जुलाई में पेश किए जाने वाले केंद्रीय बजट पर चर्चा करना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन ये तय है कि जो भी गठबंधन सत्ता में आएगा, उसे चुनाव के दौरान उत्पन्न बहसों के मद्देनजर फरवरी के अंतरिम बजट की बड़ी समीक्षा करनी होगी. चुनाव धर्म या राम मंदिर की तुलना में आर्थिक मुद्दों पर अधिक केंद्रित है, हालांकि कुछ क्षेत्रों में ये एक शक्तिशाली मुद्दा बने हुए हैं और इसलिए ब्रांड नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ हैं.


एक बड़ा वर्ग मुख्य अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, किसानों के मुद्दे, ऊंची कीमतें, चिकित्सा और स्वास्थ्य देखभाल लागत, स्कूल और विश्वविद्यालय की फीस, घरों के लिये महंगी लागत और टोल की वजह से मुद्रास्फीति और इसी तरह के अन्य मुद्दों से चिंतित है. यहां तक कि भारतीय अर्थव्यवस्था को पांचवीं सबसे बड़ी व्यवस्था के रूप में प्रदर्शन भी स्वीकार नहीं किया जा रहा है.


किसान और नागरिक क्षोभ जता रहे है कि जब दुनिया भर में कारों और ट्रैक्टरों को विमानों की तरह 40 साल तक चलने की अनुमति है, तो भारत में सरकार को इन्हें कबाड़खाने भेजने की इतनी जल्दी क्यों है, खासकर तब जब आमलोगों का कर्ज आसमान छू रहा है. ग्रामीण इसे अजीब कहते हैं और कार निर्माताओं के साथ सरकारी सांठ-गाँठ की बात करते हैं. 2024-25 के बजट में 16.87 लाख करोड़ रुपये के कर्ज चुकाने पर भी सवाल उठ रहे हैं. इससे वास्तविक बजट 47.65 लाख करोड़ रुपये घटकर लगभग 31 लाख करोड़ रुपये रह जाता है.


2025 में कर्ज चुकाने का बोझ और भी ज्यादा  होगा. प्रमुख आर्थिक मुद्दों पर विपक्ष के तीखे तेवरों का सत्तारूढ़ गठबंधन ये आरोप लगाकर खंडन कर रहा है कि अगर विपक्ष सत्ता में आया तो वह मंगलसूत्र बेचेगा और विभाजनकारी राजनीति करेगा. चुनाव आयोग ने सत्तारूढ़ दल को उसकी सांप्रदायिक टिप्पणियों के लिए चेतावनी जारी की है. उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे प्रमुख राज्यों में 190 निर्वाचन क्षेत्रों में कम मतदान ने सभी दलों के बीच चिंता बढ़ा दी है. चुनाव आयोग द्वारा कई कदम उठाए जाने के बावजूद मतदाता उदासीन है. क्या ये शासन के रवैये पर एक प्रश्नचिन्ह है? 


लोग इलेक्टोरल बॉन्ड को मानते महंगाई की वजह  


इससे मुद्दे ठंडे बस्ते में नहीं चले जाते है. आरबीआई के अनुसार, मुद्रास्फीति में सालाना 5.5 प्रतिशत की वृद्धि चक्रवृद्धि रूप से 55 प्रतिशत से अधिक हो गई है, जिससे कीमतों में भारी वृद्धि हुई है. किसी का भी वेतन इतना नहीं बढ़ा है, यहां तक कि सरकारी कर्मचारियों का भी नहीं. नई सरकार को खाद्य तेल, खाद्यान्न, सब्जियां, आलू और प्याज के साथ-साथ स्कूल फीस और महंगी स्वास्थ्य सेवा, दूध और अन्य वस्तुओं की कीमतों को कम करने के लिए कठोर कदम उठाने होंगे.



लोग इस तर्क को मानने को तैयार नहीं हैं कि मुद्रास्फीति प्रणाली में अंतर्निहित है. महंगाई की वजह लोग पार्टियों को दिए गए कॉरपोरेट इलेक्टोरल बॉन्ड को मानते हैं. सरकार ने स्वीकार किया कि पेट्रोल की कीमतें अधिक हैं, चुनाव से ठीक पहले इसमें 2 रुपये की कटौती की. इसका मतदाताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. मतदाता बड़े कार्यालय भवनों, रेलवे स्टेशनों, सड़कों या मेट्रो के निर्माण जैसे तथाकथित प्रदर्शनकारी विकास से खुश नहीं है. निर्माण की प्रक्रिया हिमाचल, कश्मीर, उत्तराखंड और उत्तर पूर्व की पहाड़ियों को तबाह कर रहे हैं. सड़क के लिए अपनी ज़मीन के अधिग्रहण से रातों-रात करोड़पति बन चुके किसान अपनी आजीविका खोने से खुश नहीं हैं, और ज़्यादातर ग्रामीण उन सड़कों पर पछताते हैं जो उनके आवास और रिश्तों को विभाजित करती हैं, एक ऐसी सड़क जिसका वे बिना टोल चुकाए इस्तेमाल नहीं कर सकते.


यह एक गंभीर मुद्दा है क्योंकि किसान टोल खत्म करने के वादे के साथ लागू किए गए पेट्रोल पर 30 रुपये प्रति लीटर का सेस भी चुकाते हैं. इन सबका फ़ायदा बड़े मुनाफ़ाखोरों को होता है और नौकरियां कम होती जाती है. 
 
भारत का निर्यात मूल्य घटा 


नई सरकार को बड़े बदलाव करने होंगे और नीतियों का पुनर्निर्धारण करना होगा. बेरोज़गारी का मुख्य कारण तदर्थ फ़ैसले हैं. ऐसे निर्माण सरकारी वित्त को कमज़ोर करते हैं. दक्षिण-पूर्व एशिया ने 1990 के दशक के अंत में ऐसा करने की कोशिश की और 1997 में मुश्किल में पड़ गया. नई सरकार के लिए ये समझदारी होगी कि वह सार्वजनिक उपक्रमों को पुनर्जीवित करे और निजी क्षेत्र को उनके साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए कहे. इससे नौकरियाँ पैदा होंगी, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में इज़ाफ़ा होगा.


लोग इंडियन ऑयल का एक हिस्सा निजी दिग्गज को देने या बंदरगाहों को निजी खिलाड़ियों को देने के औचित्य पर सवाल उठाते हैं. कम से कम एक ऐसा बंदरगाह तस्करों के अड्डे के रूप में कुख्यात हो गया है. विश्वविद्यालयों, आईआईटी और सरकारी संस्थानों को हर साल ट्यूशन फीस बढ़ाने का आदेश दिया गया है. निजी संस्थान कहीं ज्यादा बढ़ोतरी करते हैं. स्कूलों और विश्वविद्यालयों को सरकार से वित्त पोषण की जरूरत है और शिक्षा की लागत में बढ़नी चाहिए. कांग्रेस ने हर स्नातक को प्रशिक्षुता का वादा किया है, यह अच्छा लगता है लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है. यह योजना कई बार विफल हो चुकी है.


2023 की पहली छमाही में भारत के कुल निर्यात में 8.1 प्रतिशत की गिरावट आई और इसके मुक्त व्यापार भागीदारों को निर्यात में 18 प्रतिशत की कमी आई. पिछले वित्तीय वर्ष में देश का व्यापार घाटा बढ़कर 78.2 अरब डॉलर हो गया. सभी वस्तुओं में भारत का निर्यात मूल्य अप्रैल-जनवरी के दौरान एक साल पहले के 366 अरब डॉलर से घटकर 351 अरब डॉलर रह गया. यूरोपीय संघ, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का कहना है कि वैश्विक मंदी जारी है. भारत का 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने का अनुमान आसान नहीं है. पश्चिम अधिक संरक्षणवादी हो गया है और कार्बन कर लगाने के लिए उत्सुक है. पश्चिम को अपनी रोटी की रक्षा करने की आवश्यकता है.


सरकार को बुनियादी मुद्दों पर देना होगा ध्यान 


कम उत्पादकता के परिणामस्वरूप विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार सृजन कम होता है, जिससे बेरोजगारी आसमान छू रही है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन भारत में कम वेतन और मजदूरी को गंभीर समस्या मानता है. जब उत्पादकता में गिरावट आती है, तो कंपनियों के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश कम होता है. इससे विनिर्माण क्षेत्र की गति धीमी हो जाती है. लेकिन बढ़ते घरेलू ऋण और घटती बचत की चुनौती दीर्घकालिक विकास स्थिरता पर भारी पड़ सकती है.


एफडीआई प्रवाह 17.96 बिलियन डॉलर मात्र है. ये बाज़ार की समस्या को दर्शाता है. नई सरकार के सामने कॉर्पोरेट कर के अनुरूप व्यक्तिगत आयकर दरों को 39% से घटाकर 22% करने की चुनौती भी है. उच्च कराधान क्रय क्षमता और सहवर्ती बाजार समस्याओं को प्रभावित करते हैं.


संक्षेप में, नई सरकार को कर, शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका, कम टोल और किसानों की बेहतरी से जुड़े मुद्दों पर जोर देना होगा. भाजपा और कांग्रेस दोनों के घोषणा पत्रों में बहुत ज़्यादा खैरात और जाति से जुड़े लाभों की बात की गई है. अगर सरकार बुनियादी मुद्दों को संबोधित करती है और इसे सबसे सस्ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना सकती है, तो भारत की यात्रा आसान होगी. ये सपना अगर सच हो जाता है तो यह सबसे ज़्यादा समृद्ध देश होगा. 


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]