चीन के एक शिष्टमंडल की तरफ से सिंगापुर के शांगरी-ला डायलॉग से इतर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान भारत की सैन्य क्षमता पर सवाल खड़ा करना इस मायने में ठीक नहीं है क्योंकि ये सब मानते हैं कि ये न तो 1962 का भारत है और न ही ये 1962 का चीन है. दोनों में काफी फर्क आया है. लेकिन जो फर्क आया है उसे भी पहचानने की जरूरत है.  पीएलए एकेडमी ऑफ मिलिट्री साइंसेज के सीनियर कर्नल झाओ जिया झाऊ ने कहा कि आने वाले कुछ दशकों के दौरान भारत सैन्य ताकत में चीन का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं होगा क्योंकि इसका औद्योगिक इन्फ्रास्ट्रक्चर कमजोर है. 


जिस तरह से 1962 में भारत की युद्ध को लेकर सरहदों के ऊपर कोई तैयारी नहीं थी. चीन सेना का जो आक्रमण था वो बिल्कुल ही एक लहर की तरह आयी और सबकुछ उठाकर उसने फेंक दिया था. मेरे ख्याल से अब वो तो हालात नहीं हैं. लेकिन, हमको ये भी पहचानना चाहिए कि चीन की क्षमता में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई है. इसमें पिछले एक दशक में तो काफी ज्यादा काम हुआ है और अगले एक दशक में और ज्यादा होने की संभावना है.


1962 के मुकाबले क्या आया अंतर


दूसरी चीज ये कि अब उस तरह का युद्ध नहीं होगा जो 1962 में हुआ था. 1962 में पूरा जोर इन्फैन्ट्री और पैदल फोर्स के ऊपर था. अब मॉडर्नाइजेशन हुई टैक्नोलॉजी में, चाहे वो ड्रोन हो या मिसाइल, उसका काफी ज्यादा इस्तेमाल होगा. बॉर्डर की तैयारियों में हमें चीन के बारे में तो काफी कुछ बताया जाता है लेकिन भारत काफी हद तक अपनी तैयारियों के बारे में चुप रहा. भारत की तैयारी तो पूरी है और जो सिस्टम चीन इस्तेमाल करेगा वो सारे भारत भी उसके खिलाफ मुंह तोड़ जवाब देने लिए जरूर इस्तेमाल करेगा. लेकिन फर्क यहां पर आ जाता है कि हम अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए भारत के अंदर कई ऐसी चीजें हैं जो सिर्फ हम आयात करते हैं. लेकिन, चीन वो सारी चीजें खुद बनाता है. 



चीन को मिलेगा मुंहतोड़ जवाब


अगर चीन-भारत का एक लंबा युद्ध होता है तो फिर उसमें भारत के लिए दुश्वारियां पैदा हो सकती हैं. अगर छोटी-मोटी झड़प होती है, हफ्ते-10 दिनों के लिए अगर किसी सरहदी इलाकों में अगर कोई हिंसक झड़प होती भी है तो या एक जंग टाइप का माहौल हो जाता है तो हम एक महीने तक भी संभाल सकते हैं. उसके बाद दिक्कतें शुरू हो जाएंगी क्योंकि हमारी जो प्रोडक्शन लाइन्स हैं वो इस तरह के साजो-सामान बनाने के लिए तैयारी नहीं कर रही.




उदाहरण के लिए आप यूक्रेन और रुस का ही देख लीजिए. अगर रूस के पास वो क्षमता नहीं होती तो क्या वो  डेढ़ साल तक युद्ध को झेल सकता था, जिस तरीके से उन्होंने झेला है. दूसरी तरफ, अगर यूक्रेन को दुनियाभर की मदद न मिल रही होती, खासतौर पर पश्चिम दुनिया की, सबसे लेटेस्ट हथियारों से अगर यूक्रेन को लैस नहीं किया जा रहा होता तो क्या यूक्रेन उतना भी टिक सकती थी, जितना वो रूस के सामने टिक पाई है. इसलिए ये जो गैप है उसे भी पहचानने की जरूरत है.


लेकिन, इसका मतलब ये भी नहीं है कि भारत बिल्कुल ही युद्ध में वैसा हो जाएगा जैसा 1962 में हुआ था. लेकिन, एक चीज पर हमें और गौर करने की जरूरत है कि भारत कभी भी चीन के ऊपर आक्रमण करने की मंशा नहीं रखता है. भारत कभी नहीं सोचता कि हम चीन के लिए खतरा बनकर आएंगे. भारत का मुख्य फोकस सरहदों पर अपने बॉर्डर की सुरक्षा का है. चीन की सरहदों में घुसना नहीं है.


अपनी रक्षा के लिए भारत की तैयारी पर्याप्त


अगर आपको किसी के ऊपर आक्रमण करना है तो उस लेवल की तैयारी करनी होगी. लेकिन, उस स्तर की तैयारियों की आपको तब जरूरत नहीं है जब आपको खुद का डिफेंस करना है. उस लिहाज से अगर देखा जाए तो भारत की क्षमताएं काफी हैं. लेकिन, शायद उस लेवल की नहीं है, जिस तरह की चीन की है. हकीकत ये है कि रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच काफी ज्यादा गैप है. हालांकि, पिछले 8-9 वर्षों के दौरान काफी काम हुआ है. इन चीजों को हमें पहचाननी होगी. 


चीन के कर्नल ने जो कुछ कहा है उसमें कुछ तो उसने ऊपर से फेंकी है जबकि कुछ वास्तविकताएं हैं. वास्तविकताओं के पीछे भी वास्तविकता होती है, जिन्हें पहचानना जरूरी है. जैसे मैंने कहा कि चीन अगर आक्रामक होता है और हम डिफेंसिव हैं तो ये हमारे लिए ज्यादा बेहतर है वनस्पति इसके कि बिना तैयारी के हम आक्रामक हो जाए. डिफेंडर का पहाड़ों पर ज्यादा बेहतर स्थिति होती है, बजाय उसके जो आक्रमण कर रहा है. लेकिन सुरक्षा की जो नई प्रणालियां आ रही हैं, उन्हें हमें देखना होगा, क्योंकि वो सब इस्तेमाल होंगी. उसका सेना ने क्या तोड़ निकाला है, ये वक्त आने पर ही पता चलेगा.



[उपरोक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]