जब 28 मई को अधिकांश विपक्षी दलों के बहिष्कार के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नए संसद भवन का उदघाटन किया, तो उन्होंने एक प्रतीक-चिह्न सेंगोल को भी पूजा-अर्चना के बाद लोकसभा सीपकर के आसन के करीब स्थापित किया था. तब से देश में उस पर बहस छिड़ी हुई है. सरकार का दावा है कि यह चोल राजाओं के राजदंड का प्रतीक है जो सत्ता-हस्तानांतरण के प्रतीक स्वरूप पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मिला था. सेंगोल के इतिहास और उसकी वर्तमान लोकतंत्र में उपयोगिता पर तब से ही पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं.


सेंगोल को स्वीकारा था नेहरू ने


नए संसद भवन के लोकसभा कक्ष में स्थापना से ही सेंगोल को पहली बार राजदंड के रूप में राजकीय स्वीकृति मिली है. आज से पहले न किसी सरकार या संविधान सभा ने सेंगोल को ऐसी कोई स्वीकृति प्रदान की थी और न ही कभी संसद भवन या अन्य कोई शासकीय प्रतिष्ठान में इस को प्रवेशाधिकार  मिला था. इस पर कोई मतभेद नहीं है कि 14 अगस्त, 1947 के शाम को पंडित  जवाहरलाल नेहरू ने अपने तत्कालीन आवास  17, यॉर्क रोड (अभी मोतीलाल नेहरू मार्ग) पर  थिरुवावदुथुरई अधीनम मठ के महंत से सेंगोल को एक मांगलिक भेंट स्वरूप स्वीकार किया था. उस अवसर पर शायद एक यज्ञ का भी आयोजन किया गया था जिस में नेहरू ने यजमान की भूमिका निभाई थी. यह बात तत्कालीन मीडिया रिपोर्ट और उस पर आधारित कुछ पुस्तकों में वर्णित बातों से सिद्ध होती है. देश के महामहिम राष्ट्रपति से लेकर मंत्रालय के किसी साधारण कर्मचारी तक को यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपने आवास पर कोई धार्मिक अनुष्ठान आयोजित करें, परन्तु इस से उस अनुष्ठान को राजकीय या शासकीय कार्यक्रम की स्वीकृति नहीं मिल जाती.


किसी अनुष्ठान का नहीं है कोई प्रमाण


वर्तमान सरकार सेंगोल को अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बता  रही है, परन्तु वास्तविकता यह है कि सत्ता हस्तांतरण के लिए कोई भी 'अनुष्ठान' नहीं हुआ था. 14 अगस्त, 1947 की रात्रि 11 बजे संविधान सभा का "मध्य-रात्रि सत्र" (बैठक) आहूत हुआ था. यह सत्र करीब एक घंटा दस मिनट चल था. इसमें भारत के गवर्नर जनरल (या वायसराय) लार्ड माउंटबेटन न ही आमंत्रित थे और न ही उपस्थित. इस बैठक की सबसे स्मरणीय घटना थी नेहरू का भाषण "नियति से साक्षात्कार". घड़ी में बारह बजते ही संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने यह घोषित किया कि संविधान सभा ने देश का शासन भार अपने हाथ में ले लिया है और लार्ड माउंटबेटन को स्वतंत्र भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया जाता है. इसके तुरंत बाद सदस्यों ने देश सेवा के लिए सामूहिक प्रण लिया. सभा समाप्त होने से पहले श्रीमती हंसा मेहता ने "भारत के महिलाओं" की ओर  से अध्यक्ष महोदय को स्वतंत्र भारत का झण्डा प्रदान किया. इसके उपरांत राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् से सभा समाप्त हुई. मध्य रात्रि के बैठक में दर्शनीय पल बहुत की कम  थे. सत्ता हस्तांतरण का कोई भी प्रतीकात्मक रूप देखने को नहीं मिला.


हस्तांतरण में शासकीय दायित्व संविधान सभा को


गौरतलब यह है कि मध्य रात्रि सत्र में भारत का शासकीय दायित्व संविधान सभा पर स्थापित किया गया, न कि किसी व्यक्ति विशेष पर. तीन वर्ष (1946 -1949) तक चले संविधान सभा के विमर्श में सेंगोल का कोई उल्लेख कभी नहीं आया. भारत में स्वतंत्र होने से पहले एक अंतरिम सरकार थी जिसके अध्यक्ष लार्ड माउंटबेटन एवं उपाध्यक्ष पंडित नेहरू थे. मोदी सरकार का यह लिखित दावा है कि माउंटबेटन ने आगामी प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू से पूछा कि हस्तांतरण के इस क्षण को कैसे आयोजित किया जाना चाहिए? सत्ता हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिए किस प्रतीक को अपनाया जाना चाहिए? सरकार का आगे दावा है कि पण्डित नेहरू ने इस विषय पर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से चर्चा की और राजगोपालाचारी ने खोज कर यह ढूंढ निकाला कि दक्षिण भारत के चोल राजवंश में सेंगोल (राजदण्ड ) के ग्रहण के माध्यम से सत्ता हस्तांतरण की परम्परा थी. आगे कहा गया "राजाजी ने सुझाव दिया कि नेहरू, माउंटबेटन से उसी प्रकार सेंगोल स्वीकार कर सकते हैं. नेहरू ने सहमति व्यक्त की, और राजाजी को यह कार्य सौंपा (सन्दर्भ: इंदिरा  गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र, 1947 में भारत को सत्ता का हस्तांतरण: एक अल्पज्ञात मूलभूत वृतान्त, 2023).


न कार्यादेश,  न धनराशि का उल्लेख


क्या यह पूरी मंत्रणा मौखिक रूप से संपन्न हुई थी ?  लार्ड माउंटबेटन अंतरिम सरकार में अध्यक्ष थे, जब कि पंडित नेहरू उपाध्यक्ष थे, वहीं राजगोपालाचारी सदस्य (उद्योग, जन आपूर्ति) थे. ये सभी सरकारी नोट लिखते थे, पत्र भेजते थे, भाषण देते थे, परन्तु सरकार ऐसा कोई राजकीय नोट, पत्र या भाषण का हिस्सा सामने नहीं ले आ पाई है जिसमें सेंगोल का कोई भी उल्लेख हो. सरकार अगर किसी को कोई काम के लिए अधिकृत करती है (चाहे वो सेंगोल पर बना 5 मिनट 40 सेकण्ड का वीडियो क्यों न हों) उस के लिए "वर्क आर्डर" या कार्यादेश जारी किया जाता है जिस में नियम एवं शर्तों  का उल्लेख होता है. उस में धनराशि का भी उल्लेख होता है. क्या हम यहां यह माने कि सेंगोल बिना किसी कार्यादेश एवं सरकारी ख़जाने से धनराशि लिए बिना तैयार किया गया?


सेंगोल को किस ने अधिकृत किया? अंतरिम सरकार ने, संविधान सभा ने? अगर यह सत्ता हस्तांतरण का "प्रतीक" है तो वह राजकीय रूप से अधिकृत होना चाहिए. अगर ऐसा न हो तो केवल एक निजी भेंट माना जायेगा. स्वतंत्रता के समय सैकड़ों संस्थाओं ने हज़ारों उपहार दिए होंगे. सेंगोल उनमें से एक उत्कृष्ट उपहार माना जा सकता है, परन्तु इसकी राजकीय व शासकीय वैधता क्या थी? अगर अधीनम के महंत सेंगोल (राज दण्ड) की  जगह नेहरू को एक राजमुकुट भेंट करते (जो वे कर सकते थे) तो भी क्या नेहरू उसे भी संसद या किसी  शासकीय भवन में स्थापित करने के लिए बाध्य होते?


सी. राजगोपालाचारी नहीं थे मौजूद


सेंगोल का निर्माण दायित्व थिरुवावदुथुरई अधीनम मठ को कैसे मिला? क्या यहाँ भी सब मौखिक रूप से संपन्न हुआ? क्या राजगोपालाचारी (राजाजी) एवं अधीनम के बीच कोई पत्राचार नहीं हुआ? मोदी सरकार की माने तो राजाजी तत्कालीन सरकार एवं अधीनम के बीच में एक मात्र कड़ी थे. अगर ऐसा होता तो 14 अगस्त, 1947 को जिस दिन अधीनम के लोग नेहरू को सेंगोल सौंपने नई दिल्ली पहुंचे तो राजगोपालाचारी को उनका स्वागत करना चाहिए था और उस यज्ञ में उपस्थित रहना चाहिए था. संयोग से राजाजी ने जो किया उसी से साबित होता है कि सेंगोल प्रकरण से उनका कोई लेना देना नहीं था.


राजगोपालाचारी 14 अगस्त, 1947 के दिन सुबह पश्चिम बंगाल के राज्यपाल का पद ग्रहण करने के लिए हवाई जहाज़ से कलकत्ता रवाना हो गए.  उनके एक जीवनीकार नील्कन पेरुमल ने अपनी पुस्तक "राजाजी: ए बायोग्राफिकल स्टडी" (1948 ) में लिखा है कि दोपहर में राजाजी कलकत्ता के हवाई अड्डे में उतरे जहाँ निवर्तमान राज्यपाल फ्रेडरिक बॉरोज और मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चंद्र घोष ने उनका स्वागत किया (पृष्ठ 70). कोई आश्चर्य नहीं कि राजाजी के दौहित्र और जीवनीकार राजमोहन गाँधी का कहना है कि सेंगोल के साथ राजाजी के संबंध के विषय में वे पहली बार सुन रहे हैं. सरकार को अब यही उचित है कि वे अपने दावों के पक्ष में पुख्ता सबूत देश के सामने रखे.


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)