भारत में लोकसभा चुनाव का इतिहास अपने आप में एक इनसाइक्लोपीडिया है. तमाम समीकरणों, रणनीतियों, देश-काल-परिस्थितियों का ऐसा संकलन है, जिसमें आप डूबते जाएंगे और कुछ नया पाते जाएंगे. स्वतंत्र भारत के विकास और इतिहास की जैसी सप्रसंग व्याख्या आपको चुनावी परिपाटी में देखने को मिलेगी, वैसी और कहीं सुलभ नहीं होगी.


देश की हर लोकसभा सीट का अपना महत्व और योगदान है. बस सीट-दर-सीट प्रसंग बदलते जाते हैं, व्याख्या बदलती जाती है और प्रतिमान बदलते जाते हैं. सीटों की सरपरस्ती में एक नाम आता है फूलपुर लोकसभा सीट का, जिसने लोकतंत्र का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया है. इस सीट के मतदाताओं ने हर तरह की विचारधारा को सम्मान दिया और संसद भेजा. कमाल की कहानी है फूलपुर लोकसभा क्षेत्र की.  


अव्वल तो ये कि फूलपुर सीट ने देश को पहला प्रधानमंत्री दिया. इस सीट पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हैट्रिक लगाई. पंडित नेहरू को इस सीट पर 1952, 1957 और 1962 लोकसभा चुनाव में लगातार 3 बार जीत मिली. आजादी के बाद नया भारत गढ़ने के लिए देश का सबसे बड़ा नेता देने का गौरव फूलपुर के मतदाताओं को प्राप्त हुआ. यानी, इस लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने सबसे पहले धर्म निरपेक्ष राजनीति की विचारधारा वाले प्रत्याशी को सर आंखों पर सजाया.


हालांकि, इसी धर्म निरपेक्षता के बीच 1952 के चुनाव में जनता ने देश के सुप्रसिद्ध संत रहे प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का भी इस सीट पर अच्छा साथ दिया. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी गोरक्षा आंदोलन को बुलंदी देने के लिए नेहरू के खिलाफ चुनावी मैदान में खड़े थे. चुनाव में उनकी हार जरूर हुई, लेकिन जो संदेश जाना था वह चला गया और 9 फीसदी मत के साथ गया. इस चुनाव में पंडित नेहरू को 2 लाख 33 हजार 571 मत मिले, जबकि प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को 56 हजार 718 वोट मिले थे. चुनाव जीत कर पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री पद पर स्थापित हो गए और प्रभुदत्त ब्रह्मचारी चुनाव हार कर भी गोरक्षा आंदोलन को धार देने में सफल रहे.


यहां पर एक चीज और स्पष्ट करनी जरूरी है. फूलपूर सीट 1957 के चुनाव में अस्तित्व में आई. 1952 में इस सीट को इलाहाबाद पूर्व और जौनपुर पश्चिम सीट के नाम से जाना जाता था.



1962 के चुनाव में मुकाबला जवाहर लाल नेहरू बनाम राम मनोहर लोहिया हुआ. लोहिया के समाजवादी चुनावी संग्राम की चर्चा पूरे देश में हुई. हालांकि, ये चुनाव भी पंडित नेहरू बडे़ अंतर से जीत गए, लेकिन राममनोहर लोहिया को मिले 54 हजार 360 वोट ने इशारा कर दिया था कि सोशलिस्ट विचार भी फूलपुर को पसंद आ रहा है.  इस चुनाव में पंडित नेहरू को 1 लाख 18 हजार 931 वोट मिले, जबकि 1952 में उन्हें इसी सीट पर 2 लाख 33 हजार 571 मत मिले थे.


पंडित नेहरू के आकस्मिक निधन के बाद 1964 में फूलपुर में उपचुनाव हुआ. कांग्रेस ने उप-चुनाव के मैदान में नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित को उतारा. फूलपुर की जनता ने नेहरू परिवार पर अपना भरोसा बनाए रखा और विजयलक्ष्मी पंडित संसद पहुंच गई और 1967 के आम चुनाव में भी उनकी जीत हुई. सियासी घटनाक्रम बदले और फूलपुर में एक नया इतिहास लिखा गया. हुआ यूं कि विजयलक्ष्मी के संयुक्त राष्ट्र में जाने के कारण 1969 में उपचुनाव की स्थिति आ गई.


1969 के फूलपुर उपचुनाव में तत्कालीन छात्र नेता जनेश्वर मिश्र ने कांग्रेस के केशव देव मालवीय को चुनाव में हरा दिया. फूलपुर सीट पर सोशलिस्ट सांसद बन गए और वही जनेश्वर मिश्र आगे चलकर छोटे लोहिया के नाम से जाने गए. हालांकि, 1971 में फिर से बाजी पलटी और मांडा के राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यहां से कांग्रेस की वापसी करवा दी. इमरजेंसी के बाद हालात बदले और इस सीट पर हेमवती नंदन बहुगुणा की पत्नी कमला बहुगुणा भारतीय लोकदल से सांसद बन गईं. 1980 के चुनाव में कमला बहुगुणा कांग्रेस के टिकट पर फूलपुर से चुनाव लड़ीं और हार गईं. इस चुनाव में फूलपुर के मतदाताओं ने जनता पार्टी सेक्युलर के बीडी सिंह को जिताकर संसद भेज दिया. 1984 इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की जो लहर चली, उसका फायदा कांग्रेस को मिला और कांग्रेस के रामपूजन पटेल चुनाव जीत गए. लेकिन यही रामपूजन पटेल 1989 और 1991 का चुनाव जनता दल के टिकट पर लड़ गए, जीत हासिल की और फूलपुर सीट पर पंडित नेहरू के हैट्रिक की बराबरी कर ली.


नब्बे का दशक आते-आते राजनीति की तासीर एकदम बदल चुकी थी और इसका असर मतदाताओं के मन पर भी था. अचानक इस सीट पर समाजवादी पार्टी की तूती बोलने लगी. सपा ने भी जमकर प्रयोग किए. समाजवादी नेताओं ने नेहरू के दौर से इस सीट पर चुनौती देना शुरु किया था. जनेश्वर मिश्र उस किले को ढहाने  में भी कामयाब रहे, लेकिन 2004 में इसकी परिणति अतीक अहमद जैसे माफिया को संसद भेजकर समाजवादी पार्टी ने एक नया उदाहरण पेश कर दिया. केवल सपा को ही क्या दोष दें, फूलपुर की जनता को भी अतीक अहमद का साथ देना पसंद आया.


2009 में फूलपुर की जनता ने फिर एक नया प्रयोग किया. माफिया अतीक के बाद यहां के वोटर्स ने बीएसपी के बाहुबली नेता कपिल मुनि करवरिया को जिताकर संसद भेज दिया.


2014 में लोकसभा चुनाव हुए तब एक नए दौर की शुरुआत हुई. केशव प्रसाद मौर्य बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीते. हालांकि 2017 में वो उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएम बने और सांसद पद से इस्तीफा दे दिया. 2017 के उप-चुनाव में समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर से जीत हासिल कर ली.  2019 फूलपुर लोकसभा सीट पर फिर से बाजी पलटी और बीजेपी के टिकट पर केसरी देवी पटेल चुनाव जीत गईं.


कुल मिलाकर जब हम फूलपुर लोकसभा सीट के इतिहास को देखते हैं तो ऐसा लगता है मानों पूरे देश की राजनीति की बात कर रहे हैं. इस लोकसभा के वोटर्स ने राजनीति के हर दांव पेंच को देखा भी और अपने हिसाब से परखा भी. फूलपुर के वोटर्स ने संसद में प्रधानमंत्री को भी भेजा. समाजवादी आंदोलन के पुरोधाओं को भी संसद भेजा. किसानों की राजनीति करने वाले लोकदल को भी मौका दिया. वक्त की बदलती धारा के बीच माफिया और बाहुबलियों को भी सांसद बना दिया.


फूलपुर सीट ने लोकतंत्र की हर इकाई को अपने उम्मीदों के खांचे में कसा और परखा। अब देखना होगा कि 2024 में इस सीट पर किसकी उम्मीदों का फूल महकता है.



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