पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ़ लंबे समय तक पाकिस्तान की सियासत का एक बड़ा चेहरा रहे थे. बंटवारे के बाद से ही भारत और पाकिस्तान के रिश्ते हमेशा तल्ख रहे हैं. ये भी सच है कि जब-जब भारत ने पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया, पाकिस्तान ने हमेशा गद्दारी ही की. परवेज़ मुशर्ऱफ की नीति और कदम भी इस दूरी को बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निभाते रहे. चाहे वो कारगिल का युद्ध रहा हो या आगरा समिट की बातों से पीछे हटने की बात परवेज़ मुशर्रफ़ के फैसले हमेशा विवाद की वजह बने रहे.


भारत और पाकिस्तान के रिश्तों का सबसे बुरा दौर तत्कालीन राष्ट्रपति और सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के शासन काल के दौरान रहा. अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद संभालते ही दिल्ली-लाहौर बस सेवा शुरू करके पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने का संदेश दिया था. फरवरी 1999 में पीएम अटल बिहारी वाजपेयी दो दिवसीय दौरे पर पाकिस्तान गए थे. तब उन्होंने दिल्ली-लाहौर बस सेवा शुरू करते हुए बस में बैठकर लाहौर तक की यात्रा की और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात कर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. इस दौरान दोनों देशों के बीच लाहौर घोषणापत्र का भी एलान हुआ. लेकिन परवेज़ मुशर्रफ़ के नापाक मंसूबों ने इस पर पानी फेर दिया. पाकिस्तान ने दोस्ती के बदले 1999 का कारगिल युद्ध दिया.


मुशर्रफ़ की शह पर कारगिल में घुसपैठ


पाकिस्तान ने धोखे से कारगिल में घुसपैठ की. इसकी वजह से भारत ने पाकिस्तान के साथ 1999 में कारगिल युद्ध लड़ा. ये वो दौर था जब कश्मीर घाटी में आतंकवादियों  के खिलाफ भारतीय सुरक्षा बलों का अभियान अपने चरम पर था. बड़ी संख्या में पाकिस्तानी आतंकवादियों को मार गिराया गया. बड़ी तादाद में आंतकवादियों को घाटी छोड़कर वापस जाना पड़ा था. इसी बौखलाहट में मुशर्रफ़ की शह पर आतंकवादियों मे लद्दाख के कारगिल में कुछ हिस्सों पर कब्जा करने की कोशिश की. हालांकि 1999 की गर्मियों में भारतीय सेना ने ऑपरेशन विजय के जरिए पाकिस्तान के इस मंसूबे को सफल नहीं होने दिया और 26 जुलाई को विजय हासिल की.


आगरा समिट से बदल सकता था माहौल


इसके बाद दोनों देशों के रिश्ते बेहद तल्ख हो गए थे. लेकिन इसमें नरमी लाने का काम आगरा समिट ने किया. पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ और भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मुलाकात 14 से 16 जुलाई 2001 के बीच हुई. इसे ही आगरा समिट का नाम दिया गया था. कारगिल युद्ध के बाद बदलते दौर के लिहाज से आगरा समिट अपने आप में ऐतिहासिक था. यहां पर भारत और पाकिस्तान बस दोस्त बनते-बनते रह गए. द्विपक्षीय समझौते, सीमापार आतंकवाद के मुद्दे समेत कश्मीर मसले को सुलझाने के लिए हुए इस समिट का नतीजा सिफ़र रहा. पहले लाहौर समझौते की नाकामयाबी, फिर कारगिल युद्ध  और उसके बाद आगरा समिट का बेनतीजा रहना. तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर समस्या को सुलझाने की गंभीर कोशिश की. लेकिन आगरा समिट में कश्मीर मसला सुलझते-सुलझते रह गया. आगरा समिट के वक्त वे चाहते थे कि कश्मीर का मसला सुलझ जाए और भारत-पाकिस्तान के संबंध बेहतर बने. परवेज़ मुशर्रफ़ ही एकमात्र कारण थे कि जिसकी वजह से आगरा समिट अपने मकसद में उस तरह से सफल नहीं हो पाया, जैसी उम्मीद की जा रही थी.


मुशर्रफ़ का अड़ियल रवैया बरकरार रहा


मुशर्रफ़ आगरा समिट के दौरान अपने 4 सूत्रीय एजेंडा से पीछे हटने को तैयार नहीं हुए. इसमें विसैन्यीकरण (demilitarisation) या सैनिकों की चरणबद्ध वापसी और कश्मीर की सीमाओं में कोई बदलाव नहीं शामिल था. मुशर्रफ़ के एजेंडे में ये भी था कि जम्मू और कश्मीर के लोगों को नियंत्रण रेखा (LOC) के पार स्वतंत्र रूप से आने-जाने की अनुमति दी जाए. मुशर्रफ़ ये भी चाहते थे कि कश्मीर में बिना आजादी के सेल्फ गवर्नेंस हो. इसके साथ ही वे जम्मू और कश्मीर में एक संयुक्त पर्यवेक्षण तंत्र (joint supervision mechanism) पर ज़ोर दे रहे थे, जिसमें भारत, पाकिस्तान और कश्मीर तीनों शामिल हो. हालांकि भारत के लिए मुशर्रफ़ की इन बातों को मानना कतई संभव नहीं था. मुशर्रफ़ की इस तरह की ज़िद  ने आगरा समिट को ऐतिहासिक नतीजे तक नहीं पहुंचने दिया.


आक्रामक तेवर पड़ा भारी


आगरा समिट से जुड़ी एक और बात है जिससे मुशर्रफ़ की मंशा पूरे भारत के सामने जाहिर हो गई थी. आगरा समिट के दौरान मुशर्रफ़ कुछ चुनिंदा भारतीय संपादकों के साथ नाश्ता कर रहे थे और इस वक्त उनका लहजा बिल्कुल सैन्य तानाशाह की तरह ही था. ये इस समिट का बहुत ही महत्वपूर्ण पल साबित हुआ. इस दौरान उनकी बातों से ऐसा लगने लगा कि वे भारत के साथ किसी भी प्रकार के समझौते में कश्मीर में आतंकवाद की मौजूदगी को लेकर आंख मूंदकर चल रहे थे. लाहौर घोषणापत्र और कारगिल युद्ध को लेकर भी मुशर्रफ़ बड़े ही लापरवाह नजर आए. मुशर्रफ़ अपनी बातों से शिमला समझौते को लगभग खारिज करने की मुद्रा में नजर आ रहे थे. बाद में उनके आक्रामक हाव-भाव को लेकर भारतीय मीडिया में ऐसी खबरें बनी, जिससे भारत में भारी आक्रोश पैदा हो गया. इन सब पहलू का आगरा समिट पर काफी असर पड़ा था.


मौके का नहीं उठा पाए फायदा


परवेज़ मुशर्रफ़ जब भारत आए, तो उस वक्त उन्होंने जो इंटरव्यू दिया, उसमें बड़ी चालाकी से भारत की ओर से दोस्ती की सभी कोशिशों को दरकिनार करके एक बड़ी निगेटिव इंडिया पॉलिसी को भारत की ज़मीन पर से ही उजागर किया. उन्होंने बड़े स्पष्ट तरीके से ये कहा कि जब तक कश्मीर मसला हल नहीं होगा, तब तक संबंध सुधारने के बारे में आगे बात नहीं हो सकती. उसमें भी परवेज़ मुशर्रफ़ ने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान के पक्ष को सुनें और समझे बिना इसका हल नहीं निकल सकता. पाकिस्तान में तो मुशर्रफ़ वाहवाही पाने में कामयाब रहे, लेकिन भारत में उनकी छवि और भी नकारात्मक हो गई. इस प्रकरण ने जो माहौल बनाया, उससे भारत और पाकिस्तान के रिश्ते कभी भी उतने सहज नहीं बन पाए.  


मुशर्रफ़ की ज़िद न होती तो...


वाजपेयी जी की जो फरवरी 1999 की लाहौर यात्रा थी, उसमें वे नवाज शरीफ से मिले थे. ये एक कारण था जिसको लेकर परवेज़ मुशर्रफ़ ने काफी हो हल्ला किया था और बाद में नवाज शरीफ को पाकिस्तान की सत्ता से बेदखल करते हुए अक्टूबर 1999 में सैन्य विद्रोह कर वहां की सत्ता पर क़ब्जा कर लिया. इसके बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी ने पहल करते हुए आगरा समिट का आयोजन किया था. ये भारत की दरियादिली ही थी कि वो पड़ोसी मुल्क के साथ रिश्तों को बेहतर करना चाह रहा था. अगर आगरा समिट के वक्त मुशर्रफ़ ने अपनी ज़िद और अड़ियल रवैया छोड़कर सकारात्मक नजरिया अपनाया होता तो शायद आज हालात कुछ और रहते.