हमारे यहां बिहारी समाज में, खासकर ग्रामीण समाज में एक कहावत है- ज्यादा जोगी, मठ उजाड़. यह जो भीड़ जमा रहो रही है भीड़ में, उससे हमारे देश में, हमारी ऐतिहासिक कहानियों में भी है कि भीड़ कोई निष्कर्ष नहीं ला सकती है. हमारे महाभारत की भी कथा है कि अक्षौहिणी (यानी करोड़ों) की सेना पड़ी रह गयी और पांच पांडवों की टीम ने कृष्ण के नेतृत्व में रण जीत लिया. गांधी के समय में भी यही हुआ. ये जो भीड़ जमा हो रही है, इनकी कोई विचारधारा नहीं है. केवल मोदी-विरोध के नाम पर इनका जमावड़ा हो रहा है. ये लोग 1971 की बात कर रहे हैं.


उस समय ग्रैंड अलायंस बना था. उसमें जनसंघ था, सोशलिस्ट पार्टी, भाक्रांद जो चरण सिंह के नेतृत्व वाली थीं, इन्होंने मिलकर कांग्रेस के खिलाफ गठबंधन किया था. इन्होंने नारा दिया था, 'इंदिरा हटाओ' और इंदिरा गांधी ने नारा दिया 'गरीबी हटाओ'. तो, इंदिरा हटाओ का नारा पिट गया और इंदिरा गांधी दो-तिहाई बहुमत से सत्ता में वापस आ गयीं. वह तो अकेले थीं. 1980 में भी ऐसा ही हुआ. सब लोग मिलकर लड़े, लेकिन इंदिरा गांधी वापस आ गयी. कुछ मूल्यों को, कुछ वचबद्धता को, कुछ कार्यक्रम की बात तो होनी चाहिए न. अब देखिए, अभी नीतीश कुमार नेतृत्व की बात कर रहे हैं. कुछ दिनों पहले तक तो वे वहीं थे, जहां का आज विरोध कर रहे हैं. आप सहयोगी की भूमिका मांगें तो ठीक भी है, लेकिन नेतृत्व करने की, आपके लोगों से अगले प्रधानमंत्री के तौर पर खुद को पेश करवाने की जो बात है, वह तो अजीब है. तो, शर्म-हया कुछ होती है कि नहीं? 


लालू-नीतीश हैं दलित-विरोधी


चाहे वो लालू हैं या नीतीश, ये लोग हमेशा ही दलित विरोधी रहे हैं. दोनों ने ही दलित नेतृत्व को हमेशा खत्म किया है. वह चाहे रामविलास पासवान हों, रमई राम हों या जीतन मांझी हों, सबको इन्होंने खत्म किया है, अपमानित किया है. इसी सोशलिस्ट राजनीति में तो कभी श्रीनंदन पासवान या रामविलास पासवान हुए हैं. कांग्रेस में भोलाराम शास्त्री, मुंगेरीलाल रहे. बिहार से ही जगजीवन राम रहे, बड़ी भूमिका में रहे. कांग्रेस तो इस मेले में आकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है. जब पूरे देश के किसान कानूनों के खिलाफ लड़ रहे थे, तो आपकी कोई भूमिका नहीं थी. अति-पिछड़े और दलित आपके खिलाफ हैं.


आप केवल मोदी-विरोध के नाम पर ऐसे नेताओं के साथ जुटान कर रहे हैं, जो खुद बदनाम हैं और जिन्हें जनता ने खारिज कर दिया है. यह जो 23 जून की बैठक है, टायं-टायं फिस्स का कार्यक्रम होना है, इतना तय है. वैसे, जहां तक समय की बात है, तो 1977 का उदाहरण इनके पास है. समय बहुत है, कुछ भी करने को. 1977 में तो जनवरी में चुनाव की घोषणा हुई, और मार्च में चुनाव हुए थे. उसमें जनता पार्टी की बंपर जीत हुई और इंदिरा कांग्रेस हार गयी, खुद इंदिरा गांधी हार गयीं. जेपी की नैतिक सत्ता इसकी वजह थी. 


'एकजुट' नहीं, 'एक' होने की जरूरत


1977 की जीत के पीछे जेपी का विराट नैतिक व्यक्तित्व था. उस समय दलों को जेपी ने कहा था कि एकजुट नहीं, एक हो जाओ और वही हुआ था. तब जनसंघ था, सोशलिस्ट पार्टी थी, भाक्रांद थी. सभी ने अपनी पहचान का विलय किया था और तब 'जनता पार्टी' बनी थी. तो, जेपी जैसा नेतृत्व था, एक हुए दल थे, तब जीत मिली थी. इन लोगों को भी कुछ करना होगा. वरना, मेला लगाने से कुछ नहीं होता है. जहां तक जीतन मांझी की बात है, तो मैं ये नहीं कहता कि वह जो एनडीए में गए हैं, तो बहुत अच्छा किया. हालांकि, जीतन मांझी के अगर इधर-उधर होने की बात है, तो केवल उनकी ही बात क्यों...इसलिए कि वह दलित हैं. इधर-उधर तो नीतीश कुमार भी जाते रहे हैं. स्थिति तो दोनों की संदेह वाली है. चुनाव के ठीक पहले जीतन मांझी को पुश भी तो किया. कहा गया कि जेडी-यू में वह विलय कर जाएं. जहां तक विलय या 'मर्ज' करने की बात है, तो ठीक है. फिर उसी तरह जेडी-यू अपना विलय आरजेडी में करे और आरजेडी कांग्रेस में मिले. आप केवल अपनी ताकत बढ़ाने के लिए सबको इकट्ठा क्यों कर रहे है, उसी तरह आप यह भी नहीं बोल रहे कि आपने प्रस्ताव नहीं दिया है. 


नीतीश को डेमोक्रेटिक बनने की जरूरत


राजनीति के लिए गांभीर्य चाहिए. कई बार चुप लगाना भी ठीक होता है. अगर आप प्रजातांत्रिक नहीं हैं तो सबको इकट्ठा कैसे करेंगे? रामायण से ही सीख ले लेते, जब रामसेतु बना था तो उसमें तो गिलहरी की भूमिका को भी रेखांकित किया गया है. आप अगर संकल्प लेते हैं कि सत्ता-परिवर्तन या बीजेपी को हटाना है, तो उस तरह का काम करें, बड़ी लकीर खींचें. आप उससे अधिक नैतिक बनें, सक्रिय रहें और ईमानदारी दिखाएं. अच्छी चीजों का विकल्प बुरी चीजें नहीं होतीं, और अच्छी चीजें होती हैं. जहां तक कांग्रेस की बात है तो आज वहां खड़गे साहब अध्यक्ष हैं, जो दलित हैं. कांग्रेस का आधार वोट तो दलित, मुसलमान और प्रोग्रेसिव लोग थे जो नेहरूवादी सोच रखते थे. नेहरू के समय भी कम्युनल फोर्सेज थीं. 1952 के चुनाव में आप देखें तो रामराज्य परिषद और जनसंघ को जितना वोट मिला, उनको अगर मिला दें तो समाजवादियों से अधिक वोट आया था. उस समय भी आरएसएस का गांव-गांव में प्रभाव था, नेहरू ने कायदे से उनको संभाला था. 


अंतर्विरोध हैं बहुतेरे


अब सवाल ये है कि अंतर्विरोध बहुत है. मायावती ने जैसे बीजेपी को यूपी में पटखनी दी थी, तो ये वहां उनसे लड़ रहे हैं. दिल्ली में केजरीवाल ने कांग्रेस को हराया तो ये वहां लड़ रहे हैं, पंजाब में कह रहे हैं कि हम साथ लड़ेंगे. बिहार औऱ यूपी में कांग्रेस या तो खत्म हो जाएगी. वैसे, पूरे हिंदी बेल्ट को देखें. अगर कांग्रेस यहां पीछे रहती है तो अखिलेश, लालू और नीतीश मिलकर कितनी सीटें ला सकते हैं कि वे मोदी को टक्कर दे सकते हैं. एजेंडे में ये होना चाहिए. एजेंडा ही इनका नतीजे पर आधारित है. ये ऐसा काम करें कि इनके काम के बाद मोदी हट जाएं. ऐसा तो है नहीं कि कोई हटेगा ही नहीं. जो आया है, वो जाएगा ही. 


जहां तक बिहार का सवाल है, तो ये जोड़ी कागज पर तो मजबूत लगती है. 2015 में इन्होंने भाजपा को हराया भी था. हालांकि, उस समय लालू अधिक सक्रिय थे औऱ तेजस्वी उस समय सतह पर आए भी नहीं थे. इस बार नीतीश कुमार कह रहे हैं कि तेजस्वी के नेतृत्व में चुनाव लड़ेंगे, तो ये भी दिक्कत होगी. यह 2015 वाले प्रदर्शन को दुहरा पाएंगे, उसमें तो संदेह है. 2015 में भाजपा के खिलाफ पिछड़ों का भी मत था, अभी तो सारे समीकरण उनके साथ ही हैं. इस बार की टक्कर इसीलिए ऐसी होगी कि कहना मुश्किल है कि नतीजा क्या होगा? 


एक अंतिम बात के तौर पर नीतीश जी की 2009 में कही बात याद आती है. तब उन्होंने कहा था कि अब अधिक मेहनत नहीं करनी होगी क्योंकि लालू मैदान में आ गए हैं और प्रचार कर रहे हैं. लालू को देखते ही जनता भड़क जाएगी. तो, नीतीश जी के ही शब्द उधार लें तो लालू जितना अधिक सक्रिय होंगे, भाजपा के लिए उतना ही फायदा होगा.



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