मध्य प्रदेश के छतरपुर में दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार देख दबंग जातियों के लोगों ने पथराव किया. ये घटना बकस्वाहा थाना क्षेत्र के चौरई गांव में सोमवार शाम की है. बारात निकलने के पहले गांव में घुमाने की रस्म के दौरान ये घटना हुई. हालात इतने बिगड़ गए कि दो थानों के पुलिस को बुलाना पड़ा. पुलिस की मौजूदगी में बाद में बारात को रवाना किया गया. आजादी के 75 साल बाद भी हालात नहीं सुधरे हैं और इस तरह के भेदभाव की घटना सामने आते ही रहती हैं. सवाल उठता है कि दबंग जातियों के लोग क्यों इतिहास के पन्नों से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं.


छतरपुर की ये घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है. समस्या ये है कि इस तरह की घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में रह-रहकर होते रहती हैं. ठीक इसी तरह की कई घटनाएं अतीत में घट चुकी हैं. दलित जाति के दूल्हे को घोड़ी से उतरने के लिए मजबूर किया, मारपीट की. पश्चिमी यूपी की एक घटना में तो एक दलित दूल्हा अर्ध सुरक्षा बल का जवान था. मुश्किल से एक साल पहले की ये बात है. लेकिन जब उसने घोड़ी पर बैठकर बारात निकालने की व्यवस्था की तो गांव के लोगों ने आपत्ति की. अच्छी बात ये हुई कि उसने पुलिस में शिकायत की तो पुलिस की मौजूदगी वहां पर रही और उसकी वजह से उसके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ.


इस तरह की घटनाएं बीच-बीच में होती रहती हैं. आजादी के 75 साल बाद भी ऐसी घटनाओं का होना शर्मिंदगी का कारण है. ऐसी घटनाएं समाज में जातिगत तनाव पैदा करने का काम करती हैं. ऊंच-नीच के भेद को इंगित करती हैं. ये बताती हैं कि इस तरह का भेदभाव अभी भी हमारे समाज में व्याप्त है. निश्चित रूप से समय के साथ ऐसा कम हुआ है, लेकिन जब ऐसी घटनाएं सामने आती हैं, तो निराशा होती है, दु:ख होता है. एससी-एसटी एक्ट पर बहुत लोग एतराज करते हैं, लेकिन  इस तरह की घटनाएं ये साबित करती हैं कि एससी-एसटी एक्ट अभी भी रहना क्यों जरूरी है.


इस तरह के मामले ये बताते हैं कि केवल कानूनों के जरिए आप सामाजिक कुरीतियों से नहीं निपट सकते हैं. सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए कानून के साथ-साथ सामाजिक चेतना और जागरूकता भी जरूरी होती है. उसका कहीं न कहीं अभाव है. इस तरह का भेदभाव एक सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं है. इस तरह की घटनाएं उस समाज की, उस जिले की, उस समुदाय की, उस प्रदेश की बदनामी का कारण बनती हैं.


विडंबना ये रही कि आजादी के बाद इस तरह की जो सामाजिक समस्याएं थी, छुआछूत की, भेदभाव की, ऊंच-नीच की, तथाकथित कमतर समझे जाने वाली जातियों को अपने बराबर न मानने की, उनको पर्याप्त सम्मान-आदर नहीं देने की और एक इंसान होने के नाते एक जैसा व्यवहार न करने की, वो किसी न किसी तरह से बनी रहीं. इसके पीछे ये कारण है कि आजादी के बाद सामाजिक सुधार के जो आंदोलन थे, उनमें थोड़ा ठहराव आ गया.


आजादी के पहले सामाजिक सुधार के बड़े आंदोलन चले. चाहे वो विधवा विवाह का हो, या फिर बाल विवाह रोकने का हो, दलितों को मंदिर में प्रवेश कराने का हो या और इसी तरह की जो समाज में समस्याएं थीं, इनके लिए आजादी के पहले सामाजिक आंदोलन बहुत चले. आजादी के बाद जो उनकी गति बनी रहनी चाहिए थी, उसमें कहीं न कहीं शिथिलता आई. मुझे लगता है कि उस शिथिलता को दूर करने की जरूरत है.


राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी की बात एक हद तक ही सही है. जब भी ऐसी कोई घटना होती है और वो मीडिया के जरिए हाइलाइट होती है तो शासन-प्रशासन और उस राज्य की सरकार उसको न्याय दिलाने के लिए सक्रिय होती है. वो अपने लिए उस घटना को शर्मिंदगी का कारण मानती है. वहां तो राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई जाती है कि जो लोग भी इस तरह का अपराध करते हैं, उनको जेल भेजने का मामला हो, उनके खिलाफ सुसंगत धारा के तहत कार्रवाई करने का मामला हो, उसमें तो ढिलाई देखने को नहीं मिलती है.


एक बात जरूर है कि राजनीतिक दल इस तरह की सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ समाज में चेतना जगाने का काम उतनी तत्परता और प्रतिबद्धता के साथ नहीं करते हैं, जैसा कि करना चाहिए. कहीं पर भी भूले से कुछ दर्ज हो जाए तो दर्ज हो जाए, लेकिन आप कोई भी राजनीतिक दल देख लें, उसके चुनाव घोषणापत्र में इस तरह की सामाजिक कुरीतियों, भेदभाव को लेकर कोई स्पष्ट बात नहीं दर्ज होती. उनके जो सम्मेलन होते हैं, उनमें ऐसे कोई सामाजिक प्रस्ताव पारित नहीं किए जाते हैं. जरूरत है कि राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं तक ये बात पहुंचाएं कि हमें समरस समाज के लिए काम करना है और हम ऊंच-नीच की जो भी बातें समाज में अवशेष रह गई हैं, उनको दूर करने के लिए प्रयासरत रहेंगे. इसका समाज में व्यापक असर पड़ेगा.


एक विडंबना ये भी देखने को मिलती है कि जो राजनीतिक दल सामाजिक न्याय की बात करते हैं, दलित उत्थान की बात करते हैं, आदिवासियों के हित की बात करते हैं, तो वो ऐसी घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय ये देखते हैं कि पीड़ित कौन है और आक्रांता कौन है. अगर ये उनके राजनीतिक एजेंडे को सूट नहीं करता है तो वे मौन साध जाते हैं.


हाल में कई घटनाएं हुई हैं, जहां दलितों के साथ मुस्लिम लोगों ने दुर्व्यवहार किया, मारपीट या अभद्रता की, लेकिन इस पर वो राजनीतिक दल चुप्पी साध लेते हैं, जो दलित हितों की बात करते हैं. वे दलित-मुस्लिम एकता की बात करते हैं. दलित-मुस्लिम एकता का जो भी राजनीतिक दल नारा देते हैं, वो कहीं न कहीं अपनी स्थापना या कहें मान्यता में ईमानदार नहीं रह जाते हैं. एक ओर तो जय भीम, जय मीम का नारा लगता है, लेकिन जब आक्रांता या अत्याचार करने वाला मुस्लिम होता है और पीड़ित दलित होता है तो ऐसे मामलों में वो चुप्पी साध लेते हैं. चाहे वो भीम पार्टी वाले चंद्रशेखर हों या फिर ओवैसी हो.


इस तरह का छल आजादी से पहले से होता आ रहा है. योगेन्द्रनाथ मंडल, जिन्ना के साथ इस आधार पर हो गए थे कि पूरे पाकिस्तान में दलितों के साथ न्याय होगा, बराबरी का व्यवहार होगा. ये भी एक विडंबना है, जिसकी हम अनदेखी नहीं कर सकते.


ये जो अर्थव्यवस्था का उदारीकरण है और समाज का शहरीकरण है, उसमें इस भावना को बहुत हद तक दूर करने का काम किया है कि कौन जाति क्या काम करेगी, ऊंच-नीच को मिटाने का काम किया है. मॉल-रेस्तरां में कौन क्या है, इसकी कोई परवाह नहीं करता है. ट्रेन, बस, जहाज में कौन क्या है, इसकी कोई परवाह नहीं करता है. दबंग जातियां कोई ख़ास जातियां नहीं हैं. हर जाति में अच्छे-बुरे लोग होते हैं. कुछ जातियों में कुछ ही लोग हैं, जो उस मानसिकता से अभी भी जकड़े हुए हैं, जो सदियों पुरानी है.


कहीं न कहीं ये द्वेषपूर्ण और दोषपूर्ण मानसिकता के जो अवशेष हैं, उनको दूर करने की जरूरत है. हम दो-चार घटनाओं के आधार पर किसी जाति विशेष को दबंग या अत्याचारी या फिर दलितों के साथ भेदभाव करने वाली नहीं कह सकते हैं. जो समाज में बदलाव आया है, उसमें कहीं न कहीं उनकी भी भागीदारी रही है. समय के साथ बहुत सुधार आया है. आज से 40-50 साल पहले दलितों के साथ जो भेदभाव या व्यवहार होता था, वैसा अब नहीं रह गया है. इसके बावजूद इक्का-दुक्का मामले सामने आते रहते हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए. ऐसी घटनाएं न हों, इसके लिए राजनीतिक दलों, धार्मिक संगठनों, सामाजिक संगठनों और सांस्कृतिक संगठनों को भी सक्रिय और सचेत होने की जरूरत है. जो लोग कानून के रक्षक हैं, उनको भी मुस्तैदी बरतने की जरूरत है.


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