आज पटना में जो महाजुटान हुआ, उसके बाद कुछ नेताओं के बयान को डी-कोड करने की कोशिश करनी चाहिए. नीतीश कुमार ने कहा है कि यह दलों का नहीं, दिलों का मिलन है. हालांकि, इस दिल में एक खराबी है कि जेडी-यू का जो पोस्टर छपा है, उसमें नीतीश कुमार केंद्र में हैं और बाकी नेताओं से बड़े भी दिखाए गए हैं. नीतीश कुमार आज एक बड़े मजबूत होस्ट की भूमिका में दिखे, क्योंकि जितने भी दल वहां थे, लगभग सभी इस बात पर लगभग सहमत थे कि नीतीश कुमार आनेवाले समय में विपक्षी एकता के संयोजक होंगे. इसकी बस औपचारिक घोषणा ही बाकी है. हालांकि, यह तो इंतजार करना पड़ेगा कि ये जो महाजुटान है, उसका नाम यूपीए ही रहेगा, या कुछ अलग होगा या उसका स्वरूप कुछ विभिन्न होगा और तब उसका कुछ नामकरण होगा. अभी तो यूपीए में कई ऐसे दल हैं, जो आज की बैठक में थे, लेकिन अब वे यूपीए का हिस्सा नहीं हैं.


अगर ये लोग यूपीए को ही जारी रखें, तो जाहिर है कि यूपीए में औपचारिक तौर पर शामिल होना पड़ेगा. फिर, नीतीश कुमार के कनवेनर बनने पर तो सहमति है, लेकिन वो कनवेनर होंगे किसके, इसका इंतजार करना होगा. दूसरा अहम बयान आज मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ से आया है. उन्होंने आम आदमी पार्टी की अध्यादेश पर समर्थन वाली मांग पर अपनी बात कही है. उन्होंने कहा कि अध्यादेश सदन में आता है, वहां बात होती है, अभी से काहे को इतना इंपॉर्टेंस देना? इस बयान को डिकोड करें तो समझ आता है कि केजरीवाल और कांग्रेस की जुगलबंदी नहीं बन रही है. खड़गे ने अब तक केजरीवाल को समय भी नहीं दिया है. आज उन्होंने ये कह दिया.



बिहार है बेहद महत्वपूर्ण फैक्टर


इसके अलावा खड़गे ने ये भी कहा कि अगर वे बिहार जीत गए, तो समझिए देश जीत गए. इसको भी समझना चाहिए. लोग बार-बार इस सवाल को उठा भी रहे हैं. क्या विपक्ष को बिहार में जीत मिलेगी? इस प्रश्न को पूछने के पीछे कारण यह है कि बिहार में जितनी पार्टियां हैं- आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां, ये सभी मिल-जुलकर चुनाव लड़ते हैं और विधानसभा में ठीक प्रदर्शन भी करते हैं, लेकिन जहां तक लोकसभा का सवाल है, तो क्या ये जीत पाएंगे? दूसरा मसला  मांझी की हम, चिराग पासवान की लोजपा या फिर मुकेश सहनी की पार्टी जैसी छोटी पार्टियों का है. इनमें कुशवाहा और ओवैसी को भी शामिल कर लीजिए. इनमें से मांझी तो पहले ही जा चुके हैं एनडीए के पाले में.


दूसरे, ये लोग जो भी हैं, वो खासा प्रभाव डालते हैं. ओवैसी की पार्टी का सीमांचल में खासा प्रभाव है, मुकेश साहनी की पार्टी ने गोपालगंज और बोचहां में अपनी ताकत दिखाई थी. इसलिए भी, आरजे़डी की भवें उन पर तनी हुई हैं. अब, सवाल यहां फिर से वही उठता है कि अगर नीतीश कुमार कनवेनर बनते हैं, तो फिर बिहार में तो उनको प्रदर्शन करना ही पड़ेगा, लेकिन अभी जैसे छोटी पार्टियों को इस बैठक से दूर रखा गया, उनको दरकिनार किया गया, तो फिर विपक्षी एकता पर सवाल भी उठता है औऱ जीत पर संशय़ भी होता है. अगर जीत पर संशय है, तो फिर नीतीश देश के लिए कैसे नेता बनेंगे, ये सोचने की बात है.


अंतर्विरोधों का जमावड़ा या महाजुटान


एक तीसरी बात और है. आप देखिए कि जो बिहार का पड़ोसी राज्य है, वहां पहले से ही एक गठबंधन काम कर रहा है, बिहार में भी कर रहा है, महाराष्ट्र में भी कमोबेश है, तमिलनाडु में भी चलता ही है. यूपी की बात करें तो वहां से अखिलेश आए हैं, मायावती और जयंत नहीं आए. बंगाल से ममता बनर्जी आई तो हैं, लेकिन वह अपने राज्य में कांग्रेस और वाममोर्चे से कैसे निबटेंगी, ये देखने की बात है. पंजाब औऱ दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ दिल्ली की जुगलबंदी बहुत दिलचस्प होगी, देखने लायक होगी. ये अंतर्विरोध कई स्तरों पर है, दिक्कतें कई हैं. नीतीश कुमार को बस इस बात का क्रेडिट जाएगा कि पिछले एक साल की उनकी उछलकूद का पुरस्कार आज पटना में दिखा है.


उनको लगभग सबने कनवेनर मान लिया है. हालांकि, अंतर्विरोध और अटकलें, बाधाएं और अवरोध बहुत स्तरों पर है. न तो नेता का नाम फाइनल हुआ है, न ही कोई एजेंडा तय हुआ है. एजेंडा के नाम पर वही पुराना राग है- यह देश और संविधान बचाने की लड़ाई है. हालांकि, यह बात बहुत भावनात्मक और अबूझ है. यह कोई ठोस बात नहीं है. मोदी को हटाना है, सरकार बदलनी है, लेकिन किन कामों के लिए हटाना है औऱ उसके बदले क्या देंगे, यह विपक्षी दल जबतक नहीं बताएंगे, तब तक जनता तो इनके साथ नहीं खड़ी होगी. 


 नीतीश कुमार को कन्वेनर बनाने पर सारे दल सहमत हो गए हैं. एक साथ बैठे हैं, यह बहुत बड़ी बात है. अब इनको कुछ समय देना बनता है, ताकि यह पता चले कि आगे ये सभी दल सैलेड-बोल की तरह लड़ेंगे, यानी अपनी पृथक पहचान रखकर गठबंधन में आएंगे या मेल्टिंग-पॉट की तरह अपनी पहचान एक में समाहित करेंगे, इसके लिए इंतजार करना उचित होगा.



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