QUAD इंडो-पैसिफिक रीजन में संतुलन के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण समूह है, जिसमें भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं. पहले इस समूह की बैठक ऑस्ट्रेलिया में होनी थी, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के अचानक ऑस्ट्रेलिया दौरा रद्द करने की वजह से सदस्य देशों के सरकारी प्रमुखों ने जापान के हिरोशिमा में ही G7 शिखर सम्मेलन से इतर इसकी बैठक कर ली.


20 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और उनके ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष एंथनी अल्बनीज ने हिरोशिमा में, चार देशों के समूह 'क्वाड'के वार्षिक शिखर सम्मेलन में यूक्रेन की स्थिति के साथ-साथ अन्य वैश्विक चुनौतियों पर चर्चा की. सदस्य देशों की ओर जारी साझा बयान में यूक्रेन संकट, पूर्वी और दक्षिण चीन सागर की स्थिति के साथ ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर चारों देशों के दृष्टिकोण को शामिल किया गया. प्रधानमंत्री मोदी ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र को वैश्विक व्यापार, नवाचार और विकास का इंजन बताया और कहा कि इसकी सफलता और सुरक्षा पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है.


लगातार बढ़ रहा है क्वाड का दायरा और कद


क्वाड की बैठक अगर सिडनी में  पहले से तय कार्यक्रम के मुताबिक होती, तो पूरी तवज्जो क्वाड पर ही जाती. अभी G7 के साइडलाइन्स पर अगर क्वाड की बैठक हुई है, तो यह एक अच्छी बात है. बाकी अनुमान लगते रहेंगे कि थोड़ा सा फोकस बंटा होगा. चूंकि साथ ही जी7 की बैठक भी चल रही थी, बावजूद इसके क्वाड की अहमियत बढ़ती जा रही है. इसका एक प्रमाण तो यह है कि सिडनी वाली मीटिंग अमेरिकी राष्ट्रपति की वजह से स्थगित हुई और यह हमें याद रखना चाहिए कि दुनिया भर में घरेलू राजनीति हर देश के नेता के लिए महत्व रखती है, न कि विदेश नीति.


इसी को कहते हैं...All politics is local. इसी वजह से बाइडेन को भी जाना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद वे हिरोशिमा में क्वाड की मीटिंग में उपलब्ध रहे. यह इसलिए भी संभव हुआ कि G7 का सदस्य न होने के बावजूद भारत को वहां बुलाया गया और बुलाया जाता रहा है. इस बार तो भारत जी 20 के अध्यक्ष के नाते भी शामिल था. अब क्वाड के चारों सदस्य चूंकि वहां मौजूद थे, इसलिए भी समय निकाल कर मीटिंग करना संभव हो पाया.


जो संयुक्त बयान आया है, वह काफी हौसला बढ़ाता है. यह नहीं है कि क्वाड का विकास रुक गया है या आगे नहीं बढ़ रहा है. यह लगातार आगे बढ़ रहा है, फैल रहा है और इस पूरे सम्मेलन की यह खासतौर पर उपलब्धि है.


क्वाड से चीन की चिंता बढ़ी है


चीन को सबसे अधिक चिंता इस बात को लेकर है कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और सैन्य शक्तियां, अमेरिका, जापान, भारत वगैरह उसके आक्रामक रवैए से सुपरिचित हो गए हैं, उसकी विस्तारवादी नीति नंगी होकर सामने आ चुकी है और ये देश मिलकर चीन का तोड़ खोज रहे हैं, अकेले नहीं बल्कि मिलकर. चीन की चिंता यह नहीं है कि भारत का महत्व बढ़ रहा है. चीन का क्वाड को 'एशियन नाटो' कहना तो बिल्कुल बकवास बात है. वह खासा चीनी चरित्र है कि दूसरों से भी झूठ बोलो, खुद से भी बोलो. हां, यह जरूर है कि एक समन्वय बन रहा है, चार बड़ी ताकतों का और यह अच्छी बात है.


अब इस खित्ते में जापान है, जो दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था है, भारत है जो पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, अमेरिका तो खैर है ही. इनके साथ छोटे देश मिलकर चीन की आक्रामकता के खिलाफ हो रहे हैं और यही चीन की चिंता है कि जो उसके वर्चस्व के लिए उपलब्ध जगह थी, अब वहां भी स्पेस खाली नहीं है.


चीन को खौफ लगे, यह तो अच्छा है


अगर चीन क्वाड की वजह से अपने व्यवहार में कुछ बदलाव लाता है, तो उस एडवर्टिजमेंट की तरह हमें कहना चाहिए कि, खौफ अच्छा है. एक और चीज हमें यह पहचाननी चाहिए कि चीन की अनदेखी नहीं कर सकते. चीन की आर्थिक शक्ति में सेंध लगाने की जरूरत है. इसलिए जरूरी है कि वह दुनिया के हित में नहीं है. कुछ देश होते हैं जिनके शक्तिशाली होने से पूरी दुनिया का भला होता है, लेकिन चीन ने कई वर्षों से यह दिखा दिया है कि उसके सैन्य या आर्थिक तौर पर शक्तिशाली होने से दूसरे खित्ते या दुनिया के दूसरे देशों के लिए खतरे की घंटी बजने लगती है.


चीनियों का जो डिक्टेटरशिप है, जो शासन का तरीका है, वह खौफजदा है. वहां रूल ऑफ लॉ नहीं है, मानवाधिकार का कांसेप्ट नहीं है, जो पूरी दुनिया में है. इसलिए, दुनिया खौफजदा तो है ही और इसका तोड़ भी निकालेगी. क्वाड इसका एक अंश है. यूरोप भी इसमें रुचि ले हो रहा है, बाकी देश भी जुट रहे हैं. चीन इसीलिए चिंतित भी है.


चीन की प्रतिक्रिया महत्व को बताने के लिए काफी


क्वाड कितना प्रभावी है, इसका पता हमें चीन की प्रतिक्रिया से चलता है. जितनी चीखें चीन मारेगा, उसका मतलब है कि क्वाड उतना ही प्रभावी है. अगर चीन चुप रहे और कहे कि जो भी इनको करना है, ये करें तो हमें सोचना चाहिए कि क्वाड सही राह पर है. भारत की इसमें बड़ी भूमिका है. भारत 2024 में क्वाड शिखर सम्मेलन की मेजबानी भी करेगा. भारत की अर्थव्यवस्था प्रगति पर है, सैन्य ताकत के तौर पर हम हैं ही. हमारी समस्याएं हैं और हमें यह कभी नहीं समझना चाहिए कि हम दुनिया की महाशक्ति बन रहे हैं. लेकिन ये सच्चाई है कि कूटनीति, अर्थव्यवस्था से लेकर सामरिक मसलों  पर भारत ने अपना लोहा तो मनवाया है.


वैश्विक मसलों पर भारत की अहमियत बढ़ी


चीन के संदर्भ में ही नहीं, रूस के साथ भी जो पश्चिमी दुनिया की समस्या है, उसमें भी भारत की भूमिका बढ़ी है. पश्चिम भी यही चाहता ही है. इसमें भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था का योगदान भी है. जिस तरह भारत ने रूस से तेल खरीदा है, वह केवल भारत के नहीं, दुनिया के फायदे में है. अगर भारत उसे छोड़ देता तो तेल का इतना दाम बढ़ जाता कि पूरी दुनिया की इकोनॉमी लुढ़क जाती. दूसरे सप्लाई चेन को भी भारत ने बनाए रखा है. अब पश्चिमी दुनिया के कुछ लोग वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स में कुछ भी लिखें और भारत की आलोचना करें, तो इसको इस तरीके से देखना चाहिए कि भारत अब इनके आदेशों पर नहीं चलता, अपने हितों को प्राथमिकता देता है.


यह बदलाव का युग तो है. वैश्विक राजनीति में चीजें जब बदलती हैं तो बेहद तेजी से बदलती हैं. आप अगर 1914 के आसपास का समय देखें तो चीजें ऐसे ही बदल रही थीं. वैश्विक राजनीति में बदलाव होता है तो बहुत तेज होता है. जहां तक जी 20 में चीन और तुर्की के न आने की बात है, तो ठीक ही है. चीन तो अरुणाचल प्रदेश में भी नहीं आया था, तो क्या बिगड़ गया. कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है और इसकी सनद हमें किसी भी दूसरे देश से लेने की जरूरत नहीं है. रही तुर्की की बात, तो उसकी अर्थव्यवस्था चौपट है, वह खुद बर्बादी के कगार पर है, लेकिन खलीफा बना हुआ है. भारत सरकार को तो हमेशा के लिए कश्मीर में चीनी और तुर्की नागरिकों के प्रवेश पर भी पाबंदी लगा देनी चाहिए, अगर वह जैसे को तैसा जवाब देना चाहे तो.


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)