लीडर इलेक्शन देखता है. स्टेट्समैन जेनरेशन देखता है. और नीतीश कुमार ने लीडर के तौर पर भी और स्टेट्समैन के तौर पर भी खुद को साबित कर दिया है. बिना किसी जातीय आधार वोट बैंक के 18 साल तक मुख्यमंत्री के पद पर बने रहने का सीधा अर्थ यही है कि वह शख्स राजनीति का माहिर खिलाड़ी हैं. दूसरी तरफ, आजादी के बाद के इतिहास में एक साथ, एक दिन, एक विज्ञापन के जरिये, एक परीक्षा के माध्यम से करीबन सवा लाख बेरोजगारों को सरकारी-स्थायी नौकरी देना इस बात को साबित करता है कि वह शख्स किन इरादों और विजन से अपनी राजनीति को संचालित करना चाहता है.


रोजगार बनेगा बड़ा मुद्दा


2 नवम्बर 2023 का दिन बिहार ही नहीं पूरे देश के इतिहास में दर्ज हो गया जब एक साथ 1 लाख से अधिक युवाओं को शिक्षक नियुक्ति पत्र दिया गया. इसमें भी 48% फीसदी महिलाएं, 12 फीसदी से अधिक अन्य राज्यों के उम्मीदवार. जाहिर हैं, पिछले 18 सालों में नीतीश कुमार की राजनीति ने कम से कम 50 फीसदी मतदाता वर्ग (महिलाओं) को सीधे-सीधे सकारात्मक तौर पर प्रभावित किया है. महिला सशक्तिकरण का मूलमंत्र क्या हो सकता है, महिला उत्थान की मूक क्रान्ति कैसे की जा सकती है, लॉन्ग टर्म इम्पैक्ट कैसे क्रिएट किया जा सकता है समाज में, इस सब की शानदार मिसाल हैं नीतीश कुमार की नीतियां. एक सवाल जो अक्सर उठता है कि क्या नीतीश कुमार सिर्फ बिहार के नेता भर है या उनकी कोई अखिल भारतीय छवि भी है और फिर यह भी कि क्या “इंडिया” गठबंधन के सबसे निर्विवाद-निष्पक्ष-प्रभावी चेहरा नीतीश कुमार हो सकते हैं? अपनी हालिया रणनीति से नीतीश कुमार इन्हीं सवालों के जवाब देने की कोशिश कर रहे हैं. 


गठबंधन राजनीति के माहिर खिलाड़ी 


इस वक्त हिन्दुस्तान के किसी भी ऐसे एक मुख्यमंत्री का नाम तलाशिये जिसने 18 साल तक गठबंधन राजनीति करते हुए सरकार चलाई हो. मुझे अकेला नाम नीतीश कुमार का ही याद आता है. नीतीश कुमार एनडीए (वाजपेयी जी के जमाने से) के वक्त से ही गठबंधं राजनीति को समझते रहे हैं और उसका सफल प्रयोग बिहार में कर के दिखाया है. ऐसे में, “इंडिया” गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को नीतीश कुमार के इस अनुभव का फ़ायदा उठाना चाहिए था, लेकिन, जैसाकि खुद नीतीश कुमार ने हाल ही में कहा है कि कांग्रेस अभी 5 राज्यों के चुनाव में व्यस्त है और शायद चुनाव बाद “इंडिया” गठबंधन की सक्रियता फिर बढ़ेगी, इसके गहरे निहितार्थ है. पहले भी इस लेखक ने यह कहा है कि अगर राहुल गांधी यह सोचते है कि जाति जनगणना का पिटारा हाथ में ले कर वे देश भर में घूम जाएंगे और पिछड़ों-दलितों के निर्विवाद नेता बन जाएंगे तो यह उनकी गलतफहमी ही होगी. राहुल गांधी को यह मानना ही होगा कि चाहे जातिगत जनगणना का मुद्दा हो या इस विषम आर्थिक परिस्थिति के दौर में लाखों युवाओं को सरकारी और स्थायी नौकरी देने का मसला, इस सबका श्रेय सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार और उनके सहयोगी तेजस्वी यादव को ही जाता है. यानी, राहुल गांधी की कांग्रेस अगर 5 राज्यों के विधानसभा में बेहतर प्रदर्शन भी कर लेती है तो इसका अर्थ यह नहीं होगा कि वे लोकसभा चुनाव में मोदी को आसानी से हरा देंगे. मोदी और भाजपा जैसी ताकतवर पार्टी को शिकस्त देने के लिए युवा जोश के साथ नीतीश कुमार-लालू यादव जैसे अनुभवी और गठबंधन राजनीति के माहिर खिलाड़ियों को आगे आना ही होगा, उन्हें ड्राइविंग सीट पर बिठाना ही होगा. 



2024 के चुनाव पर बिहार का प्रभाव 


लोकसभा चुनाव पर सर्वाधिक असर अगर होगा तो वह बिहार का ही होगा. कैसे? पहला तो अभी से असर दिखा रहा है. बिहार से निकला जाति जनगणना का मुद्दा इस वक्त पूरे देश में फ़ैल चुका है. दूसरा, मोदी सरकार द्वारा हर साल 2 करोड़ रोजगार देने के वादे के फेल होने के बीच, नीतीश कुमार की सरकार लगातार सरकारी नौकरियों में भर्ती कर रही हैं. इस हिसाब से नीतीश कुमार यह स्टैंड ले सकते है कि बेरोजगारी के इस महादौर में बिहार ने देश को रास्ता दिखाया है और यह सच भी है क्योंकि सिर्फ सातवें वेतन आयोग और विभिन्न राज्यों के असैन्य पदों की रिक्तियों की ही गणना की जाए तो यह करीब 25 लाख से अधिक तक जाती है. ऐसे में, अकेला बिहार ही है जो पिछले कुछ सालों में लाखों सरकारी नौकरियां दे चुका है. तो नीतीश कुमार बहुत आसानी से रोजगार के इस “बिहार मॉडल” को देश भर में प्रचारित कर सकते हैं. ध्यान देने की बात है कि हाल के शिक्षक भर्ती में 12 से 14 फीसदी कैंडिडेट अन्य राज्यों के भी हैं जो ऑन रिकार्ड इस चीज के लिए नीतीश कुमार की तारीफ़ कर रहे है. इनमें भी ज्यादातर उत्तर प्रदेश के हैं. आने वाले लोक सभा चुनाव में जब मोदी जी रोजगार की बात करेंगे तो उसका सबसे सफल और जबरदस्त जवाब कोई दे सकता है तो वह नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव की जोड़ी ही होगी. ऐसे में, कांग्रेस अगर गठबंधन धर्म को महत्व देती है तो उसे मौजूदा विधानसभा चुनावों में भी “इंडिया” गठबंधन के साथ चुनाव लड़ना चाहिए था, जोकि उसने नहीं किया और अखिलेश यादव हों या फिर खुद नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यू), उन्हें मध्य प्रदेश में अकेले-अकेले अपने उम्मीदवार उतारने पड़े हैं. निश्चित ही यह कान्ग्रेस और “इंडिया” गठबंधन के लिए एक आदर्श स्थिति नहीं मानी जा सकती है. 


अखिल भारतीय छवि! 


यह कयास जोरों पर है कि नीतीश कुमार फूलपुर (उत्तर प्रदेश) से लोक सभा का चुनाव लड़ सकते हैं. अगर इन कयासों में ज़रा भी सच्चाई है तो यह कदम नीतीश कुमार को बिहार से निकाल कर यकायक राष्ट्रीय परिदृश्य पर ले आएगा. हालांकि, वे राष्ट्रीय स्तर के नेता पहले से हैं और विपक्ष के बीच सर्वाधिक सम्मानीय भी, तभी शायद उनकी मेहनत के कारण “इंडिया” गठबंधन अपने मौजूदा स्वरुप में आ सका था. लेकिन, चुनावी राजनीति थोड़ी अलग होती है. उत्तरे प्रदेश में ओबीसी जनसंख्या के बीच कुर्मी जनसंख्या सर्वाधिक (करीब 20 से 24 फीसदी) है, लेकिन उनका कोई अकेला सर्वमान्य नेता नहीं हैं. राजनीतिक तौर पर यह जाति कितनी ताकतवर है, इसका अंदाजा इसी इसे लगाया जा सकता है कि इस जाति के यूपी में 41 विधायक हैं. ऐसे में, अगर नीतीश कुमार फूलपुर से चुनाव लड़ने का निर्णय लेते हैx तो संभव है कि उन्हें जातीय समर्थन मिले और तब ऐसे में फूलपुर समेत कुर्मी बहुल इलाकों में नीतीश कुमार का प्रभाव पड़ने की संभावना रहेगी. 


बहरहाल, मोदी नहीं तो कौन जैसे यक्ष लेकिन बेमानी प्रश्न के दौर में अगर कोई एक नैतिक रूप से मजबूत, निष्पक्ष, बेदाग़, विजनरी लीडर हो सकता है तो वह नीतीश कुमार हो सकते हैं. लेकिन क्या कांग्रेस नीतीश कुमार की इस छवि का फ़ायदा उठाना चाहेगी या वह अल्पकालिक लाभ के चक्कर में अपना दीर्घकालिक नुकसान करना पसंद करेगी? चयन कांग्रेस को करना है. नीतीश कुमार को जो काम करना था, जो चीजें साबित करनी थी, वह वे कर चुके हैं.



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