यूपी की राजनीति में 'धरतीपुत्र' बनकर उभरे और तीन बार सूबे की सत्ता संभालने वाले मुलायम सिंह यादव को मरणोपरांत देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मविभूषण देकर मोदी सरकार ने सबको चौंकाया है, लेकिन इसके पीछे की सियासी रणनीति को समझना होगा कि एक जमाने में कार सेवकों पर गोली चलवाकर मुस्लिमों के बड़े नेता बनकर उभरे मुलायम के प्रति बीजेपी की सोच अचानक कैसे बदल गई कि उनकी मृत्यु के महज तीन महीने बाद ही यह नागरिक सम्मान देने का फैसला लिया गया. बेशक पार्टी नेता खुलकर इस बात को न मानें लेकिन इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है कि इस सम्मान का सीधा रिश्ता 2024 के लोकसभा चुनाव में ओबोसी वोटरों और उनमें भी खासकर यादवों को साधने से जुड़ा हुआ है.


यूपी की पूरी राजनीति जातियों पर आधारित है लेकिन साल 2014 के लोकसभा चुनाव के वक़्त से ही बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग के कारण कई छोटे दलों की सियासत गड़बड़ा गई. बीजेपी ने गैर जाटव दलित वोट बैंक और सपा के गैर यादव ओबीसी वोट बैंक में सेंधमारी की है. यह ट्रेंड 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के अलावा 2017 और बीते साल हुए विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिला है, जिसका फायदा बीजेपी को मिला. इसी वजह से बीजेपी लगातार दूसरी बार सत्ता पर काबिज़ हुई.ओबीसी वोटरों के दम पर ही साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा ,बसपा और रालोद के गठबंधन के बावजूद बीजेपी 80 में से 62 लोकसभा सीट जीतने में कामयाब रही थी. यूपी के जातीय समीकरण पर गौर करें,तो ओबीसी आबादी करीब 55 फीसदी है,जबकि सवर्ण 20 प्रतिशत,दलित भी तकरीबन इतने ही हैं और मुस्लिम आबादी 5 फीसदी है. सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा कराए गए नेशनल इलेक्शन स्टडी के आंकड़ों के मुताबिक, 2014 में सपा के बाद बीजेपी को ही यादव समुदाय की तरफ से सबसे ज्यादा वोट मिले थे. जहां 53 फीसदी यादवों ने सपा को वोट दिया था, वहीं बीजेपी को 27 फीसदी यादवों ने वोट किया था. 


साल 2017 के विधानसभा चुनावों में इंडिया टुडे द्वारा एकत्र किए गए चुनाव के बाद के आंकड़ों में, लगभग 80 प्रतिशत यादवों ने सपा को वोट दिया था.हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनावों में, कुल 23 प्रतिशत यादवों ने बीजेपी को वोट दिया था, जबकि एसपी-बीएसपी के नेतृत्व वाले महागठबंधन को लगभग 60 प्रतिशत यादव वोट मिले थे. जबकि 80 फीसदी कोइरी-कुर्मी मतदाताओं और 72 फीसदी अन्य ओबीसी मतदाताओं ने बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को वोट किया था. वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में केवल 10 फीसदी यादव मतदाताओं ने, 57 फीसदी कोइरी-कुर्मी मतदाताओं और 61 फीसदी अन्य ओबीसी मतदाताओं ने बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को वोट किया था. बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए 312 विधानसभा सीटों पर अपना परचम लहराया था. इससे पहले बीजेपी कभी भी इतनी अधिक सीटें नहीं जीत पाई थी.
 
बीते साल हुए विधानसभा चुनावों में यादवों ने फिर से सपा का खुलकर साथ दिया और यादव वोट शेयर का 83 फीसदी हिस्सा सपा को मिला.इन आंकड़ों से साफ है कि लोकसभा चुनाव में तो यादव बीजेपी का साथ देते हुए दिखते हैं लेकिन विधानसभा चुनाव में वे एकमुश्त सपा के पाले में चले जाते हैं.यही कारण है कि दो लोकसभा चुनावों में यादवों के मिले वोटों के आधार पर बीजेपी के रणनीतिकारों को लगता है कि उनके हितों से जुड़ी कुछ लुभावनी घोषणाएं करके समुदाय के बड़े तबके का समर्थन हासिल करना, कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं है.इसीलिये सियासी जानकार मुलायम को सम्मान देने के फैसले को यादव वोटों को लुभाने की बड़ी रणनीति मान रहे हैं.वे कहते हैं कि अगर बीजेपी यादव समुदाय को लुभाने की कोशिश कर रही है तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.वह इसलिये कि इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि विधानसभा चुनावों की तुलना में लोकसभा चुनावों में यादव वोटों का झुकाव बीजेपी की ओर हो जाता है.


साल 2022 के चुनावों को “अलग” इसलिये कह सकते हैं कि तब यूपी के इतिहास में यादवों और मुसलमानों का सर्वाधिक ध्रुवीकरण देखा गया था लेकिन यही यादव समुदाय आम चुनावों में बीजेपी की ओर स्पष्ट रूप से झुका हुआ दिखता है, भले ही सपा  को लोकसभा चुनावों में उसके लगभग 52-53 प्रतिशत वोट मिलते हों.
एक महत्वपूर्ण तथ्य ये भी है कि पिछले चुनावों में यह देखा गया कि लोकसभा चुनावों में सपा को मिले वोटों में लगभग 18-19 प्रतिशत की गिरावट आई है, जो कि स्पष्ट रूप से दिखाता है कि लोकसभा चुनावों में पीएम नरेंद्र मोदी की तरफ यादवों का झुकाव बढ़ा है. इसलिये 2024 के आम चुनावों से पहले बीजेपी के पास इस बात का पर्याप्त आधार है कि अगर वे थोड़ी और मेहनत करते हैं, तो वे यादवों को अपने पक्ष में लामबंद कर सकते हैं.


नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.