मोरक्को और फ्रांस के बीच हुए फीफा के दूसरे सेमीफाइनल मैच को मोरक्को और बाकी दुनिया के अधिकतर लोगों ने देखा. भले ही इस वर्ल्ड कप सेमीफाइनल में नतीजे फ्रांस के पक्ष में रहे हो, लेकिन आक्रामक कोशिशों, जीतने की ज़िद ने मोरक्को को शोहरत दिलाई. इसने सेमीफाइनल में पहुंचने वाले पहले अफ्रीकी देश बनने का इतिहास रचा. भले ही इस मैच के साथ मोरक्को का वर्ल्ड कप फ़ाइनल में पहुंचने वाली पहली अफ़्रीकी टीम बनने का ख्वाब टूटा गया हो, लेकिन टूर्नामेंट में इस टीम ने जिस जिंदादिली के साथ  फ़ुटबॉल खेला है, उसने पूरी दुनिया को इसका कायल बना दिया. इस मैच में एक के बाद एक कमेंटेटर ने दोनों टीमों की मुलाकातों के "ऐतिहासिक" मिजाज के बारे में गर्मजोशी से बताया, लेकिन इन दोनों देशों की फुटबॉल के मैदान पर यह पहली मुलाकात नहीं थी.


फ़्रांस फीफा का मौजूदा चैम्पियन है. 1958 से 1962 में ब्राज़ील ने लगातार दो फीफा विश्व कप जीते थे. उसके बाद फ्रांस भी ब्राजील की राह पर अपने ख़िताब को बनाए रखने वाला पहला देश बनने की कोशिश में है. मोरक्को को सेमीफाइनल में हराने के बाद उसकी आधी कोशिश पूरी हो गई है. अब फ्रांस का मुकाबला फाइनल में अर्जेंटीना से होने जा रहा है. इस सबके बाद भी फुटबॉल के महाकुंभ में मोरक्को की दमदार मौजूदगी को नकारा नहीं जा सकता है. भले ही फुटबॉल की दुनिया में वो कल का नवाब हो, नया आगे बढ़ा हो. दरअसल 1930 में अमेरिका और 2002 में दक्षिण कोरिया के अलावा, दक्षिण अमेरिका या यूरोप से बाहर भी विश्व कप सेमीफाइनल खेलने के लिए वो इकलौता देश है.


फीफा में मोरक्को का सेमीफाइनल तक टॉप पर पहुंचने का सफर शानदार रहा है. इसने सेमीफाइनल तक खेले गए पांच मैचों में एक भी गोल नहीं खाया है, एक सेल्फ गोल को छोड़कर, और साथ ही इसने फुटबॉल के बेल्जियम, स्पेन और पुर्तगाल जैसे  दिग्गजों को धराशायी कर डाला. दरअसल फ्रांस के खिलाफ सेमीफाइनल मुकाबले से पहले मोरक्को ने सिर्फ एक गोल खाया था, जो कनाडा के खिलाफ सेल्फ गोल था. मतलब मोरक्कन डिफेंस को भेदने में प्रतिद्वंद्वी टीम का कोई भी खिलाड़ी कामयाब नहीं हो पाया था. सेमीफाइनल से खेले गए पांच मैचों में से चार मैच मोरक्को ने जीते और एक मैच ड्रा रहा था.


लेकिन अगर यह सब केवल करीबी एक जैसा होने और इसके साथ फीफा में होने वाले हो -हल्ले की तरह लिया जाए तो हम उस कहावत का मतलब समझने में नाकाम रहते हैं जो कहती है कि "फुटबॉल कभी भी फुटबॉल के बारे में नहीं रहा है." सच है फीफा केवल फुटबॉल तक सीमित कभी नहीं रहा. इसमें राजनीति, ताकत और राष्ट्रवाद सहज ही शामिल हो जाते हैं. इसलिए विश्व कप दुनिया को वैसे ही जीवंत करता है जैसा कि कुछ चीजें करती हैं और इसके लिए पैदा होने वाले उत्साहपूर्ण जोश ने इस बात को साबित भी कर दिया है कि फुटबॉल अकेला ऐसा खेल है जिसमें सार्वभौमिक या विश्वव्यापी जन अपील है.


कुछ लोगों का मानना है कि यह दुनिया को एक साथ लाता है, लेकिन यह एक संदेहास्पद और पक्के तौर एक अजीब दावा है, भले ही इसके पीछे यह प्रेरक तर्क दिया जाए कि इस विश्व कप ने शायद कम वक्त के लिए सही एकजुटता का नया निर्माण किया है.  बहुत से लोग इसकी कड़ी आलोचना करते हैं, उदाहरण के लिए फीफा के कतर को विश्व कप की मेजबानी देने के फैसले का.ये लोग खाड़ी में अरब-भाषी और मुस्लिम-प्रभुत्व वाले इस देश को इस तरह के एक यादगार खेल आयोजन की मेजबानी के लायक नहीं मानते हैं.


वहीं सऊदी अरब भी इससे बहुत खुश नहीं था. यह दो दशकों से क्षेत्रीय प्रभाव को लेकर क़तर के साथ संघर्ष में लगा हुआ है और 2017 के बाद से कुछ अरब देशों ने क़तर की नाकेबंदी की है. दरअसल 5 जून, 2017 को सऊदी अरब, यूएई, बहरीन, मिस्र सहित 9 देशों ने क़तर के साथ अपने रिश्ते तोड़ डाले थे. ये बात यहां गौर करने लायक है कि ये  दोनों देश खाड़ी सहयोग परिषद-जीसीसी (GCC) के सदस्य हैं. यहां सऊदी अरब को रूढ़िवाद को बढ़ावा देने वाली एक ताकत के तौर पर देखा जाता है जिसने अरब वसंत का विरोध किया गया था.


इसके उलट कतर सामाजिक और राजनीतिक बदलावों के लिए अधिक मेहमान नवाज रहा है और उसने ईरान के साथ घनिष्ठ रिश्ते बनाए हैं. अब, विश्व कप में जब सऊदी टीम के अपने अप्रत्याशित तौर से मजबूत और शानदार प्रदर्शन से जगह बनाई है तो वह इसे भुनाने की पूरी कोशिश में है. दरअसल विश्व कप के ओपनिंग मैच में सऊदी टीम ने अर्जेंटीना को 2-1 के स्कोर से शानदार शिकस्त दी है, तब सऊदी अरब ने क़तर को उत्साह से भर दिया था. इस जीत के बाद सऊदी लोगों का कतर जाना थमा नहीं है वो अभी भी वहां जा रहे हैं. वास्तव में पूरा अरब जगत विश्व कप को अरब जगत की जीत बता रहा है.


और इसी तरह अफ्रीका ने भी पक्के तौर पर दावा कर डाला था कि ये विश्व कप पहले से ही अफ्रीकियों का है, और मोरक्को को फ्रांस के खिलाफ किसी भी तरह से जीतना होगा, जैसा कि तीन हफ्ते पहले ये संभावना अकल्पनीय थी कि अर्जेंटीना फाइनल में जगह बनाएगा, क्योंकि अर्जेंटीना को फीफा वर्ल्ड कप के अपने पहले ही मैच में शिकस्त मिली थी.  मंगलवार (22 नवंबर) को लुसेल स्टेडियम में खेले गए मुकाबले में  सऊदी अरब ने अर्जेंटीना को 2-1 से हरा दिया था. लेकिन अब अर्जेंटीना के खिलाफ फाइनल की गूंज जो पूरी दुनिया में महसूस की जाएगी वो असाधारण होगी. मोरक्को के सेमीफाइनल में पहुंचने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि फ्रांस को रौंद कर वो फाइनल में अर्जेंटीना के खिलाफ उतरेगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. 


सेमीफाइनल में मोरक्को फ्रांस से हार गया. मोरक्को की टीम मुकाबले से बाहर हो गई है लेकिन शनिवार को वो क्रोएशिया के ख़िलाफ़ तीसरे नंबर के लिए मैच खेलेगी. 'एटलस लायंस' के नाम से मशहूर इस टीम ने वर्ल्ड कप में अपने शानदार खेल की बदौलत ऐसा रुतबा पाया है कि सेमीफाइनल मैच के बाद फैंस इस टीम की हौसलाअफजाई करते नजर आए थे. ऐसे में जब दक्षिण अमेरिका और खास तौर से यूरोप को विश्व कप में असंगत संख्या में सीटें मिलती हैं तो  एशियाई, अरब और अफ्रीकी देशों में इस प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी के लिए शोर मचना तय है और ये सही भी है. 


लेकिन यहां .ये देखना भी जरूरी है कि मोरक्को दुनिया में खुद को कैसे पेश करता  है? उप-सहारा अफ्रीका के साथ इसका ऐतिहासिक तौर पर कुछ घनिष्ठ संबंध रहा है, लेकिन उत्तरी अफ्रीका या माघरेब भी कई मायनों में अलग है. उत्तरी अफ्रीका का पश्चिमी भाग माघरेब कहलाता है. अरबी में इस शब्द का मतलब पश्चिमी होता है.  माघरेब में मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, लीबिया और मौरितानिया पांच देश है. हालांकि, विडंबना यह है कि माघरेब ("पश्चिम" या नाबालिग अफ्रीका के पूर्वजों के तौर पर जाना जाने वाला ) खुद ही गहराई से टूटा हुआ है. मोरक्को के भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी अल्जीरिया ने 2021 में रबात यानी मोरक्को की राजधानी के साथ रिश्ते खत्म कर दिए थे.


इन दोनों देशों की लड़ाई पश्चिमी सहारा को लेकर है, जिसे 1975 में मोरक्को ने अपने कब्जे में ले लिया और रबात अल्जीरिया के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का समर्थन करता रहा है. उधर रबात के इजरायल के साथ  घनिष्ठ संबंधों ने मोरक्को और अल्जीरिया के बीच रिश्तों में बर्फ जमा दी है.  ये रिश्ते इस कदर खराब हैं कि अल्जीरिया में कम से कम फीफा विश्व कप में मोरक्को की जीत को देश के टीवी पर भी नहीं दिखाया गया  भले ही इस जीत पर बाकी अरब और अफ्रीकी दुनिया जश्न के मूड में रही हो. इस वक्त अलग-अलग परेशानियों का सामना कर रहे अरब देशों को मोरक्को फुटबॉल टीम ने खुशी होने की वजह दी.


यही वजह रही कि उसकी जीत के लिए 22 देश ने दुआ कर रहे थे. अरब देशों से मिल रहे बेतहाशा प्यार ने फीफा वर्ल्ड कप को उसके लिए खास बना दिया. स्टेडियम में फैंस मोरक्को का झंडा लेकर ‘एक लोग एक देश’ के नारे लगे. मोरक्को की स्पेन पर शानदार जीत के बाद 20 अरब देशों के मंत्रियों ने मोरक्को की टीम को बधाई भेजी थी. इसने साबित किया कि राजनीतिक कलह के बाद भी  सभी अरब देश मोरक्को की खुशी में खुश थे.


हालांकि जब मोरक्कन फ़ुटबॉल स्टार सोफियान बोफाल ने स्पेन पर जीत को केवल मोरक्को और अरब दुनिया को समर्पित किया, तो इसे अफ्रीका में अच्छा नही माना गया.  इस मोरक्को खिलाड़ी के कॉमेंट्स के बाद सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ कॉमेंट्स की बाढ़ आ गई. इस नाराजगी के बाद उन्होंने वही किया जो आज हर कोई आसानी से करता है. उन्होंने माफी मांग ली, लेकिन ये बात भी गौर करने लायक है कि अरब दुनिया में भी मोरक्को कुछ असामान्य रहा है. उदाहरण के लिए कुछ वक्त पहले मोरक्को ने इजरायल के साथ अपने रिश्ते सामान्य किए. इसके बदले उसे पश्चिमी सहारा पर संप्रभुता के अपने दावों के लिए अमेरिका से समर्थन मिला.


इज़रायल में मोरक्को के यहूदियों की एक अहम आबादी है, जो लगभग 10 मिलियन की इज़रायली आबादी का लगभग 5 फीसदी है, और वास्तव में ये सभी इज़रायली एटलस लायंस की कतर में जीत पर खुश हैं. मोरक्को की  फुटबॉल टीम को इस देश की शेरों की एक खास प्रजाति की वजह से एटलस लायंस भी कहा जाता है. लेकिन यह विश्व कप पक्के तौर पर हर मौके पर मोरक्को के खिलाड़ियों के फिलिस्तीनी झंडे के प्रदर्शन के लिए भी जाना जाएगा. इससे साफ हो गया है कि भले ही मोरक्को इजरायल के साथ घनिष्ठ संबंध बना रहा है, यह फिलिस्तीन के सवाल पर अरब दुनिया के साथ अपनी एकजुटता का संकेत देना चाहता है..


यह निर्विवाद तौर पर यूरोप और खासकर फ्रांस के साथ मोरक्को के रिश्ते ही रहे, जिन्होंने मोरक्को और फ्रांस के बीच इस सेमीफाइनल को समकालीन सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास के सबसे कड़वे और तनावपूर्ण पलों में से एक बना डाला.मोरक्को को एक पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेश के तौर पर जाना जाता है, लेकिन अन्य यूरोपीय ताकतों ने भी बीती  शताब्दियों में इसके इतिहास में दखलअंदाजी की है. बीते महीने मोरक्को ने 24 साल बाद फीफा वर्ल्ड कप ग्रुप एफ के मुकाबले में बेल्जियम को 2-0 से हरा डाला.


नतीजन बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में हजारों फैन्स सड़कों पर उतर कर विरोध किया. कई जगहों पर मोरक्को और बेल्जियम के फैन्स में झड़पें हुई. मोरक्कों की जीत को एक काव्यात्मक न्याय यानी आदर्श न्याय कहा गया, क्योंकि बेल्जियम को अफ्रीकी महाद्वीप के देश  कांगो में  तुलना न किए जा सकने वाले भयंकरअत्याचारों के लिए दुनिया में उस स्तर की बेइज्जतीऔर बदनामी नहीं झेलनी पड़ी जितनी की उसे झेलनी चाहिए थी. 1870 का दशक वो दौर था जब बेल्जियम की फौज ने कांगो पहुंच कर वहां पैदा होने वाले रबर का पूरा फायदा उठाने के लिए मर्दों से जंगलों में इसकी खेती करवाई और औरतों को अपनी सेवा में लगाकर घिनौने अत्याचारों को अंजाम दिया.


इसके बाद मोरक्को की फुटबॉल टीम ने फीफा विश्व कप में स्पेन (पेनल्टी शूट-आउट में) और पुर्तगाल (1-0) को हार का स्वाद चखाया. ये वो दो आइबेरियन ताकतें (Iberian Powers )हैं जो डच, फ्रेंच और अंग्रेजो के उदय से पहले दुनिया पर हावी रही थीं. ये कम ही लोगों को पता है कि  15 वीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने मोरक्को के अटलांटिकतक को अपने कब्जे में लिया था. अगले कुछ दशकों में उन पर नियंत्रण खोने से पहले लगभग 1500 तक मोरक्को के तटीय शहरों जैसे अगादिर, एल जादिदा (पूर्व में मज़गान) और अज़ेनमोर पर उसका कब्ज़ा रहा था. इसी तरह स्पेन ने भूमध्यसागरीय तट के साथ मोरक्को के कुछ हिस्सों को अपना उपनिवेश बनाया था और पश्चिमी सहारा 1920 के दशक में रिफ़ युद्ध का गवाह बना था.


ये युद्ध औपनिवेशिक ताकत स्पेन और उत्तरी  मोरक्को के रिफ पर्वतीय इलाके की बर्बर जनजातियों के बीच लड़ा गया एक सशस्त्र संघर्ष था. इस तरह से देखा जाए तो पुर्तगाल और स्पेन पर मोरक्को की जीत को औपनिवेशिक काल में हुए शोषण के बदले की तरह लिया गया.  यह खुशी की बात है कि ये यूरोपीय ताकतें अपने घिनौने और शोषक इतिहास के साथ अब एक अरब और अफ्रीकी देश के सामने फुटबॉल के मैदान पर ही सही नतमस्तक हुई हैं.


मोरक्को और उस पर औपनिवेशिक शासन का इतिहास लंबा है और ये हमें फ्रांस तक लेकर आता है. फ्रांस मोरक्को को उपनिवेश बनाने वाली यूरोपीय ताकतों में आखिरी रहा. फुटबॉल के मैदान पर देखा जाए तो 


ये महान यूरोपीय फुटबॉल की ताकतों में से आखिरी है, जिसके खिलाफ जीतने के लिए मोरक्को को अपनी बुद्धि, दिलेरी और धीरज की ताकत दिखानी थी. बहरहाल मोरक्को इसके सामने मैदान में डट के मुकाबला करने के लिए जमा रहा, लेकिन जीत आखिरकार फ्रांस की हुई. अगर हम ये कहें कि मोरक्को के पास अल्जीरिया के मुकाबले न तो लेखक अल्बर्ट कैमस (अल्बैर कामू) थे और न ही लेखक फ्रांट्ज़ फैनन जो दुनिया का ध्यान फ्रांस के इस देश के औपनिवेशीकरण पर खींच पाते. दरअसल फ्रांस ने मोरक्को पर 1907 से अपना कब्जा जमाना शुरू किया था. हालांकि 1912 में मोरक्को फ्रांस के संरक्षण में आ गया. इसे महान एफ्रो-कैरीबियाई विद्वान वाल्टर रॉडने के अफ्रीका पर कहे माकूल लफ्जों में समझे तो फ्रांस ने यहां संसाधनों को अंधाधुंध दोहन किया और इसे "अविकसित" रहने दिया. भले ही यहां क्रूरता का स्तर फ्रांसियों के अल्जीरिया में किए गए स्तर तक न पहुंचा हो. जब 1940 के दशक की शुरुआत में उपनिवेश विरोधी संघर्ष तेज हो गया तब भी मोरक्को 1956 तक एक फ्रांस के संरक्षण में रहा. 


फ्रांस और मोरक्को के बीच रिश्ते तब से हमेशा सुखद नहीं रहे हैं और कभी-कभी बेहद खराब होने की हद तक भी गए हैं. माना जाता है कि मोरक्कन मूल के 1.5 से अधिक लोग अब फ्रांस में रह रहे हैं, जिनमें से आधे लोगों के पास दोहरी नागरिकता है, और 2022 में किसी भी अन्य जातीय या नस्लीय समूह के मुकाबले फ्रांस ने सबसे अधिक लगभग 35,000 मोरक्को के लोगों को फ्रांस में रेजीडेंसी परमिट दिया.हालांकि  फ्रांस में समय-समय पर मोरक्को के लोगों को वीजा देने पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी उठती रहती है. हाल ही में जुलाई-अगस्त 2022 में ऐसी ही मांग उठ चुकी है. जैसा कि पूरी दुनिया जानती है  कि फ्रांस में नस्लीय समस्या गंभीर है.इसके बाद भी फ्रांस ने जिस धूमधाम से ऐलान किया है कि जो कोई भी गणतंत्र के मूल्यों को अपनाता है वह फ्रांसीसी बन जाता है. यहां के उपनगरों में खासकर पेरिस के उपनगरों में नस्लीय अशांति असामान्य बात नहीं है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि फ्रांस में उत्तरी अफ्रीका के लोग बेरोजगारी, गरीबी, भेदभाव, पुलिस हिंसा जिसे 


सामान्य तौर से सामाजिक बहिष्कार कहा जाता है से पीड़ित हैं. अल्ट्रा- राइट फ्रांसीसी राष्ट्रवादियों ने अपनी तरफ से दिखाया कि फ्रांसीसी उपनिवेशवाद को पोषित करने वाला नजरिया अब अतीत की बात हैं, लेकिन उन्होंने इस विश्व कप में यूरोपीय टीमों पर मोरक्को की जीत को उपद्रवी जश्न के तौर पर लिया है इसकी निंदा की है. 


गिल्बर्ट कोलार्ड, जो फ्रांस की फार राइट नेशनल रैली (Far-Right National Rally) पार्टी से थे और अब यूरोपीय संसद में बैठते हैं ने ट्वीट किया, " एमिनेंसके एनेक्स टाउन हॉल पर एक मोरक्को का झंडा फहराया गया. हमारे देश पर कब्जा करने का यह प्रतीक असहनीय है. फ्रांस में मोरक्को के लोग जिन पर राइट विंग फ्रांसीसी यकीन करना चाहते हैं, वो उस देश से नफरत करते हैं जिसने उन्हें खिलाया, आश्रय दिया और उनका पालन-पोषण किया- और उन्हें कोई संदेह नहीं है कि यह "राष्ट्र-विरोधी" होने के कारण एक ऐसी बीमारी है जो बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक समाजों पर असर डालती है. 


नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.