मालदीव में नयी सरकार बनने के बाद से ही भारत से दूरी और चीन से नजदीकियां बढ़ती जा रही हैं. मालदीव के नए प्रधानमंत्री मुइज्जू ने चुनाव ही इस मुद्दे पर लड़ा था कि वह भारत के सैनिकों को वहां से बाहर करेंगे. यह बात दीगर है कि भारत के सैनिक वहां नहीं मौजूद थे, बल्कि सुरक्षा और बचाव के लिए दो हेलिकॉप्टर के साथ करीबन 50 भारतीय कर्मचारी थे, जिनके पास हथियार भी नहीं थे. अब मुइज्जू ने भारत के साथ हाइड्रोग्राफिक सर्वे पर रोक लगा दी है. इससे अंतरराष्ट्रीय राजनय के विशेषज्ञों का एक धड़ा मान रहा है कि मालदीव अब चीन की गोद में बैठने जा रहा है, जो भारत के लिए खतरे की घंटी है. हालांकि, भारत का विदेश मंत्रालय इस मसले पर अभी तक खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है. 


इसमें मालदीव का ही है घाटा


मुइज्जू की जो नयी सरकार मालदीव में बनी है, उसका चुनाव का मुख्य मुद्दा यही था कि भारत को मालदीव से बाहर करना है. अब वो यह मसला चीन के दबाव में या पैसों के लिए कर रहे थे, या अपने मुल्क की कट्टरपंथी ताकतों के लिए, यह तो बाद का विषय है, लेकिन मुइज्जू के लिए चीन ने काफी फंडिंग की थी, यह बात भी काफी चल रही है. वो उसकी ही शह पर इस तरह की हरकतें कर रहे हैं, इसलिए भारत के सैनिकों को उन्होंने बाहर का रास्ता दिखाया, क्योंकि उनका पूरा इलेक्शन का प्लैंक ही इस पर आधारित था. हालांकि, भारत ने इस बात को कई बार स्पष्ट किया था कि वे आर्मी या मिलिट्री पर्सनल नहीं हैं, सिर्फ बचाव और सुरक्षा के लिए भारत ने वे लोग वहां तैनात किए थे. सिर्फ दो हेलिकॉप्टर और 50 के आसपास भारतीय लोग वहां तैनात थे, जिनके पास कोई हथियार भी नहीं था. यह तो खैर उनका चुनावी वादा था, तो उन्होंने मान लीजिए कि इसे पूरा किया, लेकिन अभी हाल ही में जो उन्होंने 'हाइड्रोग्राफिक सर्वे' बंद करवाया, वह भी उनकी अदूररदर्शिता को ही दिखाता है.



2019 में भारत के साथ मालदीव का यह करार होना था और उसके माध्यम से भारतीय नेवी के हाइड्रोग्राफर्स ने 2022 तक तीन ऐसे सर्वे किए थे, उन्होंने मालदीव के अधिकारियों को प्रशिक्षण देने की भी प्रक्रिया शुरू कर दी थी. साथ ही म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश का भी हाइड्रोग्राफिक सर्वे किया है. यदि हम हिंद महासागर की बात करें तो मॉरीशस, सेशेल्स इत्यादि की मदद भी भारत करता आ रहा है. ऐसे में मालदीव सरकार का यह बोलना कि भारत की अब उनको जरूरत नहीं है और मालदीव के लोग खुद ही यह काम कर लेंगे, वह भी उनका एक गलत फैसला है. मालदीव के कर्मचारी अभी उतने प्रशिक्षित हुए भी नहीं हैं. 


भारत एक भरोसेमंद साझीदार


मालदीव के नए प्रधानमंत्री का यह फैसला गलत इसलिए भी है, क्योंकि भारत एक भरोसेमंद साझीदार है. वह अपने पड़ोसियों और बाकी देशों की मदद के लिए मुस्तैदी से खड़ा रहता है. इसके बावजूद अगर मालदीव ऐसा कर रहा है, तो नुकसान उसी का होगा. उनको खासकर श्रीलंका और पाकिस्तान से सीख लेनी चाहिए, जिन्होंने चीन की शह पर भारत से किनारा करने की कोशिश की. आज उनकी अर्थव्यवस्था किस कगार पर है, वह कहने की बात नहीं. ये देश सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी किनारे हो चुके हैं. टूटे-फूटे दयनीय श्रीलंका को आज भारत संभालने की कोशिश कर रहा है.



मुइज्जू को भी जल्द से जल्द अक्ल आ जाए, यही प्रार्थना की जा सकती है, क्योंकि 'हाइड्रोग्राफिक सर्वे' से भारत का ही नहीं, मालदीव का भी भला होता है, कई पड़ोसी मुल्कों का भी भला होता है. भारतीय नौसेना पूरे हिंद महासागर में सुरक्षा का काम करती है, उसे एक फ्री जोन बनाने का काम करती है. इस सर्वे से मौसम से लेकर समंदर की तमाम हलचलों का भी पता चलता है और इससे मालदीव जैसे छोटे से मुल्क का अधिक भला होता, क्योंकि आज 'ग्लोबल वॉर्मिंग' एक सच्चाई है. कई छोटे द्वीप समंदर में डूबते जा रहे हैं और ऐसे में मालदीव को भारत जैसे भरोसेमंद साझीदार की जरूरत है, न कि चीन जैसे मुल्क की जो पैसा देकर किसी भी तरह उस देश पर कब्जा करने में यकीन रखता है. 


भारत की सीख- वसुधैव कुटुम्बकम्


कुछ चीजें तो प्राकृतिक तौर पर होती हैं. श्रीलंका को चीन के जाल में फंसकर बहुत बड़ी सीख मिली है. उनके ऊपर चीन का कर्ज बहुत अधिक है और उसी चक्कर में वे अपनी जमीन भी खो रहे हैं. भारत की तरफ उनका झुकाव हुआ है और इसीलिए भारत उनकी अर्थव्यवस्था को सहारा भी दे रहा है. भारतीय टूरिस्ट अधिक संख्या में वहां आएं, इसीलिए श्रीलंका ने अभी कुछ दिनों पहले वहां उनके लिए वीजा-फ्री पॉलिसी भी बनाई है. मालदीव के आय का मुख्य जरिया टूरिज्म है और भारत से जानेवाले अधिकांश टूरिस्ट ही उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं.


भारत लगातार प्रयास कर रहा है कि उनका नफा-नुकसान समझाया जाए कि इन देशों का किसके साथ जाने में भला है, और भारत की विदेश नीति लगातार इसका प्रयास कर रही है. फिर चाहे वह दक्षिण एशिया की बात हो, या फिर हिंद-प्रशांत क्षेत्र के जो छोटे देश हैं, जैसे तंजानिया, मोजांबिक, मॉरीशस इत्यादि, जो नजर आते हैं कि ये हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लेटोरल्स हैं औऱ चीन इन पर डोरे डाल रहा है, वह अपनी स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स रणनीति पर काम कर रहा है, वहां भारत भी अपनी कूटनीति पर काम कर रहा है और वह चीन के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर इस क्षेत्र में उभरा है.


शायद इसी वजह से पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया के जो मुल्क हैं, जैसे मलेशिया की बात करें तो वहां 23 फीसदी चीनी मूल के लोग हैं, वहां भी लोग चीन को देखना नहीं चाहते हैं और वहां का पूरा चुनाव चीन-विरोध पर ही लड़ा जा रहा है. वहां भारत को काफी पसंद किया जा रहा है और यह शायद भारत के लिए बिल्कुल सही मौका है कि वह इन देशों में अपना इकबाल और बुलंद करे. वर्तमान सरकार ने कथनी और करनी के भेद को काफी हद तक मिटाया है, जो एग्रीमेंट साइन हो रहे हैं, उसको मोदी सरकार अमली जामा भी पहनाती है और इसीलिए भारत का रुतबा भी बाहर बढ़ रहा है, छोटे-मोटे रोड़े तो इस राह में आते रहे हैं और मालदीव के मसले को भी ऐसे ही नजरिए से देखना चाहिए. आखिरकार, नुकसान मालदीव का ही होगा क्योंकि चीन की विस्तारवादी नीति आखिरकार उसी को निगलेगी. 


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