हाल ही में नरेंद्र मोदी सरकार ने दिल्ली स्थित 'नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय (NMML)' का नाम बदलकर 'प्रधानमंत्री संग्रहालय और पुस्तकालय (PMML)' कर दिया. इसके साथ ही वहां भारतीय लोकतंत्र में अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनसे जुड़ी चीजें और यादों की प्रदर्शनी होगी. इसके साथ ही देश में एक बार फिर 'नाम बदलने की संस्कृति' पर बहस होने लगी है. विपक्ष जहां इसे साज़िश बता रहा है, सत्ताधारी दल इसे रूटीन प्रक्रिया बता रहे हैं. वैसे, जनता की तरफ से सोशल मीडिया पर इस पर जमकर रायशुमारी की जा रही है, ज्ञान दिया जा रहा है. 


नाम बदलने से बेहतर काम बदलिए


जहां तक नाम बदलने का सवाल है, तो इस वक्त देश में नाम बदलने का तो चलन ही निकल पड़ा है. बहुत सारी चीजों के नाम बदले जा रहे हैं. सवाल ये है कि नाम बदलने से जो इतिहास है, वह तो बदल नहीं सकते न. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इतने बड़े कद के आदमी थे कि उनको एक बिल्डिंग तक सीमित नहीं कर सकते. उनके नाम के लिए किसी बिल्डिंग मात्र की ज़रूरत नहीं है. हां, आपने नाम बदलकर प्रधानमंत्री संग्रहालय किया, जैसे आपने पुरानी संसद के बदले दूसरी संसद बना दी, वैसे ही सरकार को एक स्थल और बना देना चाहिए-प्रधानमंत्री संग्रहालय के लिए. इसे करके आपने साबित किया कि आज भी आपको नेहरू के नाम से कितनी घृणा है, आप नेहरू से कितना डरते हैं, यह सामने है. नाम बदलने का मैसेज हिंदुस्तान में अच्छा नहीं जाएगा, विदेशों में भी यह जो मैसेज है, वह अच्छा नहीं जाएगा. विदेशों में भी नेहरू जी का नाम है, उसको आप मिटा नहीं सकते. विश्व में नेहरू के नाम का जो असर है, वह कम ही नेताओं को नसीब है. 


व्यवस्था बदलने की है ज़रूरत


नाम बदलने से चीजें ठीक नहीं होतीं हैं, व्यवस्था बदलने से उचित होगा. वरना, नाम आप फलों का बदल दीजिए, शहर का बदल दीजिए, उससे क्या फर्क पड़ेगा? ये नामकरण बदलना कोई बहुत औचित्य का काम नहीं है. जो स्थिति चल रही है देश में, उसको बदलना अति आवश्यक है. उससे लाभ होगा. रोड का नाम बदलने से, बिल्डिंग का नाम बदलने से फर्क नहीं पड़ेगा. वजह तो इसके पीछे साफ यह होती है कि राजनीतिकरण किया जा रहा है.



अगर नाम से इतनी ही समस्या है तो मोदीजी को गुजरात से, अहमदाबाद से स्टेडियम का नाम सरदार पटेल के नाम पर रख रहे थे, फिर बदलकर नरेंद्र मोदी क्यों कर दिया? अब अगर सरदार पटेल के नाम से भी उन्होंने ये किया है, तो फिर ये तो उनकी विचारधारा को दिखा रहा है. नाम बदलने के पीछे मोटो यह रहता है कि वह अपनी विचारधारा के लोगों को जगह दें, जो आज तक नहीं हो पाया था. नाम रखने से भी कोई दिक्कत नहीं है. जैसा मैंने कहा कि नेहरू संग्रहालय की जगह कोई नयी बिल्डिंग बना देते, उसका नाम प्रधानमंत्री संग्रहालय रख देते, तो कोई दिक्कत नहीं थी. ये जब संसद बना सकते हैं, तो वो भी बना सकते हैं. फिर, कोई विवाद नहीं था. 



परिस्थिति बदलिए, वही महत्वपूर्ण है


विलियम शेक्सपीयर ने जब ये कहा था कि "गुलाब को किसी नाम से पुकारो, वो गुलाब ही रहेगा" तो वह अक्लमंदों के लिए कहा था. जो उस गुलाब को समझना ही नहीं चाहते, उनके लिए थोड़े न ये कहा था. नेहरू म्यूजियम को बिल्कुल जस का तस रखना था. जब आप आजादी के पहले चिह्न को रखते हैं, तो पहले प्रधानमंत्री को हटा कर, या उनके म्यूजियम को हटा कर, सामान को हटाकर क्या दिखाना चाहते हैं? कि वह प्रधानमंत्री नहीं थे, कि उनका चुनाव सही नहीं था, कि वह देश के पहले पीएम के तौर पर लोगों को याद नहीं रहने चाहिए....आखिर आप साबित क्या करना चाहते हैं?


यह तो विचारधारा की लड़ाई थी न, है न..अगर आपको उनकी विचारधारा अच्छी नहीं लगती, 70 साल बाद भी आप नेहरू के नाम पर ही उत्तेजित होते हैं, तो ये तो गलत बात है! जब नाम बदले गए थे, इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किया गया और भी कई जगहों के नाम बदले गए, तो लोगों का यही कहना था कि नाम बदलने से सिटी थोड़े न बदल गयी. स्थिति तो वही रह गयी है. जो परिस्थितियां हैं, उनको बदलो ना. बेरोजगारी जो इतनी बढ़ी है, उसको बदलिए. इंफ्रास्ट्रक्चर बदलिए. गरीबी और बदहाली को बदलिए. सरकारी नौकरी मिले, महंगाई को बदलो, ताकि जनता के ऊपर जो भार है, वह हटे. 


ऐसे तो 100 साल लगेंगे


राष्ट्रपति भवन भी अंग्रेजों का बनाया हुआ है, तो उसका भी नाम बदल दीजिए. अगर इस पर आप आएंगे, तो पूरे देश की हर चीज बदलनी पड़ेगी. हम चाहे मुगलों के गुलाम रहे हों, चाहे अंग्रेजों के गुलाम रहे हों, उन सभी काल के गुलामी के चिह्नों को हटाने में तो सौ साल लग जाएंगे, फिर भी आप इतिहास को नहीं बदल पाएंगे. जो इतिहास था, वह बदला नहीं जा सकता, क्योंकि वो विश्व का इतिहास था, उस वक्त. आदर्श स्थिति ये होनी चाहिए कि जो भी सरकार है, उसको राष्ट्रधर्म निभाना चाहिए. राष्ट्र के प्रति उसके जो कर्तव्य हैं, उसे निभाना चाहिए, राष्ट्र का विश्व में सम्मान बढ़े, इसके लिए कोशिश करनी चाहिए, और जिस स्वतंत्रता को पाने में जिस तरह हजारों हजार लोगों ने, हर तरफ के लोगों ने कुर्बानियां दीं, उसे धर्म के नाम पर, जात के नाम पर बांटने की आजादी नहीं होनी चाहिए. यही राष्ट्रधर्म है और यही सबको पालन करना चाहिए. 



[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]