लोकसभा चुनाव को लेकर राजद ने कुल 22 उम्मीदवारों की सूची जारी की है. इसमें आठ यादव और दो मुस्लिम उम्मीदवार हैं. पार्टी ने सीवान की सीट खाली रख छोड़ी है, क्योंकि यहां से शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब ने दावेदारी जता रखी है. शहाबुद्दीन एक गैंगस्टर था, जो कई बार राजद के टिकट से चुना गया था. शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा ने भी कई बार राजद नेतृत्व के प्रति निराशा जाहिर की है. यहां फिलहाल राजद के सेकुलर क्रेडेंशियल पर सवाल उठ रहा है, क्योंकि राजद ने केवल दो सीटें मुसलमानों को दी हैं. 


प्रतिनिधित्व में पीछे अल्पसंख्यक 


ये दर्शाता है कि जो पार्टियां सेक्युलर हैं, जो सामाजिक न्याय की बात करती हैं, वही  जब हिस्सेदारी की बात आती है तो अपने ढंग से काम करती है. बिहार में राजद ने जो टिकट दिए है उसमें से आठ यादव को शामिल किया गया है. उसमें से दो खुद लालू यादव की बेटियां हैं. राम मनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश की विरासत का तो  पार्टियां दम भरती हैं और सामाजिक न्याय और पिछड़ेपन को दूर करने का नारा लगाती है, लेकिन वो जिस तरह से दूसरे धर्म और दूसरे जाति के लोगों और संप्रदाय को टिकट देती हैं, ये सवाल के घेरे में हैं. लालू प्रसाद यादव 1990 में जनता दल में प्रचंड वोट से जीतकर आए थे. उसके बाद बहुमत की सरकार बनी थी. करीब 15 सालों तक वो बिहार के मुख्यमंत्री बने रहे. इस बीच उनकी पत्नी राबड़ी देवी भी मुख्यमंत्री के कुर्सी पर काबिज रही. काफी सालों के बाद नीतीश कुमार के साथ राजद की गठबंधन हुई तो उन्होंने दोनों बेटों को मंत्री परिषद में शामिल किया. 



एमवाई समीकरण यानी मुस्लिम और यादव गठजोड़ की बात लालू यादव करते रहे हैं, लेकिन जब भी प्रतिनिधित्व का मौका आता है तो अल्पसंख्यकों को काफी पीछे रखते हैं. हमेशा से राजद ये कहते आई है कि अल्पसंख्यक का असली रक्षक वो खुद है, ऐसे में मुसलमानों को पार्टी और नेतृत्व की क्या जरूरत है? इसके कारण मुसलमानों को समुचित अधिकार नहीं मिल पाता. यही वजह है कि पिछली बार के विधानसभा चुनाव के दौरान सीमांचल के क्षेत्र में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया और उनके कई विधायक सीमांचल के क्षेत्र से चुनाव जीते. हालांकि ये अलग विषय है कि राजद ने उनके विधायकों में सेंध लगाकर सभी को अपने पाले में कर लिया. लोकसभा चुनाव 2024 में से 22 सीटें राजद को मिली है. अगर राजद तीन से चार मुस्लिमों को टिकट देती तो ये जरूर लगता कि मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी और मुसलमान के विकास के लिए सोंचने वाली पार्टी है या प्रतिनिधित्व करने का मौका अल्पसंख्यकों को भी दिया गया है.


भाजपा का बहुसंख्यकवाद


भारतीय जनता पार्टी और नीतीश कुमार की जदयू यह करती है तो ये समझा जा सकता है कि वह बहुसंख्यकवाद की राजनीति करते हैं, लेकिन राजद अल्पसंख्यकों की बात करती है और टिकट का ना देने पर सवाल उठने लाजमी है. भाजपा तो मेज्योरिटी यानी की बहुसंख्यवाद का एजेंडा चलाते हैं. भाजपा की टिकटों की बात करें तो 303 सांसदों की सूची की बात करें तो उसमें एक भी मुसलमान का नाम नहीं है.  इस बार शायद भाजपा ने एक या दो मुसलमानों को चुनाव के लिए टिकट दिया है. जरूरी नहीं है कि भाजपा मुसलमानों को टिकट दे या उनके चुनाव चिन्ह पर मुसलमान चुनाव लड़े, लेकिन विपक्ष की पार्टियां तो इसके लिए बात करते रहते हैं. ऐसे में इन विपक्ष की पार्टियों को ये साबित भी कर के दिखाना चाहिए.


नारे बने हिस्सेदारी की बात


हाल में ही बिहार में जातिगत जनगणना हुई थी. उसमें कहा गया था कि जिसकी जितनी हिस्सेदारी होगी, उसकी उतनी भागीदारी दी जाएगी, लेकिन टिकट बंटवारे को देखकर तो ये लगता है कि ये नारा तो सिर्फ बयान बनकर रह गया. ये वायदे कोरे कागज की तरह से ही रह गए. राज्यसभा का चुनाव और विधानपरिषद का चुनाव हुआ उसमें जिस तरह से मुसलमानों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए था वो किसी पार्टी ने नहीं दिया. उसके लिए राजद सीधे तौर पर जिम्मेदार है, क्योंकि राजद ही मुसलमानों के समाचन और नेतृत्व का दावा करती है. जब लालू जेल गए थे, तो अब्दुल बारी सिद्दकी का नाम मुख्यमंत्री के लिए आया, उस  समय उनको सीएम ना बनाकर राबड़ी देवी पद सौंपा गया. कई बार चुनाव के लिए अब्दुल बारी सिद्दकी के नाम की सहमति बनते-बनते रह गई. अभी जिस तरह से जिन लोगों को सीट दी गई है वो सब उनके लिए वफादार पहले से ही रहें है. एक बात राजद  की ये भी है कि वहां पर सबको सेवक बनकर रहना पड़ता है, वो कभी मालिकाना हक नहीं प्राप्त कर सकते. इस समय मुसलमानों को मुफ्त समझ लिया गया है. बीजेपी से मुसलमानों की एक विरोध की भावना रही है तो ऐसे में उसका फायदा राजनीतिक पार्टियां उठा रही है. करीब 30 सालों से मुसलमानों ने उनकी पार्टी को सहयोग किया है लेकिन उनको हिस्सेदारी नहीं मिल पायी.


मुसलमानों के पास विकल्प नहीं


मुसलमानों के लिए अभी तक कोई विकल्प नहीं है्. ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ बिहार में है बल्कि पूरे देश में यही स्थिति है. बिहार में राजद, कांग्रेस और लेफ्ट का जो मिलकर गठबंधन बना है, उसमें भाजपा को हराने में वो पूरी तरह से सक्षम में है. मुसलमानों की भी यही कोशिश होती है कि भाजपा को चुनाव में हराया जाए. उस हालात में भी मुसलमान ये काम करेंगे. अभी के चुनाव में मुसलमान राजद को ही वोट करेंगे, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम पर असर पड़ सकता है.  ज्यादा समय तक मुसलमानों को उनकी हिस्सेदारी से रोका नहीं जा सकता. ऐसे में कई पार्टियों को उदय होता है और बाद में सांप्रदायिकता से इसको जोड़ा जाता है. सीमांचल में इसका एक असर देखने को मिला. ऐसे में ओवैसी जैसे लोग इसका फायदा उठाते हैं. उनका ये आरोप होता है कि राजद को मुसलमानों ने वोट दिया, लेकिन उसने मुसलमानों का ख्याल नहीं रखा. राजद के लिए मुसलमान सिर्फ वोटर की संख्या में दूसरे पायदान पर आता है. अगर सच में राजद मुसलमानों का भला चाहती तो ऐसे में मुसलमानों को आठ सीट देती और चार से पांच यादवों को चुनाव मैदान में उतारती तो माना जा सकता था कि राजद अल्पसंख्यक को तरजीह देती है.  


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