कुछ दिन पहले तनुश्री दत्ता के नाना पाटेकर पर लगाए गए आरोपों से ‘मीटू’ का जो अभियान एक चिंगारी के रूप में शुरू हुआ था, वह अब धीरे धीरे विकराल रूप लेते हुए एक ऐसी ज्वाला में बदल गया है, जो ज्वाला जल्द शांत होते दिखाई नहीं दे रही. यदि यही हाल रहा तो इस बात की भी आशंका है कि कहीं यह ज्वाला ज्वालामुखी ही न बन जाए.


सोशल मीडिया साइट्स पर यूँ आये दिन कई अभियान चलते हैं और कुछ कदम चलकर शांत हो जाते हैं. ‘मीटू’ की यह चिंगारी इतने दिनों बाद भी शांत होने की जगह जिस तरह बढ़ रही है. बढ़ने के साथ ये प्रसिद्ध लोगों के मान सम्मान के साथ उनके पद और काम-काज की भी आहूति ले रही है. उससे इस अभियान ने एक नयी राह भी पकड़ ली है.. उससे खतरा है कि कोई बेगुनाह भी इसके दायरे में ना आ जाय.



भारतीय संविधान की मूल भावना है कि चाहे 99 गुनहगार बच जाएँ लेकिन किसी एक बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए. यही बात हमारे संविधान की सबसे बड़ी विशेषता भी है. इसलिए ‘मीटू’ या ऐसे किसी भी सोशल मीडिया पर किसी पर भी आरोप लगाते हुए संविधान की इस मूल भावना को बराबर ध्यान में रखना चाहिए. साथ ही जो आरोप लगा रहा है उसकी बात, उसके दुःख को भी हलके में न लेते हुए, गंभीरता से सुनना चाहिए. ऐसे ही जिस पर आरोप लगे हैं उसके पक्ष को भी गंभीरता से सुनना जरुरी है. लेकिन किसी को भी तुरंत दोषी या तुरंत निर्दोष मान तुरंत स्वयं निर्णय लेकर, स्वयं कुछ भी सजा सुनाने का हक़ किसी का नहीं बनता. क्योंकि यहाँ यह सवाल उठता है कि यदि कोई भी किसी को सजा देने या किसी को निर्दोष साबित करने का अधिकार रखता है तो फिर देश में संवैधानिक संस्थाओं की आवश्यकता ही क्या है? सुप्रसिद्द संगीतकार ए आर रहमान ने भी मीटू पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है, सोशल मीडिया पर पीड़ित महिलाओं को अपनी आवाज़ उठाने की एक शानदार आज़ादी मिली है, लेकिन हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि इंटरनेट न्याय व्यवस्था का मंच न बन जाए.


जब मीटू के रूप में  शुरू में इस तरह के आरोप सामने आये तो शुरू में लग रहा था कि हमारे देश के संविधान के अनुसार इन आरोपों पर संज्ञान लेते हुए कोई कानूनी कारवाई होगी या आरोप लगाने वाली महिलाएं, इन पुरुषों के खिलाफ एफ़आईआर दर्ज कराएंगी. तब कानूनी प्रक्रियाओं के बाद दोषियों को सजा मिल सकेगी. शुरू में हुआ भी ऐसा जब तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर के खिलाफ एफ़आईआर दर्ज करायी. उधर नाना पाटेकर के साथ अभिनेता आलोकनाथ ने भी आरोप लगाने वाली महिलाओं पर मानहानि का नोटिस भेजा. लेकिन बाद में इस तरह के मामलों ने तब चौंकाया जब इस तरह के आरोपों के चलते कुछ फिल्म वालों को उनके काम से हटाया जाने लगा.



इसकी शुरुआत अक्षय कुमार की पहल पर हुई फिल्म ‘हाउसफुल’-4’ के निर्देशक साजिद खान को हटाने से. इसके बाद इस फिल्म से नाना पाटेकर को भी अलग कर दिया गया. अक्षय कुमार के कहने पर निर्माता साजिद नाडियावाला ने इस फिल्म की आगे की शूटिंग भी रोक दी. जबकि इस फिल्म की लगभग आधी शूटिंग हो चुकी है. इसके बाद आमिर खान और उनकी पत्नी किरण राव जो फिल्म ‘मोगुल’ के को-प्रोड्यूसर थे, वे इस फिल्म से इसलिए अलग हो गए, क्योंकि इस फिल्म के निर्देशक सुभाष कपूर पर भी ‘मीटू’ के माध्यम से ऐसे आरोप लगे थे. आमिर का कहना था कि वह ऐसे किसी व्यक्ति के साथ काम नहीं कर सकते जिस पर यौन शोषण के आरोप लगे हों. इसके बाद फिल्म के निर्माता भूषण कुमार ने फिल्म के निर्देशक सुभाष कपूर को भी फिल्म से हटा दिया. यह फिल्म भूषण कुमार के पिता गुलशन कुमार के जीवन पर आधारित है. उधर इसी प्रकार के आरोपों के चलते विदेश राज्य मंत्री एम जे अकबर को भी अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा. और अब संगीतकार अनु मलिक को सोनी चैनल ने ‘इंडियन आइडल’ के जज के पद से हटा दिया है.


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यह बात तो बिलकुल ठीक है कि महिलाओं के मान सम्मान में कहीं भी कोई     आंच नहीं आनी चाहिए. उन्हें अपनी प्रतिभा, परिश्रम और लग्न के माध्यम से आगे बढ़ने के तमाम अवसर हर हाल में मिलने चाहिएं. यदि कोई भी महिलाओं को प्रताड़ित करता है या उन्हें किसी भी प्रकार का शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुंचाता है तो उसे उसकी सजा मिलनी चाहिए. लेकिन यहाँ यह भी देखना होगा कि इस सबकी आड़ में कोई महिला किसी पुरुष पर अपनी कुंठा निकालने के लिए ही किसी पुरुष का चरित्र हनन न करे. महिलाओं के अधिकारों की आड़ में पुरुषों के अधिकारों का भी हनन नहीं होना चाहिए. कोई भी ‘मीटू’ या किसी भी ऐसे मंच का गलत इस्तेमाल न करे. जो भी किसी पर आरोप लगा रहा है या जो उन आरोपों को नकार रहा है उनमें कौन कितना सच कितना झूठ बोल रहा है, यह किसी के मात्र आरोप लगा देने या आरोप खारिज करने से ही साबित नहीं हो जाता. इसके लिए समय, परिस्थितियों, व्यक्तियों सहित बहुत कुछ गहराई से देखना-समझना होगा. ज़ाहिर है इन सब बातों को हमारी न्यायिक व्यवस्था ही अच्छे से परख सकती है. जिसके लिए न्यायिक प्रणाली से गुजरना होगा.


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हालांकि यहाँ बहुत लोग कह सकते हैं कि हमारी न्यायिक प्रणाली बहुत लम्बी है. ये शक्तिशाली, प्रभावशाली या प्रसिद्द लोग हैं इनके खिलाफ सबूत जुटाना और इन्हें अपराधी साबित करना बहुत ही मुश्किल या नामुमकिन है. लेकिन यह भी सत्य है कि हमारे इसी संविधान के माध्यम से इससे भी गंभीर यौन शोषण के आरोपों में घिरे आसाराम और रामरहीम जैसे लोग भी अपराधी साबित होकर आज सलाखों के पीछे हैं. जब इन जैसे शक्तिशाली लोग जिनके पीछे सत्ता और पुलिस ही नहीं ऐसे लाखों अंध भक्त भी थे जो इन्हें अपराधी मानने की जगह अपना मसीहा, अपना भगवान मानते रहे हैं. यह हमारे इसी संविधान की शक्ति है जिसने आसाराम को करीब 6 साल से जेल में होने के बावजूद ज़मानत तक पर भी बाहर निकलने का मौका नहीं दिया है. जबकि इसके लिए ये दोनों ‘संत’ करोड़ों खर्च करने का सामर्थ्य रखते हैं.


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इसलिए यह मानना चाहिए कि जब ये और इन जैसे कई अरब पति और शक्तिशाली लोगों को इनके किये की सजा मिल सकती है तो इन फिल्मवालों-टीवी वालों या किसी और को क्यों नहीं ! लेकिन सिर्फ किसी पर आरोप जड़ने से उसे खुद से ही अपराधी मानना या उसे स्वयं ही सजा देना कहीं से भी न्याय संगत नहीं है.


हालांकि यह बात स्पष्ट शब्दों में बार बार कहना चाहेंगे कि यहाँ किसी भी आरोपित व्यक्ति का हम अंशमात्र भी समर्थन नहीं करते. व्यक्ति कोई भी हो यदि उसने कोई अपराध किया है तो उसे सजा अवश्य मिलनी चाहिए लेकिन संविधान के हिसाब से. किसी व्यक्ति के हिसाब से नहीं. आप आरोप साबित होने से पहले ही यदि किसी को अपने ढंग से, अपने मन से सजा देते हैं तो वह भी एक अपराध है. क्योंकि इस बात की इज़ाज़त हमारा संविधान कतई नहीं देता. यह ठीक वैसे हुआ जैसे भीड़ तंत्र स्वयं क़ानून हाथ में लेकर किसी पर भी आरोप लगा खुद ही उसे सजा दे देता है. ऐसे में यदि वह आरोपित व्यक्ति निर्दोष निकला तब उस व्यक्ति को न्याय कैसे मिलेगा? फिर यह भी कि यदि आरोपों का यह सिलिसिला ऐसे ही चलता रहा और ऐसे आरोपियों को मात्र एक ट्वीट या एक बयान से उन्हें तुरंत दोषी मान उनके काम या पदों से हटाया जाता रहा तो यह सिलिसिला कभी नहीं थमेगा और इस काली रात की सुबह कभी नहीं होगी.


 


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