रावधान है. या तो सिर्फ कारावास हो या सिर्फ जुर्माना लगाया जा सकता है..या फिर दोनों तरह की सज़ा हो सकती है. अब गौर करने वाली बात है कि इस सेक्शन 500 के तहत मानहानि के मामले में अगर कोई दोषी पाया जाता है तो उसे अधिकतम दो साल की ही सज़ा हो सकती है, उससे कम भी हो सकती है, लेकिन उससे ज्यादा नहीं हो सकती है.


मानहानि के मामले में अधिकतम सज़ा है दो साल


अधिकतम दो साल सज़ा वाले इस पहलू को समझने की जरूरत है. सज़ा अधिकतम मिलेगी या उससे कम ..ये सत्र न्यायालय यानी निचली अदालत के जज पर निर्भर करता है. अब राहुल गांधी के मामले में सूरत की अदालत के जज ने अधिकतम सज़ा सुना दी. इससे ही सारा मसला पेचीदा हो गया.


नेताओं को कभी नहीं मिली अधिकतम सज़ा


अब तक देश में आपराधिक मानहानि के मामले में अधिकतम दो साल की सज़ा सुनाने के मामले कम ही सामने आते हैं या आते ही नहीं हैं. उसमें भी नेताओं के बयानों से जुड़े आपराधिक मानहानि के मामले में तो अब तक किसी को भी अधिकतम दो साल की सज़ा नहीं हुई है. उसके बावजूद सूरत की अदालत ने वायनाड से सांसद राहुल गांधी को अधिकतम वाली सज़ा दे दी. गौर करने वाली बात यही है.


अधिकतम सज़ा से अयोग्यता के प्रावधान लागू


मानहानि मामले में अधिकतम सज़ा पाते ही राहुल गांधी जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 के दायरे में आ गए. इस एक्ट की धारा 8 (3)  में प्रावधान है कि कोई भी जनप्रतिनिधि किसी अपराध में कोर्ट से कन्विक्टेड हो जाता है और कोर्ट उस मामले में दोषी को कम से कम दो साल की सज़ा दे देती है तो वो शख्स संबंधित सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य हो जाता है. इतना ही नहीं इसी धारा में ये प्रावधान है कि सज़ा पूरी होने के 6 साल बाद तक वो सदस्य बनने के लिए अयोग्य ही रहेगा. ये बात को समझने की जरूरत है कि अगर सज़ा दो साल से एक भी दिन कम होगा तो फिर अयोग्यता का प्रश्न नहीं उठेगा.


पहले अपील निपटारे तक सदस्यता पर आंच नहीं


हालांकि पहले जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में इस बात की भी व्यवस्था थी कि किसी भी अपराध में दोषी पाए जाने और दो या दो साल से ज्यादा की सज़ा मिलने पर अगर वो सांसद या विधायक इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देता है तो ऊपरी अदालतों से निपटारे तक उसकी सदस्यता नहीं जाएगी. इसका प्रावधान जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 8(4)  था.


2013 में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला


लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में एक ऐतिहासिक फैसला दिया. 'लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया' के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 8(4) को निरस्त कर दिया.


इस धारा के प्रावधान की वजह से ही कोई भी संसद सदस्य या विधानमंडल के सदस्य दो साल या उससे ज्यादा की सजा पाने के बावजूद तब तक अयोग्य घोषित नहीं हो पाते थे, जब तक अपीलीय अदालत से उस अपील या आवेदन का निपटारा नहीं हो जाता था और इसके निपटारे में अपीलीय अदालत से काफी वक्त लग जाता था.  ज्यादातर मामलों में तब तक उस सदस्य का कार्यकाल पूरा हो जाया करता था.


लेकिन जुलाई 2013 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद ये तय हो गया कि जैसे ही कोई सांसद या विधायक को दो साल या दो साल से ज्यादा की सज़ा मिलेगी, उसकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से चली जाएगी.


कन्विक्शन पर रोक से सदस्यता बच सकती है


हालांकि कानूनी प्रक्रिया के तहत  सांसद या विधायकों के लिए सदस्यता न जाए, इसके लिए अपीलीय अदालत से एक मौका रहता है. जब तक अपीलीय अदालत से उस शख्स के अपील से जुड़े मामले का पूरी तरह से निपटारा नहीं हो जाता, उस अवधि के लिए अगर अपीलीय अदालत..(चाहे हाईकोर्ट हो या फिर सुप्रीम कोर्ट) से कन्विक्शन पर रोक लग जाए, तो सदस्यता बनी रहती है या फिर से बहाल हो जाती है.


अपीलीय अदालत से कन्विक्शन स्थगित हो जाती है तो जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2, और 3 के तहत अयोग्य ठहराने का प्रावधान लागू नहीं हो सकता है. इस बात को बार-बार सुप्रीम कोर्ट पहले कह चुकी है.  मामले के निपटारे तक सुप्रीम कोर्ट से कन्विक्शन पर रोक लगने के बाद राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता इसी आधार पर बहाल हो जाएगी.


आपराधिक मानहानि से जुड़े इन पहलुओं के विश्लेषण से  कई मुद्दे खड़े होते हैं. 4 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है, उससे समझा जा सकता है कि राहुल गांधी को सज़ा सुनाते वक्त सूरत की अदालत के रवैये ज्यादा ही कठोर था. 


गैर संज्ञेय, जमानती और समझौता योग्य मामला


मानहानि का मामला गैर संज्ञेय, जमानती और समझौता योग्य होता है. अतीत में सुप्रीम कोर्ट के कई आदेशों में इस बात का बार-बार जिक्र भी है. गैर संज्ञेय का मतलब ही है ऐसे अपराध जो गंभीर प्रकृति के न हों. ये जमानती  के साथ और समझौता योग्य भी है. मानहानि से जुड़े ज्यादातर मामलों में समझौता से निपटारा होते हुए हमने देखा है.


निचली अदालत में कई पहलुओं पर विचार नहीं


राहुल गांधी के कन्विक्शन पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो भी बातें कही है, उससे स्पष्ट है कि सर्वोच्च अदालत मान रही है कि न तो सूरत की अदालत के जज और न ही हाईकोर्ट के जज ने बहुत सारी बातों पर गौर नहीं किया है.


राहुल गांधी सांसद हैं, एक निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, दो साल की अधिकतम सज़ा देने से उनके सार्वजनिक जीवन में बने रहने का अधिकार प्रभावित होगा, उस निर्वाचन क्षेत्र की जनता को भी कुछ महीनों के लिए बगैर प्रतिनिधि के रहना पड़ सकता है....मानहानि जैसे गैर संज्ञेय, जमानती और समझौता योग्य मामला होने के बावजूद निचली अदालत और बाद में हाईकोर्ट में इन बातों पर गौर नहीं किया गया.  सुप्रीम कोर्ट की आज की टिप्पणियों से इस तरह के निष्कर्ष निकलते हैं.


राजनीतिक बयानबाजी का स्तर गिरते जा रहा है


राजनीतिक बयानबाजी और भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच का संबंध किसी से छिपा नहीं है. ये पहले से ही होता आ रहा है. अब तो राजनीतिक बयानबाजी का स्तर काफी ही नीचे गिर गया है, ये हम चुनावी रैलियों में देखते आ रहे हैं. ये सिर्फ एक नेता या एक पार्टी तक सीमित नहीं है. इस तरह की प्रवृत्ति छोटे-मोटे नेता और कार्यकर्ताओं तक भी अब सीमित नहीं रह गया है, बल्कि इसकी ज़द में हर पार्टियों के शीर्ष नेता भी आ चुके हैं, ये भी देश की जनता देखते रहती है.


क्या अधिकतम सज़ा देने से बचा जा सकता था?


आपराधिक मानहानि से जुड़े मामलों को लेकर, उसमें भी ख़ासकर राजनीतिक बयानबाजी से जुड़े मानहानि के मामलों की बात करें तो अतीत में निचली अदालतों से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में कई ऐसे उदाहरण पड़े हैं, जिनके आधार कहा जा सकता है कि ये मामले उतने संगीन कैटेगरी में नहीं हैं, जैसा रिजल्ट राहुल गांधी के मामले में दिख रहा था. आईपीसी में भी जो प्रावधान हैं, उसको देखते हुए भी इस पहलू को समझा जा सकता है. ख़ासकर कारावास वाले पहलू को समझा जा सकता है.


मानहानि केस में पहले कभी नहीं गई थी सदस्यता


राहुल गांधी से पहले कई सारे नेताओं की सदस्यता जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत खत्म हुई है. लेकिन राहुल गांधी का मामला अलग था क्योंकि ये ऐसा पहला मामला था, जिसमें 2013 में लिली थॉमस केस में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद मानहानि से जुड़े अपराध में सज़ा होने पर किसी संसद सदस्य की सदस्यता चली गई है. इससे पहले किसी ने नहीं सोचा था कि मानहानि केस में भी सज़ा पाकर किसी की सदस्यता जा सकती है. इस लिहाज से राहुल गांधी का प्रकरण अलग भी है और ऐतिहासिक भी.


न्यायपालिका के शीर्ष पर सुप्रीम कोर्ट


निचली अदालतों  को मानहानि से जुड़े केस में अधिकतम सज़ा देने का पूरा अधिकार है. उसके अधिकार क्षेत्र पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता. हालांकि अगर सिर्फ एक दिन कम की भी सज़ा निचली अदालत से मिलती तो राहुल की सदस्यता नहीं जाती. साथ ही मानहानि केस के जरिए सांसद या विधायक की सदस्यता भी जा सकती है, उसको लेकर इतने सारे सवाल खड़े नहीं होते.


निचली अदालतों के लिए बाध्यकारी


भारत में न्यायपालिका की व्यवस्था त्रिस्तरीय है. इसमें सबसे ऊपर सुप्रीम कोर्ट है, उसके बाद हाईकोर्ट है और फिर निचली अदालतों यानी जिलों में पड़ने वाली अदालतों का नंबर आता है. सुप्रीम कोर्ट  संविधान की व्याख्या के लिए सर्वोच्च अदालत है. इसके साथ ही देश में मौजूद जितने भी तरह के आपराधिक कानून हैं या फिर सिविल कानून हैं, उनकी व्याख्या को लेकर भी जब कोई अस्पष्टता की स्थिति उत्पन्न होती है तो सुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेशों के जरिए उनकी व्याख्या की जाती है. सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों की व्याख्या हर तरह से हाईकोर्ट और निचली अदालतों  के लिए उदाहरण भी होता है और बाध्यकारी भी होता है.


निचली अदालतों को भी करना चाहिए गौर


ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मानहानि से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट का जो रवैया पूर्व में रहा है, किसी भी मामले में दोषसिद्धि के साथ ही सज़ा सुनाते वक्त उन पर निचली अदालतों को गौर नहीं करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से तो कम से कम ये निष्कर्ष निकलता ही है. सुप्रीम कोर्ट खुद ही कह रही है कि निचली अदालत के जज ने अधिकतम सजा देने के लिए कोई कारण नहीं बताया है. निचली अदालत के जज से कम से कम यह अपेक्षा थी कि वे अधिकतम सजा देने के लिए कुछ कारण बताते.


अपीलीय अदालत और हाईकोर्ट ने भी नहीं किया गौर


ये सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं कि सूरत की ही अपीलीय अदालत और गुजरात हाईकोर्ट तक ने उन पहलुओं पर विचार नहीं किया, जिसका जिक्र सुप्रीम कोर्ट ने भी किया है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अपीलीय अदालत और हाईकोर्ट ने कन्विक्शन पर रोक को खारिज करने के लिए काफी पन्ने भरे हैं, लेकिन उनके आदेश में इन पहलुओं पर विचार नहीं किया गया है.  इससे बड़ा और संकेत क्या हो सकता है कि ज्यूडिशियरी में बड़े सुधार की दरकार है ख़ास कर निचली अदालतों में. देश की अदालतों में लंबित करोड़ों मामलों के लिए जिम्मेदार कारणों में से एक ये भी है.


मानहानि से जुड़े सेक्शन के दुरुपयोग से जुड़ा मुद्दा


राहुल गांधी के मानहानि से जुड़े मामले पर भविष्य में सुप्रीम कोर्ट से जो भी आखिरी फैसला आएगा, उससे एक बात और तय है कि आईपीसी की धारा 499 और धारा 500 को खत्म करने की मांग से जुड़ी बहस फिर से तेज़ हो जाएगी. राहुल गांधी के फैसले के आलोक में ये और प्रासंगिक मसला बन जाता है. वर्तमान राजनीतिक माहौल को देखते हुए कहा जा सकता है कि भविष्य में किसी की भी सदस्यता पर खतरे की घंटी लटकाने के लिए मानहानि का मामला एक तरह से सबसे आसान तरीका हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इस पहलू पर भी अगर गौर किया जाए तो शायद आईपीसी के सेक्शन 499 और सेक्शन 500 के राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना को पूरी तरह से खत्म किया जा सकता है.


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