दो दशक पहले तक बुद्धिजीवी राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या को लेकर चिंता जताते थे. लोकतांत्रिक सुधार के लिए काम करने वाली संस्थाएं अदालतों में जनहित याचिका दायर कर के ऐसे प्रावधान बनवाती थीं, जिससे जनता को चुनावी उम्मीदवारों के आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी मिलती रहे. महज दो दशक बाद आज ये स्थिति है कि इंग्लिश और हिन्दी भद्रलोक के कुछ बुद्धिजीवी गैंगस्टर सह नेता मुख्तार अंसारी की मृत्यु पर उन्हें अपराधी कहने लेकर नाराज हो रहे हैं. मुख्तार पर हत्या, अपहरण, फिरौती, संगठित गिरोह चलाने इत्यादि के 65 मुकदमे दर्ज थे. ऐसा भी नहीं है कि मरहूम पर केवल आरोप लगे थे. कई मामलों में अदालत ने उन्हें दोषी मानकर सजा भी सुना दी थी. 63 वर्ष की उम्र में मृत्यु के समय वह जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे.


माफिया में भी तेरा और मेरा


कई राजनीतिक दलों की यह फितरत होती है कि अपनी पसन्द के गैंगस्टर को वे गुण्डा नहीं मानते लेकिन जो बुद्धिजीवी खुद को राजनीति के आगे चलने वाली नैतिकता की मशाल बताते हैं, उन्हें एक गैंगस्टर से इतना लगाव क्यों है? ऐसा भी नहीं है कि मुख्तार ने महर्षि वाल्मीकि या फूलन देवी की तरह अपराध का रास्ता छोड़कर नया जीवन शुरू कर दिया था. मुख्तार ने जेल से भी यथासम्भव अपने जरायम पेशे को जारी रखा था. मुख्तार अंसारी की मीडिया कवरेज में उनके नामी पूर्वजों के नाम इस तरह लिए जाते हैं, जैसे कि मुख्तार ने पुरखों का नाम रोशन किया हो? अगर आज हमारे बीच डॉक्टर मुख्तार अंसारी और ब्रिगेडियर उस्मान होते, तो क्या वे इसपर गर्व करते कि उनके खानदान से निकला एक लड़का, नामी गैंगस्टर बन गया है? उसपर लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये विधायक की हत्या करवाने का आरोप लगा है? उसपर एक सांसद पर घातक हमला करवाने का आरोप लगा है? उसपर एक बड़े व्यापारी के अपहरण और हत्या का आरोप लगा है? उसपर डॉक्टर, इंजीनियर, कारोबारी इत्यादि से रंगदारी लेने का आरोप लगा है? क्या इन कृत्यों पर मुख्तार के वे पुरखे गौरवान्वित होते जिनकी दुहाई देकर मुख्तार की छवि 'अच्छे घर का लड़का' वाली बनायी जाती है! 



मुख्तार का अपराध, उन लोगों से ज्यादा गम्भीर है जो जिंदगी की गलियों में भटकते हुए अपराध की राहों पर चले जाते हैं. मुख्तार अंसारी एक ऐसे सामंती परिवार में पैदा हुए जिसमें उनसे दो पीढ़ी पहले डॉक्टर और ब्रिगेडियर हो चुके थे. खुद मुख्तार और उनके दोनों भाई, गाजीपुर पीजी कॉलेज से ग्रेजुएट हैं. उस जमाने में ग्रेजुएट होने का क्या महत्व था, इसे समझने के लिए याद रखें कि 1971 में यूपी की साक्षरता दर महज 23.99 प्रतिशत थी, यानी पूरे सूबे में केवल 24 प्रतिशत लोग अखबार पढ़ना और नाम लिखना जानते थे. शिक्षा-दीक्षा के प्रति ऐसी जागरूकता वाले माहौल में पैदा होकर भी मुख्तार ने अपराध का रास्ता चुना. यह गौरव की नहीं शर्म की बात है.


मुख्तार के समर्थकों की गलतबयानी


मुख्तार की मौत के बाद उनके कुछ समर्थकों ने यह दुष्प्रचार करना चाहा कि मुख्तार सामंतों के खिलाफ लड़ते थे, इसलिए ही वो दूसरों को चुभते थे! यह एक सफेद झूठ है. मुख्तार अंसारी खुद सामंती परिवार से आते हैं. उनके जैसे सामंती पृष्ठभूमि वाले गाजीपुर में आधा दर्जन लोग भी नहीं होंगे. सामंती व्यवस्था के कमजोर पड़ने के बाद, अंसारी परिवार ने राजनीति और नए आधुनिक पेशों के माध्यम से अपना सामाजिक रसूख बनाए रखा. उनके वृहद परिवार में सांसद, विधायक, प्रोफेसर, अफसर की कमी नहीं है. अपराध की राह न पकड़ते और पढ़ने-लिखने में सचमुच रुचि रखते तो मुख्तार और अफजाल अंसारी भी दूर के रिश्तेदार हामिद अंसारी की तरह प्रशासनिक सेवा में होते. मुख्तार ने सफेदपोश पेशों के बजाय अपराध का रास्ता चुना तो उसके पीछे वे सामंती संस्कार जिम्मेदार रहे होंगे जिनकी यादों में वे अपनी मूँछ ऐंठकर रखते थे. मुख्तार के बेटे का वायरल वीडियो देखना चाहिए जिसमें वे जनता से कह रहे हैं कि उनकी अखिलेश यादव से बात हो गयी है कि चुनाव के बाद, जिले के अफसरों का छह महीने तक तबादला नहीं होगा क्योंकि उनके संग अंसारी जूनियर 'हिसाब-किताब' करेंगे! 


आप सोच सकते हैं कि जिनके घर के बच्चों में लोकसेवा आयोग और राज्य सेवा आयोग से चयनित अधिकारियों का कोई सम्मान नहीं है, उनके सामने आम लोगों की क्या हैसियत रही होगी! अंसारी परिवार का यह सामंती अहंकार निराधार भी नहीं था. यूपी पुलिस के एक नौजवान डीएसपी का किस्सा जगजाहिर है, जिसे केवल इसलिए नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि उसने मुख्तार अंसारी के पास से सेना से चोरी की हुई मशीनगन बरामद की थी. उस समय पदासीन पुलिस अफसरों के अनुसार तत्कालीन प्रदेश सरकार ने मुख्तार अंसारी को बचाने के लिए वो सबकुछ किया जो किसी भी सभ्य सरकार को नहीं करना चाहिए. मशीनगन बरामद करने वाले नौजवान डीएसपी को अपमानित होने के बाद नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा!  ऐसा नहीं है कि केवल तत्कालीन यूपी सरकार मुख्तार पर मेहरबान रही है. यूपी में सरकार बदलने पर मुख्तार अंसारी के चाहने वालों ने पंजाब में उनपर एक झूठा मुकदमा दायर कराकर उन्हें वहाँ की जेल में वीआईपी सुविधा के साथ रखने का इंतजाम किया. जब पंजाब में सरकार बदली तो नए जेल मंत्री ने विधानसभा में बताया कि मुख्तार पर सरकार ने कितना खर्च किया और उन्हें कितनी सुविधा दी थी.


मुख्तार हालात का मारा रॉबिनहुड नहीं


ऐसा भी नहीं है कि मुख्तार अंसारी हालात का मारा हुआ था. महज 15 साल की उम्र में मुख्तार पर 1978 में जान से मारने की धमकी देने का केस हुआ. 1986 में हत्या का केस दर्ज हुआ. जब भ्रष्टाचार चरम पर हो, और आरोपी रसूखदार सामंती परिवार से हो तो कानून का पहिया शून्य की रफ्तार से आगे बढ़ता है. मुख्तार पर चलने वाले ज्यादातर मुकदमों का यही हाल था. कुछ मुकदमों में 40-45 सालों तक कोई प्रगति नहीं हुई थी. किसी आरोप पर उसपर मुकदमा तभी आगे बढ़ सकता है, जब राज्य प्रशासन चाहे लेकिन जब आरोपी खुद राज्य प्रशासन का कई पीढ़ियों से हिस्सा हो, उसपर मुकदमा कौन चलाए?  देश में करीब 50 सालों तक राज करने वाली पार्टी के अध्यक्ष के वारिसों को कौन सा राज्य प्रशासन सजा दिलाएगा? जिसके घर में नगरपालिका अध्यक्ष, विधायक से लेकर सांसद तक भरे पड़े हों, उसके खिलाफ कौन पैरवी करेगा? और अगर कोई सरकार पैरवी करना भी चाहे तो पेशेवर हत्यारों के सरगना के खिलाफ गवाह को मुकदमे की तारीख तक जिंदा रखना, उल्टे पाँव हिमालय चढ़ने जितना दुष्कर है. कुछ बुद्धिजीवियों ने मुख्तार अंसारी को 'गरीबों का मसीहा' बताने की कोशिश की. लोकतांत्रिक देशों में रहने वाले चालाक गैंगस्टर आम लोगों की गरीबी और अपरिपक्वता का फायदा उठाकर, उनपर छोटी-छोटी मदद के अहसान के बोझ लाद देते हैं और बदले में उनसे वोट नामक अमृतफल प्राप्त करते हैं. मुख्तार अंसारी ने भी वैसा ही किया था.


अकूत संपत्ति के मालिक मुख्तार अंसारी


वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार गाजीपुर की प्रति व्यक्ति आय करीब चार हजार रुपये थी. गाजीपुर में गरीबी के हाल के उलट अंसारी परिवार की घोषित चल-अचल सम्पत्ति देखिए. ऐसी मसीहाई कौन नहीं चाहेगा, जिसमें जनता गरीब होती रहे और मसीहा करोड़पति होता रहे. अंसारी परिवार के चुनावी हलफनामों में दिए ब्योरे को देखे तो साफ हो जाता है कि उनके पास पैसा छापने की कोई मशीन रही होगी! पाँच साल में उतनी जायदाद टाटा-बिड़ला की भी नहीं बढ़ती होगी, जितनी अंसारी परिवार के माननीय नेताओं की बढ़ती रही है.  2007 के विधानसभा चुनाव में मुख्तार की चल-अचल सम्पत्ति करीब 82 लाख थी. दो साल बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में उनकी सम्पत्ति करीब छह करोड़ हो गयी. देख सकते हैं कि महज दो साल में 600 प्रतिशत से ज्यादा का उछाल आया. वर्ष 2017 में मुख्तार विधायक का चुनाव लड़े तो उनकी सम्पत्ति करीब 22 करोड़ बतायी गयी. अगले आठ साल में उनकी सम्पत्ति में करीब 400 प्रतिशत की ग्रोथ हुई! मुख्तार के हलफनामे के अनुसार उनका पेशा व्यवसाय और खेती था. करीब चार हजार रुपये मासिक प्रति व्यक्ति वाले गाजीपुर में करोड़ों की दौलत देने वाली खेती और व्यवसाय, किस्मत वालों को नसीब होता है. मुख्तार ही नहीं, उनके भाइयों की भी खेती और व्यवसाय इसी रफ्तार से फलते-फूलते रहे हैं. सिबगतुल्लाह अंसारी 2012 में ढाई करोड़ की जायदाद के मालिक थे, पांच साल बाद उनकी जायदाद दुगुनी होकर साढ़े चार करोड़ हो गयी. अफजाल अंसारी की जायदाद 2004 में करीब 51 लाख थी, जो 2009 में साढ़े चार करोड़ हुई और 2019 तक करीब 14 करोड़ हो गयी.


अंसारी परिवार ने खोदी लोकतंत्र की नींव


अंसारी परिवार ने केवल गरीबों पर अहसान कर के लोकतंत्र की नींव नहीं खोदी. बैलेट की ताकत का अंसारी परिवार को दादा-नाना के जमाने से पता था, मुख्तार ने उसमें बुलेट की ताकत मिलाकर जो घातक जहर तैयार किया, उसे देखकर उसके सम्मानित दादा-नाना कब्र में भी शर्मिंदा हो रहे होंगे. अपराध जगत में मुख्तार के पैर जमाने के बाद गाजीपुर एवं आसपास के इलाके में अंसारी परिवार के खिलाफ चुनाव लड़ने वालों को यह सोचना पड़ता था कि बैलट में वे जीत भी गये तो उसके बाद बुलेट से अपना बचाव कैसे करेंगे! और यह कोई कोरी कल्पना या गप्प नहीं है. मुख्तार के भाई अफजाल अंसारी के विधायक का चुनाव हराने वाले कृष्णानंद राय के शरीर और गाड़ी पर 500 से ज्यादा गोलियों के निशान पाए गये थे. तब गोरखपुर के सांसद, योगी आदित्यनाथ के काफिले पर जानलेवा हमला हुआ जिसमें वे बाल-बाल बच गये. विश्व हिन्दू परिषद के कोषाध्यक्ष नंदकिशोर रूंगटा के परिवार ने करोड़ों की फिरौती दी फिर भी वे आजतक घर वापस नहीं आए. ये तो वे नाम हैं, जो चर्चित हैं. जिन पीड़ितों को चर्चा भी नसीब नहीं होती,  उनकी लिस्ट कहीं ज्यादा लम्बी है.


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