बिहार सरकार जो जातिगत सर्वे करवा रही है, यह कोई बहुत क्रांतिकारी काम नहीं है. जिस तरह इसका विज्ञापन हुआ और इससे राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की गयी, वह गलत है. अब मान लें कि कहीं कोई धार्मिक आयोजन हो रहा है, तो होना चाहिए, लेकिन अगर उसको राजनीति का आधार बनाया जाए, जैसे भाजपा ने बनाया, तो वह गलत है और उसकी आलोचना होनी चाहिए. जाति को लेकर जो राजनीतिक पार्टियां सामाजिक न्याय की दावेदार हैं, जिन्होंने इस पर बोर्ड लगाया हुआ है, वो जब इसको जबरन मुद्दा बनाती हैं, तो संदेह होता है. 32 वर्षों से तो यहां सामाजिक न्याय की सरकार ही चल रही है. लालू आए, राबड़ी आए, नीतीश आए, मांझी आए...तो फिर आपने किया क्या है? 32 वर्षों में तो एक पूरी दुनिया बदल जाती है. आप केवल यही निष्कर्ष निकाल पाए कि जाति-गणना करनी है. 


जाति से नहीं चल सकता आज का समाज


समाज की एक पुरानी व्यवस्था है-जाति. इससे आज का समाज नहीं चल सकता है. हमें तो इसे खत्म करना है. आरक्षण का जो उपाय है, विशेष अवसर की जो बात है, जिसे लोहिया और अंबेडकर जैसे लोगों ने समर्थित किया है, वह भी इसलिए कि एक्ज्क्यूटिव में जो एक खास जाति के लोगों का प्रभाव है, वह न रहे और सभी की वहां एंट्री हो, वंचित भी वहां पहुंच सकें. जाति गणना तो नये सिरे से जाति का उन्माद खड़ा करेगी. हम अब बिहार का उदाहरण लें. नीतीश कुमार की ही बात करें तो वह 50 साल पहले, 100 साल पहले वह कुर्मी भी थे, अवधिया थे. फिर कई जातियों ने मिलकर खुद को कुर्मी कहना शुरू किया, उसमें अवधिया भी थे. अनेक जातियों ने मिलकर खुद को कुर्मी घोषित किया. यह स्वागत योग्य बात है. भारत में ऐसा कई जातियों के साथ है. कई जाति-समूहों ने मिलकर खुद को एक जाति में शामिल किया. जैसे कायस्थ को लीजिए, वहां अंबष्ठ है, कर्ण थे, श्रीवास्तव थे, तो उन्होंने खुद को कायस्थ बनाया. यह तो एकीकरण की प्रक्रिया है. यह ब्राह्मणों से लेकर हरेक जाति तक मैं है. 


आजादी के बाद कास्ट नहीं, क्लास बना आधार


आजादी के बाद ‘वर्ग’ के आधार पर जातियों को बनाना था. वह ‘अदर बैकवर्ड क्लास’ है, ‘कास्ट’ नहीं. तो, वर्ग के आधार पर पहचान करनी है, जाति के आधार पर नहीं. उसी तरह शेड्यूल्ड कास्ट भी एक वर्गीय संरचना है, शेड्यूल्ड ट्राइब भी. साथ ही, हमारी सिफारिश यह भी है कि ‘अदर बैकवर्ड क्लास’ में भी कुछ अति-पिछड़े और बेहद गरीब लोग हैं. उनको एक्सट्रीमली बैकवर्ड क्लास में शामिल किया जाए. यह कर्पूरी जी की योजना थी, जिसे नीतीश जी ने ही पूरा किया. इस तरह अगर तीन-चार वर्गों में जाति की गणना की जाए, तो वह बहुत अच्छी बात है, होनी चाहिए. अब जैसे, ओबीसी को लें. उसमें एक वर्ग बनता. उसमें लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, उपेंद्र कुशवाहा, मैं इत्यादि सारे लोग एक ही में रहते. नीतीश कुमार कहीं जाते हैं, तो उनको ओबीसी लीडर कहा जाता है. अब उनको कुर्मी लीडर बताया जाए, ये गलत है. लालू यादव भी ओबीसी लीडर हैं, अब उनको यादव लीडर बनाने की कोशिश की जा रही है.



हरेक फैसला आपको खुश नहीं करता 


हाईकोर्ट ने जो फैसला किया, उस पर मैं क्या टिप्पणी करूं? हालांकि, एक बात कहूंगा कि हाईकोर्ट के फैसले हमेशा खुश ही नहीं करते. जैसे, आरा नरसंहार के बाद भी हाईकोर्ट ने एक निर्णय दिया था और सारे लोगों को बाइज्जत बरी किया था. अब, हाईकोर्ट का फैसला था तो उसे मानने को मैं बाध्य था, लेकिन खुश रहूं, उस पर बाध्य नहीं हूं. तो, हाईकोर्ट ने जाति-गणना को लेकर जो फैसला दिया, उसको मैं मानने को बाध्य हूं. सरकार जो कर रही है, वो करेगी ही, लेकिन इससे जाति-मुक्त समाज बनाने का जो सपना है, वह थोड़ा बाधित होगा. यह गलत हो रहा है. जो लोग ऐसा कर रहे हैं, वो सोशल डायनैमिक्स को नहीं समझते. 



यहां बात जाति के पक्ष-विपक्ष की नहीं है, समाज के पक्ष-विपक्ष की है. जाति के आधार पर आरक्षण और कुछ योजनाओं का लाभ दे रहे हैं. इस बात के लिए साइनबोर्ड नहीं लगाना है. गणना तो इस बात की भी होती है कि हमारे समाज में कितने टीबी से पीड़ित हैं, कितने कुष्ठरोगी हैं, कितने अंधे हैं, सबकी गणना होनी चाहिए और होती रहती है. जाति की गणना हो, उससे दिक्कत नहीं है, उस पर हो रही राजनीति और मकसद से दिक्कत है. यह अगर इतनी जरूरी बात थी तो 90 के दशक में ही, जब नीतीश-लालू एक थे, तभी कर लेना था. आप 32 साल बाद यह बात कर रहे हैं, जब स्वास्थ्य और शिक्षा की बात हो, तब ये झुनझुना लेकर आ रहे हैं. भाजपा ने सिद्ध कर दिया कि डमरू बजाने और जय श्री राम करने से सत्ता मिलती है, तो क्या हम उसका समर्थन करेंगे? समाज के विकास के लिए कई बार तो कड़वी दवा भी देनी पड़ती है. उस पर काम होना चाहिए. 


बहुत देर आए, उस पर दुरुस्त भी नहीं आए


स्वास्थ्य का विनाश हो गया, शिक्षा में आप 32 वर्षों से कुछ नहीं कर पाए, गरीबी उतनी ही है, रोजगार के मोर्चे पर आप फेल हैं, और तब आप जाति-जाति रट रहे हैं. जाति का जो आंकड़ा 1931 में आया, कमोबेश वही है, सरकारी एजेंसियां समय-समय पर वह करती रहती हैं, तो उसको लेकर फिर साइनबोर्ड क्यों लगाना? जैसे, भाजपा कर रही है. वह मंदिर जिस उत्साह से बना रही है, उससे क्या होगा? इससे समाज आगे नहीं जा रहा है. उसी कड़ी में जाति-गणना भी है. यह समाज को केवल अंधेरे की तरफ धकेल रहा है. यह खुश होनेवाली बात नहीं है. जैसे, हमारे यहां अगर पांच अतिथि आए, तो अंदर बोल देता है चुपके से. उसके लिए लाउडस्पीकर नहीं लगता, यह असभ्य तरीका है. जाति-जनगणना भी चुपके से हो जाती. इसके लिए साईनबोर्ड मत लगाइए, इसलिए कि जाति के उन्माद को हम उभार रहे हैं. 


नीतीश को कोई फायदा नहीं होगा


इससे कोई फायदा नीतीश कुमार को नहीं होगा. जहां तक यह तर्क है कि बीजेपी धार्मिक भावनाओं को उभार रही है, तो हम भी जातिगत गणना करेंगे, तो दिक्कत वहीं है. फिर आपमें और उनमें फर्क क्या है? हमने नीतीश जी के साथ काम किया है. वह अच्छे और समझदार आदमी रहे हैं, फिर पता नहीं किसकी संगत में ऐसे हो गए हैं. सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा झंडाबरदार मैं रहा हूं, हम समाजवादी चाहते हैं कि समाज में समानता आए. कोई भी वर्चस्व चाहे वह हिंदू हो, अपर कास्ट हो, बैकवर्ड हो, वह हमारा लक्ष्य नहीं है. क्या आप पिछड़ी जातियों का वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं? यह तो गलत है. यह हमारा लक्ष्य नहीं हो सकता है, किसी की भी डिक्टेटरशिप हो, समाज के लिए वह ठीक नहीं है और उसी से हमारा विरोध है.




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