"सपने वो नहीं होते जो सोते वक्त आते हैं, सपने वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते."


"मैं हैंडसम नहीं हूँ लेकिन मैं अपना हैंड किसी को दे सकता हूँ जिसको किसी मदद की ज़रूरत है.सुंदरता हृदय में होती है, चेहरे में नहीं."


इन दोनों वाक्यों को जरा गौर से पढ़ने और समझने की कोशिश इसलिए भी करना चाहिए कि आज देश में जिस पद के लिए चुनाव हो रहा है,ये वाक्य उसी शख्स के हैं जो पांच साल तक उस पद पर रहे और देश के आम नागरिक के राष्ट्रपति बनकर दुनिया को दिखा भी गये कि हर पद से बहुत बड़ी होती है--"एक इंसान के पेट की भूख और उसका नंगे शरीर रहना." उन्होंने ये भी कहा था "जिस दिन हम इसे मिटा देंगें,वो दिन सचमुच मेरे देश के लिए स्वर्णकाल की शुरुआत होगा." देश के 11वें राष्ट्रपति रहे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का वो सपना आखिर कब और कौन-सी सरकार पूरा करेगी, ये तो कोई भी नहीं जानता.


बात करते हैं, भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद यानी देश के 15 वें  राष्ट्रपति चुनने के लिए आज संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओ में हो रही वोटिंग की.ज़ाहिर है कि संख्या बल और कुछ क्षेत्रीय विपक्षी दलों के समर्थन के बाद एनडीए की उम्मीदवार द्रोपदी मुर्मू की जीत सुनिश्चित मानी जा रही है.इस जीत के साथ वे इस संवैधानिक चुनाव के इतिहास में एक साथ कई नए कीर्तिमान भी स्थापित करने वाली हैं.लेकिन लोकतंत्र के लिए ये कितना शुभ संकेत होता कि देश की पहली आदिवासी महिला को इस सर्वोच्च कुर्सी पर बैठाने के लिए सोनिया गांधी और ममता बनर्जी की अगुवाई वाला विपक्ष अपना समर्थन देते हुए उन्हें निर्विरोध चुनकर राजनीति की एक नई इबारत लिखता.ऐसा फैसला लेने से सोनिया और ममता का राजनीतिक वजूद कम नहीं होता,बल्कि इसे उनका बड़प्पन ही समझा जाता.लेकिन कड़वा सच ये भी है कि आधी दुनिया कहलाने वाली बिरादरी में इस नफ़रत को सबसे ज्यादा सियासत में ही देखा जाता है,बाकी सब प्रोफेशन उसके बाद ही आते हैं.


इस चुनाव के बहाने इतिहास के उन पन्नों पर भी जरा गौर करना चाहिए,जिसे अक्सर हम भुला दिया करते हैं.देश में अब तक सिर्फ नीलम संजीव रेड्डी ही अकेले राष्ट्रपति हुए जो निर्विरोध चुने गए थे.और देश के पहले  राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ही अकेले ऐसे थे ,जो दो बार इस पद के लिए चुने गए.लेकिन बेहद अफ़सोस जनक बात ये है कि देश के सबसे बड़े परमाणु वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसी शख्सियत को भी इस पद पर बैठने की लिये निर्विरोध निर्वाचित होने का सौभाग्य हमारे विपक्षी दलों ने नहीं दिया था.बेशक लोकतंत्र में विपक्ष को हर चुनाव लड़ने का हक़ है लेकिन जब मसला देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद का हो,तो वहां दलगत राजनीति से ऊपर उठकर ऐसी मिसाल पेश की जानी चाहिए,जिसे देखकर दुनिया के बाकी लोकत्रांतिक देश भी इसे मानने व अपनाने पर मजबूर हो जाएं.


साल 2002 में देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और उससे पहले डॉ. कलाम की अगुवाई में राजस्थान के पोखरण में अटल सरकार दो परमाणु परीक्षण कर चुकी थी.वे भी ऐसे,जिसे तब अमेरिका की कोई एजेंसी भी नहीं पकड़ पाई थी.उस जमाने की बीजेपी भी अलग थी और अटलजी की सरकार में डर का ऐसा कोई माहौल भी नहीं हुआ करता था.तब अटलजी के सरकारी आवास पर देर शाम होने वाली 'बैठकी' में तीन लोग तो अवश्य ही मौजूद हुआ करते थे-उस जमाने की बीजेपी के '"चाणक्य"कहलाने वाले प्रमोद महाजन के अलावा तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र ही हुआ करते थे.यहां तक कि अगले दिन संसद में विपक्ष से कैसे निपटना है,ये रणनीति भी वहां ही तय हो जाती थी.


उस जमाने में अटल-आडवाणी से लेकर महाजन के सबसे विश्वस्त सहयोगी रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे विजय गोयल बताते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव नजदीक आते ही सबसे पहले प्रमोद महाजन ने ही कलाम साहब का नाम सुझाया था कि क्यों न हम उन्हें एनडीए से राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाये. अटलजी को न सिर्फ ये सुझाव पसंद आया, बल्कि उन्होंने महाजन की ही ड्यूटी लगा दी कि वे इसके लिए उन्हें राजी करें. उस वक्त कलाम साहब दिल्ली के एशियाड विलेज के छोटे-से फ़्लैट में रहा करते थे. बताते हैं कि जब महाजन ने उन्हें सरकार का ये प्रस्ताव दिया,तो पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ.फिर अटलजी से फोन पर  बात होने के बाद उन्होंने हां तो कह दी लेकिन वे कभी नहीं चाहते थे कि इस सर्वोच्च पद के लिए उन्हें चुनाव-मैदान में उतरना पड़े. इसलिए कि पूरी जिंदगी उनका राजनीति से कभी वास्ता ही नहीं रहा था.


तब भी एनडीए ने विपक्ष को मनाने की भरपूर कोशिश की थी कि वो कलाम साहब को अपना समर्थन देकर उन्हें निर्विरोध निर्वाचित करके एक इतिहास रचें. लेकिन नहीं, विपक्ष आज की तरह ही तब भी नहीं माना औऱ अपनी जिद पर अड़े रहते हुए उनके ख़िलाफ़ एक ऐसा नाम सामने ले आया,जो राजनीतिक दलों के अलावा खुद कलाम साहब के लिए भी चौंकाने वाला था.


तब संयुक्त विपक्ष ने कैप्टन लक्ष्मी सहगल को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया.वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज की सेनानी रह चुकी थीं और कलाम साहब के साथ भी उनके ऐसे रिश्ते थें कि वे उनका बेहद सम्मान करते थे. कहते हैं कि दोनों के घनिष्ठ पारिवारिक संबंध थे लेकिन बीजेपी से वैचारिक मतभेद के चलते कैप्टन सहगल ने उनके खिलाफ चुनाव तो लड़ा लेकिन कभी भी दोनों ने एक दूसरे के खिलाफ कभी एक भी शब्द नहीं बोला.विश्वास की उस मजबूत  नींव पर खड़ी हुई मित्रता का ही ये नतीजा था कि आखिरी वक्त तक भी दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला खत्म नहीं हुआ.


साल 2015 में कलाम साहब जब इस दुनिया को अलविदा कह गये,तब कैप्टन सहगल की सांसद रह चुकी बेटी सुभाषिनी अली ने कहा था- "महिला बिल पर डॉ. कलाम हंसते हुए बोले थे कि आपके बिल का सबसे बड़ा विरोधी पुरुष ही है. उन्होंने निराशा जताई थी कि वह इस बिल पर कुछ नहीं कर सके."


तब उन्होंने मीडिया को ये भी बताया था कि डॉ. कलाम से उनके पारिवारिक संबध थे. गरीब परिवार के होने के नाते डॉ. कलाम की प्रतिभा को देख उनके मौसा व देश के जाने माने वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई ने उनकी आगे की पढ़ाई में भरपूर मदद की. यह उनका सरल स्वभाव ही था कि राष्ट्रपति होते हुए उन्होंने राष्ट्रपति भवन के दरवाजे जनता के लिए खोल दिये. उनका व्यक्तित्व शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता.सुभाषिनी अली के मुताबिक डॉ. कलाम उनके मौसा के बेटे की तरह थे. उन्हीं डॉ. कलाम के खिलाफ उनकी मां कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल चुनाव लड़ीं और उन्होंने एक बार भी इस विषय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. मां को भी पता था कि वह चुनाव जीतेंगे लेकिन फिर भी अपनी बात की खातिर चुनाव लड़ीं.इसके बाद भी उन्होंने पारिवारिक रिश्तों को निभाया.


बेशक द्रौपदी मुर्मू 25 जुलाई को नए राष्ट्रपति की शपथ ले ही लेंगीं लेकिन तमाम रिकॉर्ड बनाने के बावजूद क्या वे कलाम साहब की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे एक आम व गरीब इंसान के लिए खुले रखने की वैसी ही हिम्मत जुटा पायेंगी?



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